एक माह पूर्व कोई सोच भी नहीं सकता था कि शेख हसीना की सरकार का इस तरह और इतनी तेजी से पतन होगा। और शेख हसीना को अपनी जान के लाले पड़ जायेंगे। देश छोड़कर भागना पड़ेगा। लेकिन अगस्त के पहले हफ्ते में यह सब कुछ हो गया।
जनाक्रोश ने शेख हसीना को लील लिया और एक ऐसे आदमी के हाथ में सत्ता पहुंच गयी जो देश छोड़कर भागा हुआ था। सत्ता के शीर्ष में बैठे को भगोड़ा बनना पड़ा और एक भगोड़े को सत्ता की कुर्सी मिल गई।
राजनीति के क्षेत्र में भले ही कितनी ही उठा-पटक हुयी हो परन्तु बांग्लादेश की सेना ने ऐसा व्यवहार किया मानो उसे शेख हसीना के विदा होने और मोहम्मद यूनुस के सत्ता संभालने से कोई फर्क नहीं पड़ता। और सेना प्रमुख ने सत्ता को अपने हाथ में लेने से गुरेज किया। सच्चाई भले ही यह हो कि शेख हसीना को देश से निकालने और मोहम्मद यूनुस को सत्ता में बिठाने का काम सेना ने ही किया। इस उठा-पटक में बांग्लादेश की सेना पृष्ठभूमि में थी और वही असल में पर्दे के पीछे हर किसी का किरदार तय कर रही थी। राजनैतिक निर्वात न हो, पूंजीवादी तत्वों के हाथों से सत्ता अराजक निम्न पूंजीवादी तत्वों के हाथों में न पहुंच जाये इसलिए उसने उन राजनेताओं को जेल या नजरबंदी से रिहा किया और निर्वासन से देश में वापस आने दिया जिन्हें शेख हसीना ने हैरान-परेशान किया हुआ था। शेख हसीना का सर्वसत्तावादी रुख आखिर में उनकी सत्ता को लील गया।
कुल मिलाकर देखा जाए तो जनाक्रोश के इस विस्फोट के बाद क्या नतीजा निकला। सत्ता पूंजीपति वर्ग के एक गुट के हाथ से निकलकर दूसरे गुट के हाथ में पहुंच गयी। साम्राज्यवादी और विस्तारवादी समर्थित एक गुट के हाथ से सत्ता एक दूसरे गुट के हाथ में पहुंच गयी जिसे साम्राज्यवादियों का दूसरा गुट समर्थन करता है।
शेख हसीना को मूलतः भारत के शासक वर्ग के साथ चीनी साम्राज्यवादियों का समर्थन था। मोहम्मद यूनुस पश्चिमी साम्राज्यवादियों खासकर अमेरिका का लाड़ला है। वह खुद एक बड़ा पूंजीपति और धूर्त-महत्वाकांक्षी रहा है। शेख हसीना से उसका टकराव लम्बे समय से रहा है। ‘‘ग्रामीण बैंक’’ के जरिये मोहम्मद युनूस ने अपना जाल देशव्यापी स्तर पर फैलाया हुआ है और ‘‘ग्रामीण’’ नाम से उसके धंधे में साम्राज्यवादी देशों की पूंजी से लेकर बांग्लादेशी पूंजी लगी हुयी है। टेलीकाम क्षेत्र में वह एक प्रमुख खिलाड़ी है।
अब मोहम्मद यूनुस की सरकार में शेख हसीना की एक और प्रतिद्वन्द्वी कट्टर इस्लाम समर्थक खालिदा जिया की पार्टी के लोग, जमायते इस्लामी के लोग और जनाक्रोश के छात्र नेता शामिल हैं।
शेख हसीना की पार्टी आवामी लीग का कोई नेता या समर्थक, मोहम्मद यूनुस की सरकार में नहीं है। और वे सब लोग चाहे वह मुख्य न्यायाधीश हो या फिर कुलपति सत्ता प्रतिष्ठानों से बाहर हैं जिन पर आवामी लीग का समर्थक होने का संदेह था। कुछ सैन्य अधिकारी भी बदले गये पर सेना प्रमुख वही हैं जिसे हसीना ने नियुक्त किया था। वह हसीना के रिश्तेदार भी हैं।
मोहम्मद यूनुस ने अगस्त के पहले सप्ताह में जो कुछ हुआ उसे दूसरी आजादी की संज्ञा दी। यह आजादी कुछ वैसी ही थी जैसी भारत में मोदी के 2014 में सत्ता में काबिज होने को मोदी और उनके चेले-चपाटे असली आजादी की संज्ञा दे रहे थे और उस आजादी को कमतर करके दिखा रहे थे जो भारत को 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से मिली थी। वे ऐसा ही कर सकते थे क्योंकि हिन्दू फासीवादी आजादी की लड़ाई के दिनों में तो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के चाकर थे।
बांग्लादेश में शेख हसीना की पार्टी आवामी लीग 1971 में मिली आजादी का एकमात्र ठेकेदार अपने को समझती रही है। और इसलिए जब वह अपनी पार्टी से जुड़े लोगों के लिए सरकारी नौकरियों व शिक्षा में 30 फीसदी का आरक्षण ‘‘मुक्ति योद्धा’’ के आश्रितों को दे रही थी तो इसके खिलाफ बेरोजगार युवाओं और छात्रों का आक्रोश फूट पड़ा। बांग्लादेश ने जो पूंजीवादी प्रगति शेख हसीना के कार्यकाल में की उसका एक भीषण परिणाम बढ़ती बेरोजगारी-महंगाई-सामाजिक असमानता के रूप में भी सामने आया।
यह जनाक्रोश कुछ-कुछ वैसे ही फूटा जैसा 1975 में इंदिरा गांधी के द्वारा लगाये गये आपातकाल के दौरान फूटा था। घोषित सिविल आपातकाल इंदिरा की सत्ता नहीं बचा पाया तो अघोषित आपातकाल, सर्वसत्तावादी रुख और भीषण दमन शेख हसीना की सत्ता को क्या बचा पाता। लेकिन जैसे आपातकाल के खिलाफ जनांदोलन का फायदा पूंजीपति वर्ग के एक अन्य गुट (जनता पार्टी) और हिन्दू फासीवादियों ने उठाया था। ठीक इसी तरह शेख हसीना के खिलाफ पनपे जनाक्रोश का फायदा बांग्लादेश के पूंजीवादी राजनैतिक गुटों और इस्लामिक फासीवादियों व कट्टरपंथियों ने उठाया। इसमें से कई-कई वही थे जिन्होंने बांग्लादेश की मुक्ति की लड़ाई के समय पाकिस्तानी फौज का साथ दिया था। इस्लामिक फासीवादी भारत के हिन्दू फासीवादियों के ही जैसे हैं।
बांग्लादेश में शेख हसीना ने अपनी सत्ता से बेदखली में अमेरिका का हाथ बताया। उनका तर्क है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी बंगाल की खाड़ी में अपना सैन्य अड्डा बनाना चाहते थे। वे इसलिए ऐसा चाहते थे ताकि वे चीनी साम्राज्यवादियों व भारत पर निगाह रख सकें। अमेरिकी शासक बंगाल की खाड़ी में स्थित सेंट मार्टिन द्वीप अपने सैन्य अड्डे के लिए चाहते थे। शेख हसीना के अनुसार उन्होंने द्वीप देने से इंकार कर दिया। इस सिलसिले में अमेरिका के एक धूर्त मंत्री डोनाल्ड लू का नाम आ रहा है। डोनाल्ड लू अमेरिकी सरकार में दक्षिण और मध्य एशियाई मामलों के लिए सहायक विदेश मंत्री हैं। शेख हसीना की बातों में इसलिए सच्चाई हो सकती है क्योंकि अमेरिकी साम्राज्यवादियों का इतिहास तीसरी दुनिया के देशों में हस्तक्षेप के काले-कारनामों से भरा पड़ा है। अमेरिकी साम्राज्यवादी शेख हसीना को सत्ता से हटाने के लिए ताक लगाकर बैठे हुए रहे होंगे और आरक्षण के खिलाफ पनपे जनाक्रोश ने उन्हें अपनी मन की करने के लिए सुनहरा मौका दे दिया होगा। मोहम्मद यूनुस का अंतरिम सरकार का प्रधान बनना भी अपनी कहानी आप कहता है। अमेरिकी साम्राज्यवादी बांग्लादेश में सबसे बड़े निवेशक हैं इसलिए वे चाहेंगे कि उनकी मनपसंद सरकार भी वहां हो। शेख हसीना प्रधानमंत्री रही हैं इसलिए सच ही बोल रही होंगी परन्तु वह सच तब बोल रही हैं जब सत्ता से बाहर हो गयी हैं। अक्सर पुराने पापी ऐसे ही सच बोलते हैं और फिर अपने को पीड़ित के रूप में पेश करते हैं।
जहां तक बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों का सवाल है, वे हमेशा से ही उत्पीड़ित रहे हैं। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध इस्लामिक फासीवादियों और कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे हैं। करीब 18 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की संख्या करीब एक करोड़ है। हिन्दू सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक समूह है। जैसे भारत में हिन्दू फासीवादियों व हिन्दू कट्टरपंथियों के निशाने पर मुसलमान होते हैं ठीक वैसे ही बांग्लादेश में इस्लामिक फासीवादियों और कट्टरपंथियों के निशाने पर हिन्दू, बौद्ध व ईसाई होते हैं। पूरी दुनिया में ही हर जगह धार्मिक अल्पसंख्यकों को सताया जाता है। भारत में मुसलमानों पर किये जाने वाले अत्याचारों की भी प्रतिक्रिया अक्सर होती है जिसका खामियाजा बांग्लादेश के हिन्दुओं को भुगतना पड़ता है।
इस जनाक्रोश के समय कई स्थानों पर हिन्दुओं को धार्मिक कट्टरपंथियों व सामाजिक लम्पट तत्वों द्वारा निशाना बनाया गया। इसका एक कारण बांग्लादेश के हिन्दुओं का शेख हसीना की पार्टी का समर्थक होना भी रहा है। भारत में इसको एक बड़ा मुद्दा बनाकर धार्मिक ध्रुवीकरण की कुत्सित कोशिश हिन्दू फासीवादियों द्वारा की जा रही है। यद्यपि इस तस्वीर का एक अन्य पक्ष यह भी है कि संघर्षरत छात्र-युवाओं ने हिन्दुओं की सुरक्षा के भी काम किये और अपराधियों का मुकाबला किया। खुद हिन्दू व अन्य अल्पसंख्यक भी उत्पीड़़न के खिलाफ लामबंद हुए हैं।
बांग्लादेश की सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक स्थिति इस बात को बार-बार रेखांकित कर रही है कि आम जनों, मजदूरों-मेहनतकशों, छात्र-युवाओं की बुनियादी समस्याओं का समाधान न तो शेख हसीना, न मोहम्मद यूनुस, न बेगम जिया के पास है। इसका समाधान उन्हें स्वयं करना होगा। पूंजीवादी निजाम का खात्मा और समाजवाद ही अंततः समाधान का रास्ता खोल सकता है।
बांग्लादेश : जनाक्रोश से हसीना भागी पर भगोड़ा सत्ता में
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।