उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में, कई दिनों तक सुरंग में फंसे रहे मजदूरों ने भारत में विकास के चरित्र और तौर-तरीकों पर अनेकानेक प्रश्न खड़े कर दिये हैं। जो सवाल सबसे बड़ा है वह यह कि इस विकास की कीमत कौन चुका रहा है। निःसंदेह इस विकास की सबसे बड़ी कीमत मजदूर-मेहनतकश चुका रहे हैं। विकास का जो चरित्र है उसके निशाने पर सिर्फ मजदूर-मेहनतकश ही नहीं बल्कि समूची प्रकृति भी है। विकास के जो तरीके अपनाये जा रहे हैं वे प्रकृति को गम्भीर नुकसान ही नहीं बल्कि कभी न भरने वाले जख्म दे रहे हैं।
उत्तराखण्ड में पिछले दस सालों में एक से बढ़कर एक आपदा इस विकास के कारण आ चुकी है। 2013 में केदारनाथ आपदा को क्या भुलाया जा सकता है। आपदा ने हजारों लोगों के जीवन को संकट में डाला। हजारों लोग मारे गये और हजारों लोग लापता हो गये थे। क्या इस आपदा के बाद देश का प्रधानमंत्री या शासक वर्ग इस बात की ‘‘गारण्टी’’ दे सकता है कि फिर कभी ऐसी आपदा नहीं आयेगी।
कुछ माह पहले इसी विकास के परिणामस्वरूप सैकड़ों लोगों को जोशीमठ से पलायन करना पड़ा।
सुरंग में मलबा आने से फंसे मजदूरों की स्थिति विकास की हकीकत को बयां कर देती है।
कौन भला इस वर्ष बरसात के महीनों में हिमाचल से लेकर सिक्किम तक हुयी तबाही को भूल सकता है। इस तबाही के पीछे भी वही विकास ही है।
आपदा में अवसर खोजने का सिद्धान्त व दर्शन देने वाले देश के प्रधानमंत्री को ये आपदायें, ये त्रासदियां भले ही अवसर खोजने के लिए प्रेरित करती हों परन्तु इसकी कीमत चुकाने वालों को हैरान-परेशान और गम्भीर चिंतन को बाध्य करती हैं।
भारत में क्या पूरी दुनिया में जो विकास का रथ दौड़ रहा है, उस पर पूंजी सवार है। देश और दुनिया के सबसे बड़े एकाधिकारी घरानों के हितों को केन्द्र में रखकर विकास परियोजनाएं बन रही हैं। ये लुटेरे, खूंखार पूंजीपति न तो मजदूरों-मेहनतकशों के जीवन की परवाह करते हैं और न ही प्रकृति की।
भारत में पूंजीवादी विकास का जो सिलसिला भारत की गुलामी के दिनों में धूर्त ब्रिटिश शासकों ने शुरू किया था वही कुछ आज भी अपने बदले रूप में चला आ रहा है।
ब्रिटिश शासकों ने भारत के किसानों, मजदूरों और अन्य मेहनतकशों की मेहनत को जमकर लूटा था और भारत में अपना कब्जा बनाये रखने के लिए किसी भी हद तक जाकर दमन किया था।
ठीक इसी तरह से उन्होंने भारत की प्राकृतिक सम्पदा को किसी भी हद तक जाकर लूटा था। रेल के स्लीपर, जहाज बनाने, फर्नीचर आदि की जरूरत पूरा करने के लिए भारत के जंगलों का अंधाधुंध विनाश किया था। पहाड़ के पहाड़ नंगे कर दिये गये। इन नंगे पहाड़ों को हिमालय से लेकर दक्षिण तक देखा जा सकता है। शायद ही कोई नदी बची हो जो भयानक ढंग से प्रदूषित न हो गयी हो।
आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री ने समाजवाद के कितने ही जुमले उछाले हों पर दर हकीकत यही है कि उनका रास्ता भी पूंजीवादी था और वे जब तरक्की पसंद मुल्क की बात करते थे तो उनका आदर्श भी पश्चिमी पूंजीवादी विकसित देश ही थे। उनके विकास के रथ पर देशी-विदेशी पूंजी विराजमान थी। विकास का यह रथ भारत के मजदूरों-मेहनतकशों व भारत की प्रकृति के सीने पर दौड़ रहा था।
आजाद भारत में कितने-कितने दफे मजदूरों, किसानों, आदिवासियों की छाती को गोली से छलनी किया गया इसकी तो गिनती भी आसानी से संभव नहीं है। सच यह है कि भारत की धरती पर स्थान-स्थान पर किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के खून के निशां हैं। क्या तो मुम्बई, क्या तो कानपुर, क्या तो फरीदाबाद और क्या तो कलकत्ता। इन सभी जगह मजदूर अपने संघर्षों के दौरान शहीद हुए। किसानों के संघर्षों को दबाने के लिए नेहरू से लेकर मोदी तक, हर सरकार के हाथ खून से रंगे हुए हैं। यही बात आदिवासियों पर भी लागू हो जाती है। अधिकांश आदिवासियों के डेरे प्राकृतिक सम्पदा से भरे स्थानों पर हैं। भारत के पूंजीपतियों के लिए ये अपनी दौलत बढ़ाने के लिए मुफ्त के अड्डे रहे हैं। इन स्थानों पर कब्जा करने के लिए एक के बाद एक सरकारों ने निर्ममतापूर्वक आदिवासियों को उनके निवास स्थलों से उजाड़ दिया। विरोध करने पर किसी भी हद तक जाकर खून-खराबा किया। आदिवासियों का जो प्रतिरोध का सिलसिला ब्रिटिश काल में शुरू हुआ था वह आज तक जारी है। देशी-विदेशी पूंजी के खिलाफ संघर्षों में शहीद हुए मजदूरों-मेहनतकशों की संख्या की गणना की जाए तो यह हजारों में नहीं लाखों में जायेगी।
नब्बे के दशक में जब से नई आर्थिक नीतियां लागू होनी शुरू हुयीं तब से पूंजी की लूट और बेरहम हो गयी और दमन ने तो नरसंहार का रूप तक धारण कर लिया। विकास के नाम पर गांव के गांव उजाड़ दिये गये।
नब्बे के दशक से पहले किसान, खेत मजदूरों की आत्महत्या की घटनाएं बहुत कम थीं परन्तु नई आर्थिक नीतियों के बाद इसमें जबरदस्त वृद्धि हुयी। किसान आत्महत्या एक परिघटना का रूप लेकर देशव्यापी चर्चा का विषय बन गयी। परन्तु निर्मम शासकों ने अपनी विनाशकारी नीतियों को जारी रखना था। जारी रखा।
किसानों के अलावा खेत मजदूरों, छोटे कारोबार करने वालों, बेरोजगार युवाओं और यहां तक गृहणियों की आत्महत्या की घटनाओं में साल दर साल बढ़ोत्तरी हो रही है। भारत का विकास भारत की जनता से हर क्षण इसकी कीमत वसूल रहा है।
खून से लथपथ विकास के रथ की तसवीर को छुपाने के लिए शासक वर्ग द्वारा विकास की सुनहरी कहानी पेश की जाती है। विकास पर गर्व करने को कहा जाता है। ‘दुनिया की पांचवीं अर्थव्यवस्था’; ‘दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था’; ‘दुनिया के सबसे अमीरों में अम्बानी-अडाणी का नाम’ जैसी बातें; तथ्य, खून से सनी भारत की धरती की वीभत्स विद्रूपता का ही नजारा पेश करते हैं। राजनेता, पूंजीपति, अफसर विकास के नाम पर देश की गुलाबी तसवीर पेश करते हैं परन्तु हकीकत में भारत के मजदूर-मेहनतकश इस विकास की कीमत अपने खून-पसीने से चुका रहे हैं। इसके एवज में उनके हिस्से बढ़ती बेरोजगारी, असमानता, गिरता जीवन स्तर ही आता है। उनके जीवन का शासक वर्ग के लिए कोई मोल नहीं है।
देश के विकास के साथ देश की सुरक्षा का मसला भी खूब उछाला जाता है। तर्क दिया जाता है कि देश की सीमा पर खासकर चीन व पाकिस्तान से लगी सीमा पर चौड़ी सड़कें व सैन्य अड्डे नहीं होंगे तो युद्ध की स्थिति में भारत को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। पूरे हिमालयी क्षेत्र में ऐसी चौड़ी सड़कें चाहिए जिन पर हथियारों-मिसाइलों से लदे बड़े-बड़े सैन्य वाहन आसानी से आवाजाही कर सकें। इसी तरह देश के विभिन्न स्थानों पर हवाई अड्डे व बड़े-बड़े बंदरगाह बनाये जाते हैं।
इस विकृत, खतरनाक व विनाशक विकास को देश की सुरक्षा के नाम पर जायज ठहराया जाता है। देश की सुरक्षा का मुद्दा पूरी तरह से भावनात्मक बनाकर शासक वर्ग अपनी मनमानी जनता के ऊपर थोप देता है। और जब से हिन्दू फासीवादी सत्ता में काबिज हैं तो ये हर आलोचना का जवाब देने के लिए राष्ट्र-राष्ट्र की दुहाई देकर सामने आ जाते हैं। इसकी हकीकत भी यही है कि देश की सुरक्षा के नाम पर चल रही परियोजनाओं का भी लाभ अम्बानी, अडाणी, टाटा, बिडला को मिलता है और ये भारत माता के ऐसे ‘लाड़ले’ हैं जो भारत को हर तरह से लूटने के बाद लंदन में जाकर बस जाते हैं। हिन्दुजा भाई, लक्ष्मी निवास मित्तल, विजय माल्या, नीरव मोदी जैसे सब ठग बटमार लंदन के सबसे महंगे आलीशान इलाकों में रहते हैं।
विकास का रथ : खून से लथपथ
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को