उच्च शिक्षा पर बढ़ता फासीवादी शिकंजा

/higher-education-par-badhataa-phaseevaad-shikanjaa

मोदी सरकार का देश की शिक्षा व्यवस्था पर हमला बोलना बदस्तूर जारी है। अभी हाल में ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपने कुछ नये नियम जारी किये। इन नियमों से विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपालों के अधिकार बढ़ा दिये गये हैं। साथ ही अब शिक्षा के क्षेत्र के अलावा उद्योग विशेषज्ञों व सार्वजनिक क्षेत्र की हस्तियों के भी कुलपति बनाने की राह खोल दी गयी है। 
    
यूजीसी के इन नये मसौदा विनियमों को ‘‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (वि.वि. और कालेजों में शिक्षकों और शैक्षणिक कर्मचारियों की नियुक्ति और पदोन्नति के लिए न्यूनतम योग्यतायें और उच्च शिक्षा में मानकों के रख-रखाव के लिए उपाय) विनियम 2025’’ कहा गया है। इसके तहत अनुबंध शिक्षकों की नियुक्तियों पर लगी सीमा को भी हटा लिया गया है। अभी तक कुल फैकल्टी पदों के 10 प्रतिशत ही अनुबंध शिक्षक हो सकते थे। अब नये नियमों में यह सीमा समाप्त कर दी गयी है। यानी बड़ी संख्या में अनुबंध शिक्षक नियुक्त किये जा सकेंगे। 
    
नये नियमों के तहत कुलपति नये कुलपति की खोज के लिए तीन विशेषज्ञों वाली खोज सह चयन समिति गठित करेंगे। पहले यह समिति अक्सर राज्य सरकार द्वारा गठित होती थी। अब कुलपति के अधिकार में समिति आने से राज्यपाल के हस्तक्षेप की संभावना बढ़ गयी है। कुलपतियों की नियुक्ति पर गैर भाजपा शासित राज्यों में सरकारों व राज्यपालों के बीच लगातार तनाव रहा है। अब नये नियमों से ज्यादा ताकत राज्यपाल के हाथों में आ जायेगी। नये नियमों में कुलपति की योग्यता प्रोफेसर की जगह अन्य क्षेत्रों के व्यक्तियों के तौर पर भी प्रस्तुत की गयी है। 
    
शिक्षकों की नियुक्ति व पदोन्नति में किसी पत्रिका में शोध पत्र प्रकाशित करने पर दिये गये अंकों की अहमियत घटाकर ‘भारतीय भाषाओं में शिक्षण योगदान’ और ‘भारतीय ज्ञान प्रणालियों में शिक्षण और अनुसंधान’ का महत्व बढ़ा दिया गया है। 
    
नये नियमों की दिशा स्पष्ट है एक ओर तो ये विश्वविद्यालयों-कालेजों में स्थायी नियुक्ति के बजाय ठेके के शिक्षक-कर्मचारियों की संख्या बढ़ायेगी। दूसरा नियुक्ति प्रक्रिया में अब शिक्षक अपने विषय में विशेषज्ञ होने के बजाय संघी एजेण्डे पर काम कर पदोन्नति पायेंगे। प्रकारान्तर से यह शिक्षकों को प्रोन्नति में संघी मानसिकता के शिक्षकों को आगे बढ़ाने का जरिया बनेगा। संघी सरकार जानती है कि विषय से संबंधी शोध पत्र के मामले में संघी शिक्षक फिसड्डी साबित होंगे। इसलिए उन्हें आगे बढ़ाने के लिए सरकार ने इस मापदंड को ही कमजोर कर दिया। 
    
साथ ही नये प्रावधान संघी मानसिकता के उद्यमियों व अन्य क्षेत्र के लोगों को कुलपति बनाने की राह खोल देंगे। इससे संघ के कार्यकर्ता भी सीधे कुलपति की गद्दी तक पहुंचाये जा सकेंगे। पहले ही ढेरों कालेजों आदि में शोध कार्य से लेकर नियुक्ति आदि के मामले में संघी होना एक तरह से अनिवार्य गुण बन गया था अब इसे समूचे देश के स्तर पर लागू कर दिया जायेगा। 
    
यह सब कालेज-विश्वविद्यालयों का सारा माहौल संघमय कर देगा। यह छात्र राजनीति पर भी संघ के नियंत्रण को और आसान बना देगा। पर साथ ही साथ ये कदम वास्तव में शिक्षा और शोध की जगह कालेजों को संघी कार्यकर्ता तैयार करने की फैक्टरी बना देंगे। विज्ञान-तकनीक में पहले से पीछे खड़ा भारत और पीछे चला जायेगा। विश्व गुरू बनने पर उतारू सरकार को वैसे भी विज्ञान से कोई लेना देना नहीं, वैज्ञानिक तर्क चिंतन से उसे नफरत है। इसलिए देश को कूपमण्डूकता-पाखण्ड के अंधकार में ले जाने से उसे कोई परेशानी नहीं है। 

 

यह भी पढ़ें :-

1. शिक्षा पर बढ़ता संघी प्रभाव

2. शिक्षा में झूठ, संस्थानों में टैंक से पैदा होगी ‘देशभक्ति’

3. फासीवादी शासकों द्वारा पाठ्यपुस्तकों में बदलाव

4. विज्ञान और संघी फासीवादी

आलेख

/trump-ke-raashatrapati-banane-ke-baad-ki-duniya-ki-sanbhaavit-tasveer

ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है। 

/bhartiy-ganatantra-ke-75-saal

आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं? 

/takhtaapalat-ke-baad-syria-mein-bandarbaant-aur-vibhajan

सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।

/bharatiy-sanvidhaan-aphasaanaa-and-hakeekat

समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।    

/syria-par-atanki-hamalaa-aur-takhtaapalat

फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।