ये डर है तो किस बात का डर है

पिछले दिनों काफी मजेदार बातें हुयीं। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार कमला हैरिस की ‘समाजवादी’ कहकर भर्त्सना की। और इसके जवाब में कमला ने कहा कि ‘वे सौ फीसदी पूंजीवादी’ हैं। कुछ-कुछ ऐसा ही हमारे देश में हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रमुख विपक्षी काग्रेस पार्टी की यह कहकर भर्त्सना की कि वह ‘अर्बन नक्सल’ की गिरफ्त में है। कांग्रेस पार्टी ने ‘अर्बन नक्सल’ के जवाब में भाजपा को ‘आतंकवादियों की पार्टी’ कहा।
    
कमला हैरिस क्या हैं? इसमें क्या किसी को कोई शक हो सकता है। फिर उस पर आरोप क्यों लग रहे हैं और वे क्यों सफाई दे रही हैं।
    
कांग्रेस पार्टी जिसने नक्सलवादी-माओवादी आंदोलन को कुचलने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया हो वह भला कथित ‘अर्बन नक्सल’ की गिरफ्त में कैसे हो सकती है।  
    
जब से दुनिया में समाजवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन का उदय हुआ है तब से पूंजीवादी नेता और पार्टियां एक-दूसरे की ‘समाजवादी’ ‘कम्युनिस्ट’ आदि कह कर भर्त्सना करती रही हैं। हालांकि दूसरी पार्टी अथवा नेता का समाजवाद या कम्युनिज्म से दूर-दूर का भी कोई नाता नहीं होता है। और वह पहली पार्टी और नेता की तरह घोर पूंजीवादी घोर साम्राज्यवादी होती है। कमला हैरिस, जो बाइडेन क्या कर रहे हैं, उसे साफ तौर पर पश्चिम एशिया में खासकर गाजा पट्टी में फिलिस्तीनियों के जारी नरसंहार में देखा जा सकता है, अमेरिका की दोनों प्रमुख पार्टियां रिपब्लिकन व डेमोक्रेटिक पार्टी का इतिहास पूरी दुनिया में खूनी नरसंहार से भरा पड़ा है। और क्या कुछ ऐसा ही भारत में कांग्रेस और भाजपा का इतिहास नहीं है। दोनों ही पार्टियों ने अपने-अपने शासन काल में मजदूरों-मेहनतकशों, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं-आदिवासियों के खून से अपने हाथ रंगे हैं। फर्क इन दोनों ही पार्टियों में यह है कि जहां कांग्रेस प्रतिक्रियावादी है परन्तु यथास्थिति बनाने की पक्षधर है वहां भाजपा घोर प्रतिक्रियावादी, फासीवादी और भारत को एक ‘हिन्दू राष्ट्र’ में तब्दील करना चाहती है। फासीवादी मंसूबों से वह यथास्थिति का विरोध करती है। 
    
फिर इस तरह के आरोपों की जमीन क्या है? और क्यों ये धूर्त अपने आपस की लड़ाई में ‘समाजवाद’, ‘कम्युनिज्म’, ‘नक्सलवाद’ आदि को खींच कर ले आते हैं? एक कारण तो यह है कि ये घोर प्रतिक्रियावादी, फासीवादी धन कुबेरों का समर्थन चाहते हैं। और दूसरा कारण यह है कि पूंजीवादी, निम्न पूंजीवादी मध्यम वर्ग को यह कह कर आतंकित करना चाहते हैं कि दूसरा उनकी सम्पत्ति छीन लेगा, नये करों से लाद देगा। ‘समाजवाद’ लायेगा। 
    
डोनाल्ड ट्रम्प, नरेन्द्र मोदी जैसे नेता ‘समाजवाद’, ‘कम्युनिज्म’ का आतंक तब खड़ा कर रहे हैं जब सोवियत संघ के पतन को तीन दशक से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है। और सोवियत संघ में समाजवाद को खत्म हुए तो लगभग 70 वर्ष गुजर चुके हैं और कुछ ऐसा ही चीन का हाल है। चीन में आज भी भले ही कम्युनिस्ट पार्टी का शासन हो परन्तु वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने कम्युनिज्म का रास्ता आज से लगभग 50 साल पहले ही त्याग दिया था। यह कम्युनिस्ट पार्टी दुनिया की ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी है जो पूंजीपति वर्ग के हितों को साधती है और मजदूरों-मेहनतकशों का शोषण-उत्पीड़न करती है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी स.रा.अमेरिका की दोनों पार्टियों की तरह प्रतिक्रियावादी साम्राज्यवादी नीतियों की पक्षधर है। 
    
जब दुनिया में कहीं समाजवादी राज्य नहीं है; जब दुनिया भर में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन टूट-फूट बिखराव का शिकार है; जब मजदूर वर्ग क्रांति अथवा समाजवाद की ओर कोई हल्का सा झुकाव भी नहीं दिखा रहा है, तब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प और भारत में मोदी विपक्षियों पर समाजवाद या नक्सलवाद का आरोप क्यों लगा रहे हैं। समाजवाद, कम्युनिज्म में ऐसा क्या है जो इनका ‘‘भूत’’ पूंजीपति वर्ग को सताता रहता है। इनमें से हर पार्टी को दूसरी पार्टी या हर नेता को दूसरे नेता की हकीकत, जन्म कुण्डली का अच्छे से पता है फिर ये आरोप-प्रत्यारोप क्यों?
    
पूंजीवाद हजारों-लाखों बार समाजवाद को खारिज कर चुका है। मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन, माओ जैसे मजदूर शिक्षक व नेताओं को बदनाम करने के लिए हर वह काम कर चुका है जो वह कर सकता है। इन्हें तानाशाह, हत्यारा, सनकी, खून का प्यासा आदि जो कुछ गालियां वह बक सकता था, वह सब बक चुका है। हजारों-हजार बार पूंजीवादी विद्वान बता चुके हैं कि समाजवाद दुनिया में कभी नहीं आ सकता है। फिर क्यों समाजवाद का शोर मचाया जाता है। क्यों बार-बार कम्युनिज्म की चर्चा पूंजीवादी दायरों में होती है। जब समाजवाद कुछ है ही नहीं तो फिर इन्हें क्या डर है? क्यों वे एक-दूसरे पर ‘समाजवादी’, ‘कम्युनिस्ट’, ‘नक्सलवादी’ आदि का आरोप मढ़ते हैं? क्यों अपने वित्तपोषकों, पूंजीपतियों और अपने जनाधार का भयादोहन करते हैं?
    
यह एक निर्मम सच्चाई है कि आज पूरी दुनिया में कहीं भी समाजवादी राज्य नहीं है। कहीं ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है जो अपना व्यापक आधार रखती हो और मजदूर क्रांति को सम्भव बना रही हो। कहीं भी ऐसा नहीं है कि मजदूर वर्ग की बहुसंख्या ने मार्क्स, लेनिन, स्तालिन के ग्रंथों का अध्ययन करा हो और क्रांति का रास्ता ढूंढ रहा हो। 
    
यह सब हो या न हो परन्तु दुनिया के शासक अच्छे से जानते हैं कि वे जिनके ऊपर शासन कर रहे हैं, वो हैं और वे कभी भी उनके खिलाफ बगावत कर सकते हैं। मजदूर वर्ग है। मेहनतकश किसान हैं। शोषित-उत्पीड़ित जन हैं। और जब तक मजदूर-मेहनतकश है तब तक क्रांति की संभावना मौजूद है। समाजवाद, कम्युनिज्म संभव है। मजदूर-मेहनतकश जनता क्योंकि कभी खत्म नहीं हो सकती इसलिए कभी भी इन्कलाब, समाजवाद, कम्युनिज्म की संभावना खत्म नहीं हो सकती है। क्योंकि जनता अमर है, इसलिए हर हमेशा के लिए इन्कलाब जिन्दाबाद है, समाजवाद संभव है। 
    
मजदूर-मेहनतकश के होने का मतलब हमेशा ही क्रांति की संभावनाशीलता (पोटेंनिशयल) मौजूद है। यदि सूर्य मौजूद है तो हर हमेशा सौर-ऊर्जा का प्रयोग करने ही संभावना मौजूद है। यदि जल का पर्वत-शिखरों से मैदान की ओर प्रवाह मौजूद है तो इसकी संभावना मौजूद है कि जल की शक्ति का प्रयोग कर बिजली पैदा की जा सकती है। जल है तो जल शक्ति है। मजदूर वर्ग है तो क्रांति है। 
    
दुनिया भर के शासकों के लिए ये मजदूर-मेहनतकश हमेशा ही खतरा हैं। यह खतरा हमेशा मौजूद है कि वे कभी भी उसको सत्ता के सिंहासन से नीचे गिरा सकते हैं। आज के पूंजीपतियों को अच्छे से पता है कि सन् 1871 में पेरिस कम्यून ने क्या किया था। और क्या लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने सन् 1917 में रूस में किया था। और क्या माओ के नेतृत्व में चीन में हुआ था। 
    
बहुत साल तो हो गये परंतु बीसवीं सदी के इतिहास में क्रांतियों (सफल-असफल) के अनेकोनेक हस्ताक्षर हैं। पूरी बीसवीं सदी का इतिहास साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई से भरा हुआ है। 
    
दुनिया भर के शासक, उनके पालतू विचारक-नौकरशाह-विद्वान ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े सटोरिये भी जानते हैं कि जब तक वर्ग मौजूद हैं तब तक ‘‘वर्ग संघर्ष’’ मौजूद है। वे अभी इस बात को लेकर खुश हैं कि इस वर्ग संघर्ष में उनका वर्ग जीत रहा है और जीतता जा रहा है। ये सटोरिये मोदी जैसे राजनेताओं की इसलिए प्रशंसा करते हैं कि कैसे उन्होंने अपने देश में अपनी धूर्त राजनीति के जरिये वर्ग संघर्ष को काबू में रखा हुआ है। भारत में मोदी की हिन्दुत्व वाली फासीवादी राजनीति ने भारत के मजदूरों-मेहनतकशों को धर्म के आधार पर बांटा हुआ है। धर्मोन्माद के जरिये धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित किया हुआ है। और मजदूर-मेहनतकशों के बीच ऐसे कई-कई जन हैं जो मोदी जैसों की राजनीति के फेर में फंसे हुए हैं। लेकिन क्या यह हमेशा चल सकता है। अभी आम चुनाव में ही इनकी गाड़ी डगमगा गई। 
    
‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ ने अक्टूबर 1917 के समय और उसके बाद पूरी दुनिया को दिखला दिया था कि जागे हुए मजदूर क्या-क्या कर सकते हैं। रूस के मजदूरों-मेहनतकशों ने पहले जार को धूल चटायी, फिर रूस के पूंजीपतियों को धरती में पटका, फिर चौदह देशों के पूंजीपतियों की फौज व हस्तक्षेप को नेस्तानाबूत किया और फिर हिटलर की फौज को मिट्टी में मिला दिया। और अंत में हिटलर को मौत का रास्ता चुनना पड़ा। जब तक मजदूर वर्ग है तब तक दुनिया में हमेशा क्रांति की, समाजवाद की संभावना मौजूद है। क्रांति की संभावना, समाजवाद की संभावना एक ऐसी चीज है जिसमें दुनिया के पूंजीपतियों को अपनी मौत की घंटी की आवाज सुनाई देती है। वे जितना मजदूर वर्ग से डरते हैं उतना ही उसके इतिहास से डरते हैं। और उतना ही मजदूर वर्ग की क्रांति की क्षमता, संभावना से डरते हैं। 

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