यहूदी राज्य और जनतंत्र

पश्चिमी साम्राज्यवादी, खासकर अमरीकी साम्राज्यवादी यह कहते नहीं थकते कि पश्चिम एशिया में इजरायल अकेला जनतंत्र है। अभी हालिया संघर्ष में अमरीकी राष्ट्रपति ने इजरायल के प्रति अपने बेशर्त समर्थन को यह कहकर जायज ठहराया कि यह जनतंत्र और जनतंत्र विरोधी ताकतों के बीच संघर्ष है और सभी जनतांत्रिक लोगों को इजरायल के साथ खड़ा होना चाहिए। 
    
पर क्या इजरायल वाकई जनतंत्र है? क्या इजरायल के आंतरिक राजनीतिक ढांचे को जनतांत्रिक कहा जा सकता है? क्या कोई जनतांत्रिक देश वह कर सकता है जो इजरायल 1948 से अभी तक फिलीस्तीन में करता रहा है? 
    
पूंजीवादी दायरों में पूंजीवादी जनतंत्र की बहुत सारी परिभाषाएं हैं। पर सारी परिभाषाओं का एक सारतत्व है। वह यह कि जनतंत्र में कानून की नजर में हर व्यक्ति बराबर होता है। इस सारतत्व को सबसे पहले संवैधानिक तौर पर अमरीका और फ्रांस में घोषित किया गया- 1776 में अमेरिका में आजादी की घोषणा में तथा फ्रांस में 1791 में मानव और नागरिक के अधिकारों की घोषणा में। यह याद रखना होगा कि ये दोनों ही क्रांति के समय की घोषणाएं थीं। अमरीका में इसी के साथ इंग्लैण्ड से आजादी की लड़ाई शुरू हुई जो आठ साल चली। फ्रांस में क्रांति 1789 में शुरू हुई थी जो 1799 तक जारी रही।     
    
ऐन क्रांति के समय की इन घोषणाओं का अतीव क्रांतिकारी चरित्र था। अभी तक के सामंती समाज में सारे व्यक्ति बराबर नहीं थे। सारे पैदाइशी गैर-बराबर थे। वर्ण-जाति व्यवस्था केवल भारत में थी पर दुनिया के सारे ही सामंती समाजों में व्यक्ति की हैसियत और नियति उसके जन्म से तय होती थी। जाति, धर्म, लिंग, ‘नस्ल’, वर्ग, इत्यादि सभी पैदाइशी तौर पर निर्णायक थे। व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सारी चीजें इन्हीं से तय होती थीं। 
    
ठीक इन्हीं वजहों से राजनीतिक सत्ता इस सबमें बिखरी हुई थी। सत्ता का कोई न कोई अंश इन सबसे भी तय होता था। यह सच था कि अंततः वर्ग निर्णायक था तथा राजनीतिक सत्ता शासक वर्गों द्वारा शासितों के दमन का औजार थी पर स्वयं शासक वर्गों के निर्माण में इन तत्वों का योगदान होता था। एक खास जाति, धर्म, ‘नस्ल’, लिंग के लोग शासक वर्ग का निर्माण करते थे और सत्ता इनमें किसी हद तक बिखर जाती थी। रोमन साम्राज्य में घर का मुखिया घर के लिए शासक होता था और वह घर के सदस्यों के साथ कुछ भी कर सकता था- हत्या तक। समाज में सम्मान हत्या मान्यता प्राप्त थी और राजनीतिक सत्ता उसमें हस्तक्षेप नहीं करती थी। यही सामंती जमाने में भी था। धर्म का जीवन में खासा महत्व था और इसमें निर्णायक धार्मिक शासन होता था। समूचे सामंती काल में धार्मिक शासन और राजनीतिक शासन का टकराव बना रहा। 
    
जब पूंजीवादी क्रांतियों ने मानव अधिकारों की घोषणा की तथा कहा कि कानून की निगाह में सभी इंसान बराबर हैं तथा जहां तक राज्यसत्ता का संबंध है बाकी सब यानी जाति, धर्म, ‘नस्ल’, लिंग तथा वर्ग, इत्यादि अप्रासंगिक है तो असल में वह इसके पहले की सारी चीजों का नकार था। वह सारी सत्ता को बाकी जगह से निचोड़कर राज्य सत्ता में केन्द्रित करता था। यह व्यक्ति को सार्वभौम घोषित कर असल में एकदम शक्तिहीन कर देता था और उसकी सारी शक्तियों को राज्य में केन्द्रित कर देता था। अब पुरुष का स्त्री पर अघिकार नहीं था, घर के मुखिया का घर के सदस्यों पर अधिकार नहीं था, मां-बाप का बच्चों पर अधिकार नहीं था, सवर्णों का दलितों पर अधिकार नहीं था, राजकीय धर्म वालों का बाकी धर्म वालों पर अधिकार नहीं था तथा उच्च वर्गों का निम्न वर्गों पर अधिकार नहीं था। सारे अपने अधिकार को राज्य में समर्पित कर एक समान अधिकार विहीन थे। इसीलिए सारे एक समान थे। कोई किसी की जान नहीं ले सकता था। जान पर अब केवल राज्य का अधिकार था। व्यक्ति आत्महत्या भी नहीं कर सकता था। मानव और नागरिक अधिकारों की घोषणा का यही तार्किक निहितार्थ था। 
    
अब यदि हर व्यक्ति सार्वभौम था तथा जाति, धर्म, ‘नस्ल’, लिंग, वर्ग इत्यादि समाज के संचालन का काम नहीं कर सकते थे तो इसका एक ही मतलब निकलता था। स्वयं राज्य सत्ता को, जिसे सारे लोगों ने अपनी संप्रभुता समर्पित की थी, संचालित करने का एक ही तरीका था- चुनाव की कोई प्रणाली। यहीं से जनतंत्र की कोई न कोई प्रणाली विकसित हुई जिसमें चुनने व चुने जाने वालों की तथा इनसे निर्मित संस्थाओं की कोई न कोई व्यवस्था विकसित हुई। अपनी बारी में इन संस्थाओं का राज्य सत्ता के बाकी अंगों यानी सेना, पुलिस, न्यायालय तथा प्रशासनिक मशीनरी से संबंध विकसित हुआ। 
    
सिद्धान्त रूप में पूंजीवादी जनतंत्र हर इंसान को दूसरे के बराबर घोषित करता है तथा राज्य सत्ता तथा इस तरह समूचे समाज के संचालन में बराबर का अधिकार देता है। पर पूंजीवाद चूंकि निजी सम्पत्ति की व्यवस्था है इसीलिए उन सारी चीजों का राज्य सत्ता और समाज के संचालन में महत्व बना रहता है जिसे अन्यथा कानूनी तौर पर अप्रासंगिक घोषित कर दिया गया होता है यानी जाति, धर्म, लिंग, ‘नस्ल’, वर्ग, इत्यादि। अभी तक दुनिया का कोई पूंजीवादी जनतंत्र इन्हें न तो अप्रासंगिक बना पाया है और न बना सकता है। इस संबंध में कोई भी प्रगति मुख्यतः इन आधार पर शोषित-उत्पीड़ित लोगों के संघर्ष से हुई है। इस संघर्ष के कारण या तो शासकों को पीछे हटना पड़ा है या फिर अपनी व्यवस्था की रक्षा की खातिर सुधारों के लिए मजबूर होना पड़ा है। 
    
इजरायल के इतिहास और वर्तमान के संदर्भ में इन सारी बातों का खास महत्व है। 
    
पश्चिमी समाजों में क्रमशः पूंजीवाद के विकास तथा जनतंत्र की स्थापना ने यहूदियों के लिए विशेष स्थिति पैदा की। इन समाजों में यदि जनतंत्र उसी तरह विकसित हुआ होता जैसा कि औपचारिक तौर पर घोषणा की गयी थी तो धर्म सार्वजनिक जीवन में अप्रासंगिक हो गया होता। इसी के साथ यहूदियों के साथ मध्यकाल से चला आ रहा भेदभाव समाप्त हो गया होता। सार्वजनिक जीवन में उनका यहूदीपन उसी तरह समाप्त हो गया होता जैसे इसाईयों का इसाईपन। धर्म सबका निजी मामला बन कर रह गया होता। इस तरह यहूदी नये समाज में उसी तरह समाहित हो गये होते जैसे इसाई। एक विशेष समुदाय के रूप में उनकी स्थिति समाप्त हो गई होती। यहां यह याद रखना होगा कि मध्यकाल का अंत आते-आते दुनिया भर में फैले यहूदी जातीय, भाषाई या सांस्कृतिक तौर पर एकरस समुदाय नहीं रह गये थे। केवल धर्म ही उन्हें जोड़ता था। जिस हद तक मध्यकाल में धर्म संस्कृति में भी अभिव्यक्त होता था, उस हद तक थोड़ी एकरसता थी। 
    
पर पश्चिमी समाजों में ऐसा नहीं हुआ। धर्म वास्तव में निजी मामला नहीं बना। इसी तरह अन्य चीजों का भी राज्य में दखल बना रहा। ऐसे में यहूदियों के मामले ने पश्चिमी समाजों में एक नया मोड़ ले लिया। 
    
पूंजीवादी विकास के साथ छोटी सम्पत्ति वालों की जो तबाही होती है वह छोटी सम्पत्ति वालों को न समझ में आने वाली चीज होती है। ऐसे में शातिर शासक इससे उत्पन्न होने वाले अंसतोष को कहीं और लक्षित करने में कामयाब हो जाते हैं। पश्चिमी समाजों में शासकों ने इसे यहूदियों की ओर लक्षित किया। इसमें उन्होंने मध्यकाल से चले आ रहे पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल किया। इसमें इस तथ्य ने योगदान किया कि यहूदी हमेशा से व्यापार और सूदखोरी में लगे हुए थे और छोटी सम्पत्ति वालों की तबाही में इनका योगदान था। 
    
इसमें जनतंत्र की जन गोलबंदी तथा प्रतियोगी राजनीति ने आग में घी का काम किया। यहूदियों के प्रति वैमनस्य, घृणा तथा दंगे तक पूंजीवादी राजनीति का हिस्सा बन गये। उन्नीसवीं सदी में क्रमशः बढ़ते हुए यह बीसवीं सदी में अंततः हिटलर के नरसंहार तक पहुंच गया। 
    
आधुनिक काल में यहूदियों का यह दमन तथा अंततः कत्लेआम आम तौर पर नये पूंजीवादी समाज तथा खास तौर पर इसके जनतंत्र की असफलता थी। यह एक तरह से इसकी असफलता का नमूना था। इसने साबित किया कि पूंजीवादी जनतंत्र सबकी राजनीतिक मुक्ति में पूर्णतया असफल साबित हुआ था। यही नहीं, इसने अपनी समस्या का समाधान यहूदियों के कत्लेआम में ढूंढ़ा था। चूंकि यहूदियों को इन नये पूंजीवादी समाजों में समाहित नहीं किया जा सकता था, इसलिए उन्हें गैस चैम्बर में झोंक दिया गया। हिटलर के यातना शिविर तथा गैस चैम्बर हिटलर या नाजियों की मानसिक बीमारी के उत्पाद नहीं थे बल्कि पूंजीवादी समाजों, खासकर पूंजीवादी जनतंत्रों के उत्पाद थे। 
    
पूंजीवादी समाजों ने यहूदी समस्या के गैस चैम्बर वाले समाधान से बच गये यहूदियों के लिए नया समाधान इजरायल के निर्माण में देखा। यह उसी समाधान का दूसरा रूप था। पूंजीवादी समाज यहूदियों को समाहित नहीं कर पा रहे थे। पहले उन्होंने यहूदियों को समाज से निकालकर गैस चैम्बर में भेजा। फिर उन्हें इजरायल भेज दिया गया। यह पूंजीवादी समाजों की आतंरिक समस्या का बहिष्करण था- पहले गैस चैम्बर में और फिर इजरायल में। इजरायल के निर्माण के जरिये एक बार फिर उन्होंने खुद ही साबित किया कि उनका जनतंत्र इस लायक नहीं है कि यहूदियों को आत्मसात कर सके। उसमें इतनी जीवन क्षमता नहीं थी कि थोड़े भी भिन्न लोगों को आत्मसात कर सके। वह इतना अक्षम था कि अपनी बुनियादी घोषणा पर चार कदम भी नहीं चल सकता था। और यह सब तब हुआ जब पश्चिमी समाज सारी दुनिया में जनतंत्र का झंडा बुलंद कर रहे थे। 
    
पश्चिमी समाजों में जनतंत्र की पूर्ण असफलता के परिणाम के तौर पर अस्तित्व में आया इजरायल स्वभावतः ही जनतंत्र नहीं हो सकता था। यह एक बनावटी राष्ट्र था जो पश्चिमी समाजों के पापों के प्रायश्चित के तौर पर अस्तित्व में आया था। राष्ट्र के लिए चार चीजें बुनियादी हैं- निरंतर भौगोलिक भूमि, एकीकृत अर्थव्यवस्था, एक भाषा और एक संस्कृति। दुनिया भर में फैले यहूदियों के लिए ये चारों चीजें नदारद थीं। बनावटी यहूदी राष्ट्र में फिट कर इन्हें बनावटी तरीके से हासिल करने का प्रयास किया गया। यह अभी भी जारी है। बनावटी राष्ट्र की यह बनावटी प्रक्रिया इतनी असंतोषजनक है कि अभी दुनिया भर में आधे यहूदी बाकी देशों में रह रहे हैं। उनमें से बहुत सारे इजरायल के विरोधी हैं, खासकर फिलीस्तीन के संदर्भ में। 
    
इजरायल नाम का जो यहूदी राष्ट्र-राज्य कायम हुआ वह अपनी निर्मिति में ही जनतंत्र नहीं हो सकता था। इसे यहूदी राज्य होना था। यानी धार्मिक पहचान राज्य का अहम् घटक तत्व थी। यह पूंजीवादी जनतंत्र की बुनियादी भावना के खिलाफ है जो घोषणा करता है कि जहां तक राज्य का संबंध है, धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। यहां धर्म व्यक्ति का निजी मामला होने के बदले राज्य का संघटक तत्व था। ऐसे में स्वाभाविक था कि इजरायल में गैर-यहूदी दूसरे दर्जे के नागरिक होते। 
    
इजरायल की इस निर्मिति के कारण ही यह संभव नहीं था कि यहूदी-फिलिस्तीनी एक ही धर्म निरपेक्ष राज्य में एक साथ रहते। इसीलिए यह भी लगभग असंभव था कि ‘दो राज्य समाधान’ व्यवहार में लागू होता क्योंकि यहूदी राज्य की स्थापना करने वाले शुरू से ही वृहत्तर इजरायल के उद्देश्य से चल रहे थे जिसे यहूदी राज्य होना था। हजारों साल पुरानी धार्मिक आस्थाओं की नींव पर खड़ा कोई बनावटी राष्ट्र-राज्य आधुनिक जमाने का जनतंत्र नहीं हो सकता। उसे अपनी बारी में उन विकृतियों को फिर से जन्म देना ही है जो पहले पूंजीवादी जनतंत्रों में पैदा हुई थीं। उसे गैर-यहूदियों के साथ वह करना ही है जो यहूदियों के साथ दूसरे विश्व युद्ध के पहले हुआ था। कोई आश्चर्य नहीं कि यहूदी राज्य ने अपने जन्म के समय से ही यह करना शुरू कर दिया था। 
    
कहा जाता है कि बीसवीं सदी में दो ही राष्ट्र धर्म के आधार पर अस्तित्व में आये और दोनों ही बनावटी तरीके से- इजरायल और पाकिस्तान। दोनों लगभग एक समय अस्तित्व में आये। दोनों का ही इतिहास त्रासदी पूर्ण रहा। एक लगातार सैनिक तानाशाहियों का शिकार रहा तो दूसरा नस्लभेदी कब्जाकारी राज्य बन गया। उसमें आंतरिक तौर पर चुनाव की प्रणाली बनी रही पर वह असल में घेरे की मानसिकता से ग्रस्त एक बंदी समाज बन कर रह गया जिसमें एक भ्रष्ट अपराधी व्यक्ति लम्बे समय से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज है और जो ‘प्रामिज्ड लैण्ड’ का नायक है। 
    
जैसा कि पहले कहा गया है पश्चिमी साम्राज्यवादी कसम खाते रहते हैं कि इजरायल पश्चिमी एशिया में एकमात्र जनतंत्र है। यदि यह जनतंत्र है तो वैसा ही जैसा 1860 तक अमेरिका में था जिसमें अफ्रीकी अश्वेत गुलाम थे तथा स्त्रियों और गरीब गोरों को कोई अधिकार नहीं था। अमरीकी साम्राज्यवादी इस कटु सच्चाई को भूलकर गाते रहते हैं कि वे दुनिया के सबसे पुराने जनतंत्र और गणतंत्र हैं। ऐसे में उन्हें गैर-यहूदियों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाये हुए तथा फिलिस्तीनियों पर भयंकर जुल्म करने वाले यहूदी राज्य इजरायल को जनतंत्र घोषित करने में क्यों कोई परेशानी हो सकती है?
    
लेकिन साम्राज्यवादियों की इस तरह की बयानबाजी ही इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि पूंजीवाद असल में अपने द्वारा घोषित उसूलों पर खड़ा जनतंत्र कायम नहीं कर सकता। वह सभी लोगों की जिस राजनीतिक मुक्ति की घोषणा करता है उसे व्यवहार में हासिल नहीं कर सकता। न केवल वर्ग, बल्कि जाति, धर्म, लिंग, ‘नस्ल’ इत्यादि भी इस जनतंत्र को ग्रसते हैं। यह इस निष्कर्ष की ओर भी ले जाता है कि राजनीतिक मुक्ति भी संपूर्ण मानव मुक्ति में संघर्ष के जरिये ही हासिल की जा सकती है। 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।