हमारे देश में युवाओं की आत्महत्या का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। बढ़ती बेरोजगारी, असुरक्षित भविष्य, संबंधों में व्यक्तिवाद का बोलबाला आदि बड़े पैमाने पर युवाओं को अलगाव, अवसाद की ओर ढकेल रहे हैं। आत्महत्या की दर न केवल बेरोजगारों में बढ़ रही है बल्कि पढ़ने वाले छात्रों में भी बढ़ रही है।
बीते दिनों आई आई टी बम्बई के 18 वर्षीय दलित छात्र दर्शन सोलंकी ने आत्महत्या कर ली। इसी तरह एक आदिवासी मेडिकल पी जी कोर्स कर रही छात्रा ने रैगिंग से तंग आकर आत्महत्या की कोशिश की। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री ने 2021 में संसद में बताया था कि 2014 से 2021 के बीच केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, आई आई टी व एन आई टी के 101 छात्रों ने आत्महत्या की। अकेले आई आई टी में 34 छात्रों ने आत्महत्या की। आत्महत्या करने वाले छात्रों में दलित-आदिवासी व पिछड़ी जाति के छात्रों की संख्या कुल आत्महत्याओं का 58 प्रतिशत है।
छात्रों की आत्महत्याओं के कई कारण हैं। दबी-कुचली जातियों से आने वाले छात्र बहुत बार कालेजों-विश्वविद्यालयों के शहरी माहौल से तारतम्य नहीं बैठा पाते और अवसाद के शिकार हो जाते हैं। कालेजों में इनकी विशेष देख-रेख के कोई इंतजाम नहीं होते और अक्सर ये अपनी पिछड़ी-देहाती बातों के लिए ताने भी झेलने को मजबूर होते हैं। ढेरों दफा इन परिसरों में मौजूद जातिवाद का दंश भी इन्हें झेलना पड़ता है। इन परिसरों में छात्र तो आरक्षण के चलते कुछ संख्या में दबी-कुचली जातियों से आ जाते हैं पर अभी भी यहां शिक्षकों व अन्य स्टाफ में सवर्ण वर्चस्व कायम है। कई दफा रैगिंग में भी इन छात्रों को जाति के चलते विशेष तौर पर निशाना बनाया जाता है।
दबी-कुचली जाति का होने के इतर पढ़ाई का तनाव व प्रतियोगिता का बोलबाला छात्रों की आत्महत्या का अन्य कारण बनता है। आर्थिक तंगी के चलते भी कई दफा छात्र आत्महत्या को मजबूर होते हैं। जैसे 2020 में दिल्ली के लेडी श्री राम कालेज की एक छात्रा ने आनलाइन कक्षा हेतु लैपटाप खरीदने व किराये के कमरे लायक धन न होने के चलते आत्महत्या कर ली। ढेरों दफा घरवालों-रिश्तेदारों की भारी भरकम उम्मीदें भी छात्रों को इस ओर धकेलती हैं तो कई छात्र परीक्षा में जानबूझकर फेल कर दिये जाने या कम नंबर दिये जाने के चलते अवसादग्रस्त हो जाते हैं।
अक्सर ही इन कालेजों में पढ़ाई पर अतिशय जोर व अन्य तरह की सांस्कृतिक-राजनैतिक गतिविधियों का अभाव छात्रों के बीच किसी एकजुटता कायम होने, दोस्ती होने के माहौल को पैदा ही नहीं होने देता। परिणामस्वरूप छात्र एक-दूसरे से प्रतियोगितारत रहते हुए अलगाव का शिकार होते रहते हैं।
कई दफा सरकार द्वारा नौजवानों के साथ किया गया सलूक भी नौजवानों के अवसाद को बढ़ा देता है। जैसे अभी हाल में ही उत्तराखण्ड में भर्ती परीक्षाओं के लीक होने के खिलाफ छात्रों ने कई दिन तक संघर्ष किया। संघर्ष के दबाव में उत्तराखण्ड सरकार ने एक कठोर नकल अध्यादेश जारी किया। पर इस नकल अध्यादेश के पहले शिकार भी नकल की आशंका जताने वाले छात्र ही बना लिये गये। 12 फरवरी को जब पटवारी भर्ती परीक्षा हुई तो एक परीक्षा केन्द्र के छात्रों को परीक्षा प्रश्नपत्र का लिफाफा खुला हुआ मिला और उन्होंने केन्द्र के व्यवस्थापक से शिकायत की तो व्यवस्थापक की तहरीर पर इन आवाज उठाने वाले छात्रों पर नकल अध्यादेश के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया। अब ये छात्र अगर अवसाद में चले जाते हैं तो किसको दोषी माना जायेगा। दरअसल चाहे बेरोजगार युवा आत्महत्या कर रहे हों या पढ़ने वाले छात्र, ये सभी मौजूदा व्यवस्था द्वारा उत्पन्न किये गये हालातों का शिकार हो रहे हैं। इसीलिए आज हमारी पूंजीवादी व्यवस्था युवाओं की हत्यारी बन चुकी है। इस व्यवस्था को बदला जाना जरूरी है।