‘किस्मत मेहरबान गदा पहलवान’

यह कहावत अमित शाह के बेहद ‘लायक’ पुत्र जय शाह पर एकदम सटीक बैठती है। इस कहावत में आपको ‘किस्मत’ की जगह पर ‘‘बाप’’ पढ़ना पड़ेगा। और बाप भी ऐसा-वैसा नहीं बल्कि अमित शाह जैसा बाप। 
    
जय शाह ‘किस्मत’ की वजह से पहले बीसीसीआई के सचिव बने। सचिव बनते ही जय शाह की दौलत को पांव लग गए। अब उन पर ‘किस्मत’ की और मेहरबानी हुई, और वे इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (आईसीसी) के अध्यक्ष बन गए। ‘किस्मत’ का ऐसा दबदबा रहा कि अध्यक्ष पद के लिए उनके सामने कोई खड़ा तक नहीं हो पाया। अध्यक्ष बनते ही जय शाह ने कहा ‘‘मैं बहुत खुश हूं’’। ‘किस्मत मेहरबान रहेगी (रही) तो महाशय आप ऐसे ही खुश रहेंगे। 
    
जय शाह की खुशी से आप समझ सकते हैं कि परिवारवाद को रात-दिन गाली देने वालों को भी असली खुशी परिवार की मेहरबानी से ही मिलती है। वैसे सबको पता है कि ‘किस्मत’ की वजह से जय शाह पहले बीसीसीआई के सचिव और अब आईसीसी के अध्यक्ष बने हैं अन्यथा उनका क्रिकेट से उतना ही लेना-देना है जितना आजादी की लड़ाई से हिंदुत्ववादियों का था। क्रिकेट के खेल में यदि इतना पैसा ना होता तो बाप कभी अपने बेटे को उस तरफ मुंह भी न करने देता।

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सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।

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समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।    

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फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।

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यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।