जेएनयू में विगत 22 अक्टूबर को आरएसएस के स्वयंसेवकों ने पथ संचलन किया। पथ संचलन संघ की फासीवादी वर्दी में हुआ। इस कार्यक्रम का जेएनयू छात्र संघ और उससे जुड़े संगठनों ने विरोध किया। विश्वविद्यालय प्रशासन पर यह आरोप है कि उसने छात्रों के प्रदर्शन के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र में आरएसएस को पथ संचलन करने दिया। जबकि छात्रों को 2017 के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दे हमेशा रोका जाता रहा है। वहीं आरएसएस पर आरोप है कि वह कोई छात्र संगठन नहीं है, प्रशासनिक संस्था नहीं है, सरकार का प्रतिनिधि नहीं है जो विश्वविद्यालय में कार्यक्रम करे। इस कार्यक्रम में बाहरी लोग शामिल थे, विश्वविद्यालय के कुछ छात्र भी छात्र पहचान से नहीं बल्कि बाहरी की तरह ही शामिल थे।
जेएनयू विश्वविद्यालय में आरएसएस लम्बे समय से अपने फासीवादी विचारों का आधार बनाने की कोशिश में लगा रहा है। इसके लिए आरएसएस ने मातृ संगठन की हैसियत से अपने अनुषांगिक संगठनों एबीवीपी, भाजपा सहित लम्पट संगठनों का भी इस्तेमाल किया। 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद आरएसएस ने इस ओर सरकारी और प्रशासनिक तरीकों से हमले तेज कर दिए थे। जाहिर तौर पर आरएसएस की यह मजबूरी एबीवीपी के दम पर अपनी विभाजनकारी; दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिला विरोधी; राजनीति के प्रसार में असफल होने से पैदा हुई। विज्ञान, तर्कपरकता पर आधारित उच्च शिक्षण संस्थान में इस हिन्दू फासीवादी राजनीति को बिना षड्यंत्र के प्रभावी भी नहीं किया जा सकता। इसके लिए आरएसएस समर्थक कुलपति को नियुक्त कर, सरकारी बेरुखी, बजट में कमी, आदि तरीकों का इस्तेमाल किया।
विश्वविद्यालय में छात्रों, छात्र संघ और शिक्षकों के स्वतंत्र चिंतन और विचारों से संघ-भाजपा को भारी डर सताता है। क्योंकि यह स्वतंत्र चिंतन और विचार अपनी ही चुनी हुई सरकार की जनविरोधी नीतियों का खुलकर मुखर विरोध करने तक जाते हैं। जेएनयू के छात्रों का भट्ठा-परसौल, न्यूक्लियर डील के विरोध से लेकर भाजपा के फासीवादी कदमों के विरोध तक संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है।
ऐसे में जेएनयू के विरोध के लिए सबसे पहले उसे देशद्रोही गतिविधियों का अड्डा कह बदनाम करने की कोशिश हुई। कन्हैया कुमार प्रकरण से यह बात जगजाहिर है। संस्थान को वामपंथियों का ‘‘अड्डा’’ कहा गया। वामपंथ के इस तथाकथित ‘‘अड्डे’’ का देश के सर्वोत्कृष्ट संस्थानों में होने से आरएसएस के कुत्सा प्रचार को धक्का ही लगता था। क्योंकि इसका यह अर्थ निकलता था कि अन्य संस्थान भी यदि ‘‘वामपंथियों’’ का अड्डा हो जाएं तो शिक्षा की गुणवत्ता सुधर सकती है। खैर, कुल जमा बात यह कि किसी किले को ध्वस्त करने में यदि बाहर से असफलता मिले तो उसको अंदर (षड्यंत्र) से ध्वस्त करने की नीति पर आरएसएस चला। कुलपति और अन्य प्रशासनिक पदों पर संघ समर्थकों की नियुक्ति इसका एक तरीका था। इसके बावजूद भले ही छात्र संघ, छात्रों और छात्र संगठनों की गतिविधियों को हतोत्साहित करने में विश्वविद्यालय प्रशासन, सरकार और आरएसएस को सफलता मिली हो पर अपना आधार बढ़ाने में कुछ खास लाभ नहीं मिला। ऐसे में 2019 में बाहरी संघी लम्पटों के जरिये जेएनयू परिसर में मारपीट करवायी गयी। जिसमें विश्वविद्यालय के अंदर तैनात पुलिस के मूकदर्शक बन लम्पटों की मदद करने का नजारा पूरे देश ने देखा था।
जेएनयू परिसर में आरएसएस के हालिया पथ संचलन को इसी रोशनी में समझना चाहिए। जहां आरएसएस अपनी हर संस्था के प्रयासों से सफल नहीं हो सका वहां वह खुद मैदान में उतरकर मोर्चा संभाल रहा है। पथ संचलन के दौरान आरएसएस ने छात्र हितों या विश्वविद्यालय के हितों की कोई बात करने के बजाय अपने हिन्दू फासीवादी एजेंडे के बतौर ‘‘हिंदुओं को जागने’’ की बातें कीं। आरएसएस के विचारों पर सवार हो ‘‘जागने वाले हिंदुओं’’ द्वारा देश में किये जा रहे कुकर्मों की फेहरिस्त लम्बी है। मुंशी प्रेमचंद ने कभी कहा था ‘‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में आने में लज्जा आती है।’’ यह बात आरएसएस के हिन्दू प्रलाप पर सोलह आने सच है। जेएनयू के छात्र, छात्र संगठन और छात्र संघ इसका मुकाबला कैसे करते हैं यह देखने वाली बात है। आरएसएस हर फासीवादी की तरह, मानवद्रोही, प्रगतिशीलता का दुश्मन और अड़ियल है। फासीवादियों का अहंकार उनके अस्तित्व के खात्मे के साथ ही खत्म हो सकता है। हिटलर-मुसोलिनी के इतिहास से यह साफ है। इसलिए आरएसएस के फासीवादी षड्यंत्रों का मुकाबला करते हुए उसकी समूल हार के लिए समाजवाद और क्रांति की राह पर चलना होगा। यह बात जेएनयू के साथ फासीवाद से मुकाबला करने के लिए पूरे देश पर लागू होती है। -चंदन, हल्द्वानी
जे एन यू के भगवाकरण में जुटा संघ
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