अमेरिका में मंदी की आहट : दुनिया भर के शेयर बाजार सहमे

अमेरिका में मंदी

शेयर बाजार

5 जुलाई को दुनिया भर के शेयर बाजार एक के बाद एक भारी गिरावट का शिकार हुए। अमेरिका के शेयर बाजार से शुरू होकर यूरोप, जापान, भारत एक तरह से दुनिया के सारे शेयर बाजार गोता लगाने लगे। हालांकि सोमवार को हुई इस भारी गिरावट के बाद मंगलवार को स्थिति थोड़ा संभलती नजर आई पर अमेरिका में मंदी की आशंका में शेयर बाजार फिर बड़ी गिरावट की ओर बढ़ सकते हैं।
    
दरअसल बीते दिनों अमेरिका में एक रिपोर्ट जारी हुई जिसमें बीते 5 माह से अमेरिका में लगातार बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़े सामने आए। रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में बेरोजगारी दर 3 वर्षों के उच्चतम स्तर 4.3 प्रतिशत पर पहुंच गई है। ‘‘शैम रुल’’ नामक एक पूंजीवादी विचार के अनुसार अगर किसी देश में तीन माह की औसत बेरोजगारी दर वर्ष के दौरान न्यूनतम बेरोजगारी दर से आधा प्रतिशत अधिक हो जाती है तो इसे देश में मंदी की शुरुआत माना जा सकता है। अमेरिका के मामले में बीते तीन माह की औसत बेरोजगारी दर (4.1 प्रतिशत) बीते वर्ष की न्यूनतम बेरोजगारी दर (3.5 प्रतिशत) से 0.6 प्रतिशत अधिक है इसीलिए अमेरिका के मंदी में जाने के अनुमान लगाए जा रहे हैं। 
    
इस रिपोर्ट के असर में अमेरिकी शेयर बाजार नास्डाक में लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। और फिर बाकी दुनिया के बाजार भी गिरावट का शिकार होते चले गए। अमेरिकी अर्थशास्त्री दावा कर रहे हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सेहत ठीक है और बेरोजगारी बढ़ने का अर्थव्यवस्था की सेहत या जीडीपी वृद्धि से सीधा संबंध नहीं है। वहीं कुछ अर्थशास्त्री इस स्थिति के लिए अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में काफी समय से गिरावट न करने को मुख्य कारण बता रहे हैं। गौरतलब है कि वर्तमान में फेडरल रिजर्व बैंक की ब्याज दर लगभग 5.25 प्रतिशत से 5.50 प्रतिशत के बीच है।
    
दरअसल 2007-8 से अमेरिका से पूरी दुनिया में पहला विश्व आर्थिक संकट किसी न किसी रूप में अभी भी जारी है। अमेरिका से शुरू हो यूरोप में यह घनीभूत हुआ। हालांकि बीते तीन-चार वर्षों से अमेरिकी अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार आया पर वह संकट के जद से बाहर नहीं हुई। ऐसे में जिस तरह के वित्तीय कारोबार के चलते संकट शुरू हुआ था वे फिर से आसमान छूने लगे। वास्तविक अर्थव्यवस्थायें गहरे संकट में थीं पर दुनिया भर के शेयर बाजार उछाल मार रहे थे। यह स्थिति ही दर्शाती है कि फिर खड़े किए जा रहे नई बुलबुले कभी भी पिचक सकते हैं। एक छोटा सा झटका ही शेयर बाजारों में भूचाल ला सकता है। बीते दिनों इसी का एक नमूना सामने आया।
    
भारत का कुलांचे भरता शेयर बाजार सेंसेक्स भी 2200 अंकों के करीब गिरावट का शिकार हुआ। अमेरिका में मंदी व जापान में ब्याज दर बढ़ने की आहट से विदेशी निवेशक भारतीय बाजार से तेजी से पैसा निकालने लगे। इसका असर रुपए की कीमत में गिरावट के रूप में सामने आया। रुपया एक दिन में 37 पैसे गिर डालर के सापेक्ष 84 रुपए का आंकड़ा पार कर गया। 
    
अमेरिकी अर्थशास्त्री अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सेहत अच्छी होने के दावे कर रहे हैं। पर वे ये दावे तब तक करेंगे जब तक भूचाल आकर खड़ा ही नहीं हो जाएगा। दुनिया भर में 2007-08 से जारी संकट दरअसल मांग की कमी का संकट है जो बीते 3-4 दशकों की उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीति से जनता की घटी क्रय शक्ति से पनपा है। यह संकट पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की आम गति का ही परिणाम है जहां ऐसे संकट बारम्बार आने लाजिमी हैं। जिस हद तक वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया के बाजारों को एक किया है उस हद तक ये संकट तेजी से एक जगह फूट पूरी दुनिया में फैलने लगा है।
    
पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों की नीम हकीमी से संकट का अंत असंभव है। संकट से राहत उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों को पलट कर ही हासिल हो सकती है। संकट का स्थाई हल तो पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंत व समाजवाद की स्थापना के जरिए ही संभव है। पर दुनिया भर के पूंजीवादी शासक अपने हितों के खिलाफ खुद नहीं बढ़ेंगे। केवल मजदूर-मेहनतकश जनता का क्रांतिकारी संघर्ष ही दुनिया को इस ओर ले जा सकता है।

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।