मई की पांच तारीख को देश के सिनेमाघरों में दो फिल्में एक साथ आईं। दोनों कुल मिलाकर एक ही विषय पर थीं। लेकिन एक फिल्म जहां करीब 1200 सिनेमाघरों में दिखाई जा रही थी तो दूसरी महज 60 में। एक पर पूरे देश में चर्चा में हो रही थी तो दूसरी का लोगों को नाम भी पता नहीं था। एक कुछ ही दिनों में 1200 से आगे बढ़कर करीब 1500 सिनेमाघरों तक पहुंच गयी तो दूसरी गायब हो गई।
मजे की बात यह है कि अखबारों में फिल्म समीक्षा लिखने वाले समीक्षकों ने जहां पहली फिल्म को एक सिरे से बेहद घटिया बताया वहीं दूसरी की एक सिरे से तारीफ की। पहली को जहां पांच में एक-दो स्टार मिले वहीं दूसरी को तीन चार।
एक ही विषय पर बनी इस परस्पर विरोधी फिल्मों के नाम हैं- ‘द केरला स्टोरी’ और ‘अफवाह’। पहले के निदेशक हैं सुदीप्तो सेन तो दूसरे के सुधीर मिश्रा (‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ प्रसिद्धि वाले)। दोनों ही फिल्में आज देश में फैलते धार्मिक पोंगापंथ, साम्प्रदायिकता तथा धर्म के नाम पर राजनीति को अपना विषय बनाती हैं। लेकिन पहली फिल्म जहां मुसलमानों को निशाना बनाती है वहीं दूसरी हिन्दू फासीवादियों को। पहली का उद्देश्य है मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करना तो दूसरी का उद्देश्य है हिन्दू फासीवादियों को कटघरे में खड़ा करना।
एक ही विषय पर बनी इन दोनों फिल्मों का अलग-अलग हश्र आज के हालात को बहुत स्पष्टता से सामने लाता है। ऐन कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय हिन्दू साम्प्रदायिक माहौल बनाने के लिए बनायी गयी फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ को देश के संघी प्रधानमंत्री सहित सारे हिन्दू फासीवादी प्रचार तंत्र ने खूब प्रचारित किया। परिणामस्वरूप हिन्दू साम्प्रदायिक मानसिकता से ग्रसित लोग इस फिल्म को देखने उमड़ पड़े। इसे और प्रोत्साहित करने के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की भाजपा सरकारों ने इसे कर मुक्त घोषित कर दिया। दूसरी ओर ‘अफवाह’ फिल्म को कुछ फिल्मी समीक्षकों के अलावा किसी का समर्थन नहीं मिला, उसे कोई प्रचार नहीं मिला। इस तरह की फिल्म को देखने वाले लोग भी सिनेमाघर में उसे देखने नहीं गये। वे इंतजार करते रहे कि वह व् ज् ज् पर आये तो वे देख लें।
भारत में सिनेमा मनोरंजन ही नहीं बल्कि विचारों के प्रसार करने का एक बड़ा और प्रभावी माध्यम है। जब एक आम हिन्दू ‘द केरला स्टोरी’ या ‘कश्मीर फाइल्स’ देखने जाता है तो वह उसे सच मान लेता है। उसे जरा भी भान नहीं होता कि वह फिल्म बनाने वालों के षड्यंत्र का शिकार हो रहा है। ऐसे हिन्दू फासीवादियों के प्रचार तंत्र और स्वयं भाजपा सरकारों के भरपूर सहयोग से प्रसारित की जा रही इन फिल्मों के समाज में पड़ने वाले असर को समझा जा सकता है। इसमें इन फिल्मों का कला के स्तर पर बेहद घटिया होना कोई बाधा नहीं बनता। क्योंकि उनके दर्शकों का वही कलात्मक स्तर है। हिन्दू फासीवादी चाहते हैं और प्रयास भी करते हैं कि यही स्तर बना रहे तभी वे अपने अभियान में सफल हो सकते हैं।
हिन्दू जनमानस को इस तरह की फिल्मों के जरिये हिन्दू साम्प्रदायिक बनाने के इस खुल्लम खुल्ला प्रयास के सामने इनके विरोधी उदारवादी बेबस हैं। ‘द केरला स्टोरी’ पर कुछ लोगों ने प्रतिबंध लगाने की मांग की। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार ने अपने राजनैतिक समीकरणों के तहत इसे प्रतिबंधित भी कर दिया। पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहकर इस प्रतिबंध को निरस्त कर दिया कि यह ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का उल्लंघन है। इतना ही नहीं कुछ फिल्मी उदारवादी हस्तियों ने भी कहा कि प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं है। ज्यादा अच्छा होगा कि जो लोग ‘द केरला स्टोरी’ के विरोधी हैं वे ‘अफवाह’ फिल्म देखें और उसे प्रचारित करें।
अब इन भलेमानुषों को कौन समझाये कि जब एक साम्प्रदायिक फिल्म को स्वयं प्रधानमंत्री प्रचारित कर रहे हों, प्रदेश की सरकारें उसे करमुक्त कर रही हों तथा समूचा पूंजीवादी प्रचारतंत्र उसे बढ़ावा दे रहा हो तो इसके मुकाबले दूसरी गुमनाम फिल्म नहीं टिक सकती। क्या ‘अफवाह’ को विपक्षी नेताओं ने प्रचारित किया? क्या उसे विपक्षी सरकारों ने करमुक्त किया? क्या उसे अन्य प्रचार माध्यमों से बढ़ावा मिला? ऐसे में पहली का दूसरी के मुकाबले सैकड़ों गुना दर्शकों द्वारा देखा जाना तय है। ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ दोनों फिल्मों को है पर एक को करोड़ों दर्शक मिल रहे हैं और दूसरी को लाखों भी नहीं।
आज हिन्दू फासीवादी अपने हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए इसी ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का इस्तेमाल कर रहे हैं। वे स्वयं और उनकी सरकारें विपक्षियों की इस आजादी को कुचलने में जरा भी गुरेज नहीं करतीं। वे रत्ती भर भी इस आजादी की चिंता नहीं करते। वे इसका इस्तेमाल करते हैं इसे कुचलने के लिए। ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ में मूर्त तौर पर विश्वास करने वाले उदारवादियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। वे अपनी ही धारणाओं के बंदी हैं।