इन दिनों कोलम्बिया में कॉप-16 के नाम से जैव विविधता वार्ता चल रही है। 21 अक्टूबर से 1 नवम्बर तक चलने वाली इस वार्ता में प्रकृति व पर्यावरण संरक्षण की कसमें खायी जा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में 200 देश इस वार्ता में हिस्सा ले रहे हैं। इस बैठक में सरकारों के प्रतिनिधि, गैर सरकारी संगठन, पर्यावरणविद, बड़ी कंपनियों के प्रतिनिधि सब मौजूद हैं।
इस समूह की 15 वीं वार्ता 2022 में कनाडा के मांट्रियल में हुई थी। तब काफी जद्दोजहद के बाद एक समझौता फ्रेमवर्क तय हुआ था। मौजूदा बैठक में इस फ्रेमवर्क के क्रियान्वयन की स्थिति पर चर्चा होनी है।
2022 के फ्रेमवर्क में पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रतिवर्ष 200 अरब डालर जुटाना और पृथ्वी के 30 प्रतिशत हिस्से को संरक्षित करना तय हुआ था। अभी तक लगभग बैठक के 7-8 दिन बीत जाने के बाद भी वित्त पोषण के मुद्दे पर सहमति बनती नहीं दिख रही है। कई देशों ने वैश्विक कोष हेतु लाखों डालर की घोषणा की है पर यह आवश्यक 200 अरब डालर के लक्ष्य से काफी दूर है।
इन वार्ताओं का लक्ष्य मानव सभ्यता और प्राकृतिक दुनिया के बीच स्थायी संतुलन कायम करना बताया गया है। इस वार्ता में भाग लेने वाले नेता-अधिकारी-पूंजीपति पर्यावरण संकट पर काफी गंभीरतापूर्ण भाषण देते हैं पर उन भाषणों से निकलने वाले निष्कर्षों पर ये चलने को तैयार नहीं होते।
दरअसल आज जो पर्यावरण संकट हमें मिट्टी की घटती उर्वरता, मौसम में आकस्मिक बदलाव, ओजोन परत क्षरण, बढ़ते कार्बन उत्सर्जन, जल-वायु प्रदूषण आदि भिन्न-भिन्न रूपों में दिखलाई देता ह;ै जिनकी कई प्राकृतिक आपदाओं में भी भूमिका होती है; इस संकट को गहराने और लगातार गम्भीर बनाने के लिए मूलतः साम्राज्यवादी मुल्क जिम्मेदार हैं। बीते 200-300 वर्षों में इन्होंने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर उसे तहस-नहस किया। आज भी इन देशों में कार्बन उत्सर्जन, ऊर्जा खपत काफी ज्यादा है। पर जब आज ये पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं तो ये विकसित व विकासशील देशों सबके लिए समान नियमों की मांग करते हैं। इस तरह गरीब मुल्कों पर इन नियमों हेतु दबाव बनाते हैं। बदले में विकासशील गरीब देश अपने लिए तरह-तरह की छूटें और मुआवजे की मांग करते हैं जिसे पूरा करने के लिए साम्राज्यवादी मुल्क तैयार नहीं होते।
इसके साथ ही वैश्विक स्तर पर प्रतियोगितारत बहुराष्ट्रीय कंपनियां पर्यावरण संरक्षण के उपायों पर चलने को तैयार नहीं होतीं। इन पर चलने से उनके मुनाफे में गिरावट होगी जो उन्हें मंजूर नहीं।
कुल मिलाकर इस मसले पर गरीब और विकसित सभी देशों के शासक समस्या का रोना रोते हुए अपने को चिन्तित दिखाने की नौटंकी करते हैं। घड़ियाली आंसू बहाते हैं। एक-दूसरे पर समस्या हल न होने देने का आरोप लगाते हैं पर समस्या के समाधान के लिए कुछ नहीं करते।
साम्राज्यवादियों द्वारा वित्तपोषित गैरसरकारी संगठन भी विकासशील देशों में उनकी सरकारों पर दबाव डालने का काम करते हैं। वे यह हकीकत छुपाने का काम करते हैं कि संकट के लिए मुख्यतया दोषी साम्राज्यवादी मुल्क हैं।
साल दर साल यह सब चलता रहता है। संकट हल करने के लिए अलग-अलग वार्ताओं का नाटक रचा जाता है। इनका उद्देश्य जनता के सामने खुद के समस्या पर चिन्तित होने का पाखण्ड करना भर होता है।
वास्तव में मौजूदा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया में केवल घड़ियाली आंसू बहाने से अलग कुछ और हो भी नहीं सकता। समस्या के हल के लिए जरूरी है पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था का अंत किया जाए और समाजवादी राज्य कायम किया जाय।
केवल समाजवादी दुनिया में ही पर्यावरण संकट का तेजी से हल संभव है क्योंकि वहां मुनाफे की जगह मेहनतकश केन्द्र में होंगे। जरूरत है कि पर्यावरण संकट पर शासकों के पाखण्ड को उजागर करते हुए पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने की जरूरत समाज में स्थापित की जाए।
कॉप-16 : एक बार फिर पर्यावरण बचाने का पाखण्ड
राष्ट्रीय
आलेख
22-24 अक्टूबर को ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का 16वां शीर्ष सम्मेलन रूस के कजान शहर में हुआ। इस सम्मेलन को ब्रिक्स+ का नाम दिया गया क्योंकि इन पां
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को
7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक
अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।