कृत्रिम मेधा : संभावनाएं, सीमाएं और चुनौतियां

कृत्रिम मेधा : संभावनाएं, सीमाएं और चुनौतियां
16 May, 2023

आजकल कृत्रिम मेधा या कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलीजेन्स) की काफी चर्चा है। पिछले नवम्बर में CHAT GPT के आने के बाद से ही लोग इस पर जोर-शोर से बात करने लगे हैं। कुछ लोग इससे उत्साहित हैं तो कुछ भारी आशंकित। कुछ इसमें फायदा देख रहे हैं तो कुछ भारी नुकसान। कुछ तो हाल फिलहाल कृत्रिम मेधा से जुड़े हर तरह के शोध पर पाबंदी लगाने की बात कर रहे हैं। 
    

इस तरह की बातों से जाहिर है कि कृत्रिम मेधा का मामला अब एक ऐसे मोड़ पर पहुंच रहा है जहां से चीजें भिन्न रूप ग्रहण कर सकती हैं। जो चीज अभी दूर की कौड़ी नजर आती थी अब वह बेहद नजदीक नजर आ रही है।     
    

बीसवीं सदी के मध्य में कम्प्यूटर के आविष्कार के साथ ही यह सवाल उठने लगा था कि क्या कभी ऐसा हो सकता है कि मशीनें इंसानी दिमाग जितनी सक्षम हो जायें? इस संबंध में भांति-भांति की कल्पनाएं की गईं। कहानियां-उपन्यास लिखे गये और फिल्में बनीं। इन सबकी एक लम्बी सूची है। लेकिन तब भी लोगों को लगता था कि इंसानी दिमाग की तरह की क्षमता वाली मशीन का आविष्कार दूर की चीज है। तब तक मजे से अटकलबाजी की जा सकती थी और इस अटकलबाजी का आनंद लिया जा सकता था। पर अब इसके नजदीक की संभावना महसूस करते ही एक किस्म की दहशत को महसूस किया जा सकता है।     
    

इंसानी दिमाग एक अद्भुत चीज है। अभी तक ज्ञात ब्रह्माण्ड में यह अपने आप में अनूठी चीज है। इसके जैसा कुछ और नहीं है। हालांकि ढेरों किस्म के जन्तुओं में दिमाग है और स्तनधारी जन्तुओं में तो काफी विकसित दिमाग है पर ये सब इंसानी दिमाग के नजदीक नहीं बैठते। इंसानी दिमाग इनसे गुणात्मक तौर पर भिन्न है। इंसानी दिमाग की तर्कशीलता, कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का कोई जवाब नहीं है। इसी तरह इसकी भावनात्मकता और अंतर्दृष्टि का भी कोई जवाब नहीं है। 
    

कैलकुलेटर और कम्प्यूटर बहुत सारे काम इंसानी दिमाग से ज्यादा तेजी से तथा सटीकता से कर सकते हैं। सामान्य जोड़-घटाना से लेकर अन्य तरह के गुणा-भाग और गणना इसमें शामिल हैं। इन सबने पिछली तीन-चौथाई सदी में इंसान का काम काफी आसान भी बनाया है। पर इन सबमें इंसानी दिमाग की उपरोक्त खासियतें कहीं नहीं थीं। वे बस ज्यादा तेज गति से काम करने वाली मशीनें ही रहीं। जैसे बाकी मशीनें इंसानी हाथ से बहुत ज्यादा विशाल पैमाने पर तथा ज्यादा तेज गति और सटीकता से काम करती हैं वैसे ही कम्प्यूटर भी इंसानी दिमाग से ज्यादा विशाल पैमाने पर तथा ज्यादा तेज गति और सटीकता से काम करने वाली मशीन था। बस! 
    

पर अब कृत्रिम मेधा के विकास के साथ यह सब बदल रहा सा लगता है। ऐसा लगता है कि मशीन और इंसानी दिमाग के बीच का विशाल फर्क कम हो रहा है। कि मशीन अब इंसानी दिमाग की तरह की क्षमता की ओर बढ़ रही है। कि वह भी अब तर्कशीलता और रचनात्मकता का परिचय दे रही है। अभी वह भले ही कल्पनाशीलता और भावना न दिखा रही हो पर उधर की ओर बढ़ सकती है। जो भी हो, अभी ही यह दीख रहा है कि रोजमर्रा के मानसिक कामों के ढेरों मामलों में कृत्रिम मेधा वह कर दे रही है जो एक सामान्य प्रशिक्षित व्यक्ति कर सकता है। 
    

यहीं से कृत्रिम मेधा के बारे में आशंका और दशहत भी पैदा हो रही है। यहीं से कृत्रिम मेधा और इंसानी दिमाग के बीच फर्क के बारे में बहस भी पैदा हो रही है। यहीं से इस क्षेत्र में और आगे शोध पर पाबंदी लगाने की बात भी उठ रही है। 
    

नोम चोम्स्की जैसे लोगों का मानना है कि अभी घबराने की आवश्यकता नहीं है क्यों कि अपने वर्तमान रूप में कृत्रिम मेधा कभी भी इंसानी दिमाग की बराबरी नहीं कर सकती। उनके अनुसार वर्तमान कृत्रिम मेधा उच्च तकनीक वाली नकलबाजी मात्र है। उनके इस कथन का निश्चित मतलब है। सरल रूप में इसे इस रूप में समझा जा सकता है। 
    

आजकल भारत में स्कूली किताबें (टेक्स्ट बुक) लिखने का एक सामान्य तरीका है। इसमें कोई लेखक किसी विषय पर पहले लिखी हुई स्कूली किताबें लेकर बैठ जाता है। वह सभी किताबों को पढ़़ता है और फिर उन्हें मिलाकर एक नयी किताब लिख देता है। बस उसे यह ध्यान रखना पड़ता है कि किसी किताब का कोई वाक्य वह हूबहू नकल न करे नहीं तो उस पर चोरी का आरोप लग जायेगा। 
    

कृत्रिम मेधा भी इसी तकनीक का इस्तेमाल करती है। किसी विषय पर कुछ लिखने के लिए वह अपने पास मौजूद सारी सामग्री को देखती है और फिर उनसे सबसे संभावित चीज लिख देती है। इसे प्रायिकता माडल कहते हैं। इसीलिए उसके डाटाबेस में मौजूद सामग्री से उसका उत्तर बदल जायेगा। उदाहरण के लिए यदि उसके डाटाबेस में नरेन्द्र मोदी से संबंधित ज्यादातर सामग्री (लेख और किताबें) वामपंथी होंगी तो उत्तर वामपंथी होगा। इसके उलट सामग्री के दक्षिणपंथी होने पर उत्तर दक्षिणपंथी होगा। 
    

कृत्रिम मेधा की ट्रेनिंग या प्रशिक्षण उसके डाटाबेस पर ही होता है। इसीलिए उत्तर उसी के हिसाब से मिलेगा। यदि बाघ की ट्रेनिंग के लिए चीते के चित्रों को प्रयोग किया जाये तो उत्तर में बाघ के नाम पर चीते का चित्र ही देखने को मिलेगा। 
    

यहीं से नोम चोम्स्की की बात पर आया जा सकता है। हो सकता है कि कोई बच्चा गलत ढंग से छपी किताब को बार-बार देखकर चीते को ही बाघ समझने लगे। पर उसके मां-बाप या अध्यापक यदि उसे एक बार भी बाघ का चित्र दिखाकर बताएं कि बाघ असल में ऐसा होता है तो बच्चा फिर चीते को बाघ समझना बंद कर देगा। उसकी पहले की बार-बार की याद को यह एक बार की शिक्षा निरस्त कर देगी। उसका दिमाग पुरानी बार-बार की बात को भूलकर इस एक बार की बात को मानना शुरू कर देगा। 
    

पर कृत्रिम मेधा के साथ ऐसा नहीं होगा। यदि पहले बाघ के नाम पर चीते के सौ चित्र उसके डाटाबेस में हैं तो बाघ के नाम पर बाघ के एक-दो चित्र कुछ काम नहीं आयेंगे। वह बाघ के नाम पर चीते का चित्र दिखाता रहेगा। स्थिति तब बदलेगी जब बाघ के नाम पर बाघ के इतने चित्र डाल दिये जायें कि वे बाघ के नाम पर चीते के चित्र से ज्यादा हो जायें। यानी बाघ के नाम पर बाघ के चित्रों की डाटाबेस में प्रायिकता (प्रोबैबिलिटी) चीते के चित्रों से ज्यादा हो जाये। 
    

यहीं से कृत्रिम मेधा और इंसानी दिमाग के अभी के फर्क को समझा जा सकता है। दोनों ट्रेनिंग और डाटाबेस पर काम करते हैं। कृत्रिम मेधा के डाटाबेस में बाघ के नाम पर चित्र डाले जाते हैं। बच्चे को बाघ का चित्र या असली बाघ दिखाकर बताया जाता है कि वह बाघ है। पर कृत्रिम मेधा के सटीक होने के लिए जरूरी है कि उसके डाटाबेस में जानकारी या सूचना ज्यादा से ज्यादा हो। पर इंसानी दिमाग न्यूनतम सूचना पर काम करता है। इंसानी दिमाग में ज्यादा से ज्यादा सूचना नहीं भरी जा सकती भूलना इंसानी दिमाग की चारित्रिक विशेषता है। 
    

आज कृत्रिम मेधा और इंसानी दिमाग में बुनियादी फर्क है। इस फर्क से स्वाभाविक तौर पर बहुत सारे परिणाम निकलते हैं। कृत्रिम मेधा अधिकतम सूचना पर काम करती है जबकि इंसानी दिमाग न्यूनतम सूचना पर। इसी के साथ इंसानी दिमाग भावनाओं और अंतर्ज्ञान को भी समेटता है जिन्हें इंसानी तर्कशीलता और रचनात्मकता से अलग नहीं किया जा सकता। भावनाएं और अंतर्ज्ञान ज्यादा आदिम हैं और किसी हद तक दूसरे जंतुओं में भी मिलते हैं। इन सबसे युक्त इंसानी दिमाग जो कर सकता है वह अधिकतम सूचना से प्रायिकता माडल पर चलने वाली कृत्रिम मेधा नहीं कर सकती। 
    

पर इसका यह मतलब नहीं है कि कृत्रिम मेधा अभी जो कर रही है या कर सकती है वह कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं है। सामाजिक दृष्टि से यह बेहद महत्वपूर्ण है। आने वाले समय में यह वैसे ही सामाजिक प्रभाव डालने जा रही है जैसे पिछले तीन दशकों में मोबाइल फोन और इंटरनेट ने डाला है। 5-जी तकनीक के तहत इंटरनेट की बढ़ी गति के साथ इसके मेल से जल्दी ही इसके बड़े परिणाम देखने को मिलेंगे। उत्पादन-वितरण के तरीकों तथा स्वयं जीवन शैली पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। 
    

पिछले लम्बे समय से रोबोटीकरण और इसके प्रभाव की चर्चा होती रही है। अब कृत्रिम मेधा से लैस रोबोट एक नये चरण के द्योतक होंगे। इनके जरिये उत्पादन-वितरण ही नहीं युद्ध तक बड़े परिवर्तन हो सकते हैं। 
    

रोबोटीकरण और कृत्रिम मेधा के अन्य तरीकों (भांति-भांति के एप) के कारण रोजगार के कई क्षेत्रों पर गंभीर असर पड़ेगा। बहुत सारे मानसिक काम जो दुहराव की प्रकृति के हैं, उन पर सबसे ज्यादा असर होगा। जिस आई टी (सूचना तकनीक) की पिछले दिनों इतनी धूम रही है, उस पर भारी असर पड़ेगा। इसी तरह साफ्टवेयर और बी पी ओ पर भी। वकीलों और उन्हीं तरह के अन्य काम भी प्रभावित होंगे। इंटरनेट की दुनिया में पिछले सालों में चमके ‘कंटेन्ट राइटर’, ‘यू ट्यूबर’ इत्यादि भी प्रभावित होंगे। आम तौर पर कहा जाये तो जो क्षेत्र आधुनिक सूचना और संचार तकनीक के जितना नजदीक था वह उतना ही ज्यादा प्रभावित होगा। 
    

इसके असल को एक उपमा से समझा जा सकता है। स्मार्टफोन आने के बाद बहुत सारे उपकरण एक तरीके से निरर्थक हो गये क्योंकि स्मार्टफोन ने उन्हें अपने में समेट लिया। कैमरा, घड़ी, टार्च, म्यूजिक सिस्टम, पुस्तकालय, अखबार-पत्रिकाएं, सिनेमा हाल, टी वी, इत्यादि सब बदले रूप में इसमें समाहित हो गये। ये सब अभी भी अलग से मौजूद हैं पर काम चलाऊ रूप में सब स्मार्टफोन में भी उपलब्ध हैं और ज्यादातर लोग इन्हीं से काम चलाते हैं। इससे उपरोक्त चीजों के बाजार पर भारी प्रभाव पड़ा है और उन्हें अपने अस्तित्व के संघर्ष से जूझना पड़ा है। 
    

यही चीज भांति-भांति के क्षेत्र में कृत्रिम मेधा भी करेगी। बहुत सारे काम कब संकट में पड़ जायेंगे और उनमें काम कर रहे लोग बेरोजगार हो जायेंगे। बहुत सारे लोग आश्वस्त हैं कि कृत्रिम मेधा का इस्तेमाल नये रोजगार पैदा करेगा जैसे सूचना और संचार क्रांति ने किया। पर यह याद रखना होगा कि ठीक इसी काल में या सूचना और संचार क्रांति के काल में बेरोजगारी लगातार बढ़ती गई है। आबादी का अधिकाधिक हिस्सा बेरोजगारों की पांतों में शामिल होता गया है। स्थाई बेरोजगारों की दर विभिन्न देशों में एक चौथाई से एक तिहाई आबादी तक जा पहुंची है। हताश होकर काम की तलाश बंद कर देना, जिन्दा रहने के लिए कुछ भी करना, इत्यादि के कारण ही यह वास्तविक बेरोजगारी की दर आंखों से ओझल रहती है। 
    

इसलिए यह खुशफहमी पालना कि कृत्रिम मेधा का इस्तेमाल रोजगार खत्म करने से ज्यादा रोजगार पैदा करेगा गलत होगा। हां, चूंकि इसके इस्तेमाल से पूंजीपति वर्ग को तात्कालिक तौर पर अपना मुनाफा बढ़ाने में मदद मिलेगी, इसीलिए पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदे इस खुशफहमी को फैला रहे हैं। इतिहास में हमेशा ही पूंजीपति वर्ग ने हर नयी तकनीक का इस्तेमाल अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए किया है। इस बार भी ऐसा ही होगा। इसमें हमेशा ही मजदूर वर्ग पर हमला होता रहा है। बेरोजगारी इसका एक परिणाम है तो बढ़ती बदहाली दूसरा। 
    

पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि तकनीक मजदूर वर्ग या मानवता की दुश्मन है। तकनीक आज इसीलिए मजदूर वर्ग की और मानवता की दुश्मन है कि उस पर पूंजीपति वर्ग का नियंत्रण है जो उसे अपने मुनाफे के लिए इस्तेमाल करता है। यह इस्तेमाल किसी और रूप में नहीं हो सकता सिवाय इसके कि ज्यादा आबादी को भयंकर कंगाली में धकेल दिया जाये। 
    

इंसानी समाजों में धन-सम्पदा के दो ही मूल स्रोत रहे हैं- प्रकृति और इंसानी श्रम। पूंजीवाद अधिकाधिक मुनाफे के लालच में इन दोनों स्रोतों का अधिकाधिक दोहन कर उन्हें नष्ट करता है। प्रकृति के बारे में सारा ज्ञान (विज्ञान और उस पर आधारित तकनीक) उसके इसी काम आती है। कृत्रिम मेधा के मामले में भी यही होगा। इसके जरिए प्रकृति और इंसान का दोहन और बढ़ेगा। 
    

यहीं से उन लोगों की बातों को समझा जा सकता है जो कृत्रिम मेधा पर आगे शोध पर पाबंदी लगाने की बात करते हैं। उनकी आशंका जायज है। पर उसका प्रस्थान बिन्दु गलत है। समस्या किसी तकनीक में नहीं है। समस्या तकनीक का इस्तेमाल करने वाली समाज व्यवस्था में है। जो समाज व्यवस्था बिना अन्य किसी चीज की परवाह किये बस नयी-नयी तकनीक से प्रकृति और इंसान के अधिकाधिक दोहन को प्रोत्साहित करती हो, उसमें इस तरह की अभिनव तकनीक जरूर चिंता का विषय है। लेकिन एक भिन्न तरह के समाज में, जिसमें तकनीक का इस्तेमाल समूचे समाज के हित में होता हो, उसमें ऐसी चिंता नहीं हो सकती। उसमें किसी घातक तकनीक के आविष्कार के बाद भी उसका इस्तेमाल नहीं होगा क्योंकि वह समूचे समाज के खिलाफ होगा। 
    

पूंजीवाद ने अपने पूरे इतिहास में अपने मुनाफे को बढ़ाने की खातिर नयी-नयी तकनीक के विकास को प्रोत्साहन दिया। इसके लिए उसने बुनियादी वैज्ञानिक शोध को भी प्रोत्साहित किया। आज ये दोनों अत्यन्त विशाल पैमाने पर हो रहे हैं। पर चूंकि यह सारा कुछ मुनाफे की खातिर हो रहा है इसलिए इस बात का खतरा पैदा हो गया है कि घातक तकनीक के रूप में भस्मासुर पैदा हो जाये। कृत्रिम मेधा, बायो तकनीक और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में इन भस्मासुरों की भारी संभावना है। इन्हें किसी तात्कालिक पाबंदी के जरिये नहीं रोका जा सकता। तात्कालिक पाबंदी तात्कालिक तौर पर ही कारगर हो सकती है। पूंजीवाद में मुनाफे का लालच हमेशा इस पाबंदी का उल्लंघन करेगा। स्थाई समाधान स्वयं इस मुनाफे की व्यवस्था के खात्मे की मांग करता है। 

आलेख
Issue
Page

आलेख

/ceasefire-kaisa-kisake-beech-aur-kab-tak

भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

/terrosim-ki-raajniti-aur-rajniti-ka-terror

आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

/modi-government-fake-war-aur-ceasefire

युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

/fasism-ke-against-yuddha-ke-vijay-ke-80-years-aur-fasism-ubhaar

हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

/jamiya-jnu-se-harward-tak

अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।