बीते दिनों जब संयुक्त राष्ट्र की 79वीं आम सभा में इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू अपना भाषण दे रहे थे। जब वे लेबनान से लेकर ईरान को गुण्डों सरीखी भाषा में धमका रहे थे। ठीक उसी वक्त संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय के बाहर न्यूयार्क में हजारों लोग इजरायल के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे।
अमेरिका में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा की सुरक्षा में भारी पुलिस बल की तैनाती के बावजूद प्रदर्शनकारी न केवल न्यूयार्क की सड़कों पर लगातार प्रदर्शन करते रहे बल्कि कोलंबिया वि.वि. व अन्य कालेज परिसरों में भी इजरायल के खिलाफ कई प्रदर्शन हुए। पुलिस ने इन प्रदर्शनों को तितर-बितर करने, उनका दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने अपनी बाइकें तक चढ़ा दीं। करीब 50 प्रदर्शनकारी हिरासत में ले लिये गये व कई घायल हो गये।
इसी तरह मैनहट्टन में इजरायल के लेबनान पर बमबारी के विरोध में आयोजित रैली पर पुलिस द्वारा हिंसक हमला बोला गया। यहां भी पुलिस ने ढेरों लोगों को घायल कर दिया व कुछ को गिरफ्तार कर लिया।
फिलिस्तीन पर इजरायली नरसंहार बीते एक वर्ष से लगातार जारी है। अमेरिकी साम्राज्यवादी इस नरसंहार में निर्लज्जता के साथ इजरायली शासकों के साथ खड़े हैं। इजरायली शासक अब लेबनान पर हमला बोल इस युद्ध का विस्तार करना चाहते हैं। अमेरिका में बीते एक वर्ष में इजरायली हमलों के खिलाफ निरंतर प्रदर्शन हुए हैं। सड़कों से लेकर कालेज कैम्पसों तक में फिलिस्तीनी मुक्ति के समर्थन में लाखों लोग गोलबंद हुए। ऐसे में अमेरिकी सरकार ने अपने पुलिस बल को इन प्रदर्शनों के हिंसक दमन के लिए अधिक प्रशिक्षित किया है। इसीलिए स्वभाविक तौर पर इन प्रदर्शनों में पुलिस का दमन भी एक एजेण्डा बनता रहा।
अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इजरायल विरोधी प्रदर्शनकारी छात्रों को तरह-तरह से दण्ड दिया जा रहा है। कुछ छात्रों की डिग्रियां रोक ली गयी हैं तो कुछ विदेशी छात्रों को निलंबित कर देश छोड़ने को मजबूर करने की कार्यवाहियां तक की जा रही हैं। इन सबका लक्ष्य छात्रों को भयाक्रांत करना है। पर छात्र इस दमन के बावजूद लगातार इजरायल के खिलाफ प्रदर्शनों में हिस्सा ले रहे हैं।
जब इजरायल ने 27 सितम्बर को हिजबुल्ला नेता नसरुल्लाह की हत्या कर दी तो इजरायल विरोधी प्रदर्शन दुनिया भर में तेज हो गये। इराक, ईरान, लीबिया से लेकर भारत के कश्मीर तक में नसरुल्लाह की हत्या के खिलाफ बड़े प्रदर्शन आयोजित हुए।
इन प्रदर्शनों में इजरायल को और उसके मुखिया नेतन्याहू को सजा देने की मांग, फिलिस्तीन की आजादी की मांग और लेबनानी जनता पर इजरायली कहर रोकने की मांग को जोर शोर से उठाया गया। अमेरिकी शासकों के हाथ फिलिस्तीनी खून में सने होने को प्रदर्शित किया गया।
दुनिया भर में इजरायली हमलावरों के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा है पर पगलाये नेतन्याहू पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है। अब वह लगभग समूचा फिलिस्तीन तबाह करने के बाद लेबनान पर हमला बोल रहा है और ईरान को आंखें दिखा रहा है। समूचे मध्य-पूर्व में युद्ध फैलाने की उसकी मंशा उसे खुद के अंत की ओर भी ले जा सकती है।
लेबनान पर इजरायली बमबारी के विरोध में प्रदर्शन
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को