मजदूरों-मेहनतकशों सावधान !

/majadooron-mehanatakason-saavadhaan

इस माह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उर्फ आर एस एस अपने सौवें वर्ष में प्रवेश कर जायेगा। आरएसएस ने एक लम्बा जीवन जी लिया है। और इस लम्बी आयु का आशीर्वाद आर एस एस को ऐसे लोगों की ओर से मिला है जो भारत के मजदूर-किसानों-मेहनतकशों के शोषक-उत्पीड़क रहे हैं। दूसरे शब्दों में आरएसएस को जन्म देने वाली और पालने वाली ताकतें घोर जनविरोधी प्रतिक्रियावादी ताकतें रही हैं। 
    
आरएसएस का जन्म भारत की गुलामी के दिनों में अंग्रेज साम्राज्यवादियों के आशीर्वाद से हुआ। हिन्दू पुनरुत्थानवादी नेताओं, राजे-रजवाड़ों, सामंत-जमींदारों की गोद में आरएसएस पला-बढ़ा। हिटलर, मुसोलिनी जैसे फासीवादी नेता इनके आदर्श थे। और ये इनके नस्ली विचारों की तरह ही भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते थे। ये हिन्दुओं को एक नस्ल मानते रहे हैं। 
    
यह एक सच्चाई है कि भारत को धर्म के आधार पर बांटने का सिद्धान्त पहले पहल हिन्दू पुनरुत्थानवादी नेताओं ने ही रखा था। इन नेताओं में एक प्रमुख हिन्दू पुनरुत्थानवादी नेता-विचारक अरविन्द घोष के नाना राजनारायण बसु से लेकर नाभा गोपाल मिश्र, बंकिम चन्द्र चटर्जी, महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, भाई परमानन्द, लाला लाजपत राय, बी.एस मुंजे, लाला हरदयाल, तिलक, मदनमोहन मालवीय, सावरकर आदि शामिल थे। 
    
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-59) के बाद अंग्रेजों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वे भारत में अपना राज तभी लम्बे समय तक कायम रख सकेंगे जब वे भारत में धार्मिक उन्माद व साम्प्रदायिकता का विष वृक्ष बोयेंगे। और इसके लिए धूर्त अंग्रेजों ने एक से बढ़कर एक चालें चलीं। हिन्दू पुनरुत्थानवाद, धार्मिक उन्मादी और मुस्लिम कट्टरपंथी उनकी चालों के स्वाभाविक परिणाम थे। हिन्दू पुनरुत्थानवादियों में से कुछेक को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश भारत को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों को नहीं बल्कि मुसलमानों व ईसाइयों को देश का दुश्मन घोषित करते थे। सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर तो उस समय अंग्रेजों के शासन की पैरवी व सुरक्षा कर रहे थे जब भारत की जनता ने ‘‘भारत छोड़ो’’ का जुझारू आंदोलन इनके खिलाफ छेड़ा हुआ था।
    
भारत की आजादी की लड़ाई के दिनों का आरएसएस का इतिहास काले कारनामों से भरा पड़ा है। इनका राष्ट्रवाद न तो अंग्रेजों के खिलाफ और न क्रूर सामंत-जमींदारों, राजे-रजवाड़ां, पण्डों-पुरोहितों के खिलाफ था। इनके राष्ट्रवाद का केवल एक ही मतलब था मुसलमानों व ईसाइयों को किसी भी सूरत में भारत से खदेड़ा जाए। और अगर ऐसा संभव नहीं हुआ तो उनको बेजुबान, अधिकारविहीन दोयम दर्जे के निवासियों में बदल दिया जाए। वे सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओं के रहम पर ही भारत के भीतर जिन्दा रह सकते थे। 
    
आरएसएस का ऐसा हिन्दू राष्ट्र का लक्ष्य भारत की आजादी की लड़ाई के दिनों में पूरा न हो सका। लेकिन इन्होंने भारत को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंकने और देश के बंटवारे के समय जबरदस्ती-मुसलमानों को लक्ष्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आरएसएस, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, जमाते-इस्लामी आदि एक ही थैले के चट्टे-बट्टे थे। हिन्दू राष्ट्रवादी और मुस्लिम राष्ट्रवादी भले ही कितने एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलते हों परन्तु दोनों का अस्तित्व, विकास और भविष्य एक-दूसरे की वजह से ही था। और ये दोनों ही अंग्रेजों और राजे-रजवाड़ों के रहमोकरम पर जिन्दा थे। हेडगेवार व गोलवलकर उस जमाने में धूर्त-क्रूर हिन्दू राजे रजवाड़ों के अतिथि होते थे और वे इनकी इतने अच्छे ढंग से मेजबानी करते थे कि ये कभी भी उनके द्वारा प्रजा पर किये जाने वाले अत्याचार, शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोलते थे। आज भी आरएसएस को इन सामंत-जमींदारों, राजे-रजवाड़ों की परजीवी औलादों का भरपूर समर्थन हासिल है। भाजपा के ढेरों सांसद कभी ग्वालियर रजवाड़े, कभी टिहरी का राजा तो कभी जयपुर की कोई रानी की औलाद हैं। 
    
भारत को एक हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने का लक्ष्य आरएसएस ने कभी भी नहीं त्यागा। ये आज भी इस राग को अलापते रहते हैं। भारत को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने के लिए ये आज जिस तौर-तरीके पर जोर देते हैं, वह हैं चुनाव के जरिये सफलता हासिल कर भारत की संसद में दो-तिहाई बहुमत हासिल कर, संविधान में पूर्ण बदलाव करना। चुनाव में जीत हासिल करने के लिए ये भारत में तीव्र धार्मिक ध्रुवीकरण का रास्ता अपनाते हैं। भारत में तीव्र धार्मिक ध्रुवीकरण हो इसके लिए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत से लेकर संघ-भाजपा के नेता रोज एक नया विवाद पैदा करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष नड्डा, यूपी मुख्यमंत्री योगी, असम मुख्यमंत्री हिमंत सरमा आदि के चुनावी भाषण तो एकदम साम्प्रदायिक होते हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से मुसलमानों व ईसाईयों के खिलाफ लक्षित होते हैं। और ऐसा ही काम भाजपा द्वारा नियुक्त उपराष्ट्रपति से लेकर राज्यपाल अपने संवैधानिक पद को एक ओर रखकर भी करते हैं। कभी कोई एक कुछ कहता है तो कभी कोई दूसरा कुछ कहता है। जिसका मतलब एक ही होता है। भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदला जाए। 
    
इनका हिन्दू राष्ट्र क्या होगा? इनका हिन्दू राष्ट्र वैसा ही होगा जैसा हिटलर का जर्मन राष्ट्र था। नाजीवादी हिटलर ने धार्मिक अल्पसंख्यक यहूदियों का कत्लेआम महज इसलिए कर दिया था क्योंकि यहूदी हिटलर के हिसाब से शुद्ध आर्य रक्त के जर्मन नहीं थे। और हिटलर के हिसाब से दुनिया के एक मात्र शासक शुद्ध आर्य रक्त वाले जर्मन ही हो सकते थे। आरएसएस के प्रमुख के मुंह से ऐसी ही मिलती-जुलती बात आये दिन सुनी जा सकती हैं। इनके यहां नस्ल का स्थान हिन्दू धर्म ले लेता है। और इनके दावे के अनुसार हिन्दू धर्म ही दुनिया का सबसे पुराना, सबसे शुद्ध धर्म है बाकी सब तो पंथ या सम्प्रदाय हैं। और इनके हिन्दू राष्ट्र में हिन्दुओं का ही स्थान सर्वप्रथम होगा क्योंकि इनके अनुसार भारत हिन्दुओं की न केवल मातृभूमि है बल्कि पुण्यभूमि भी है। मातृभूमि और पुण्यभूमि का फर्जी सिद्धान्त इन्होंने गढ़ा ही इसलिए ताकि मुसलमानों और ईसाइयों को निशाना बनाया जा सके। क्योंकि इनके फर्जी सिद्धान्त के हिसाब से मुसलमान और ईसाई उस देश में भी अवांछित हो जायेंगे जहां वे बहुमत में हैं यानि इण्डोनेशिया, मलेशिया, पाकिस्तान, ब्राजील इत्यादि। और फिर उन भारतीयों का क्या होगा जो अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया में बसे हैं। 
    
आरएसएस-भाजपा की पूरी विचारधारा, सोच, राजनीति झूठ और फरेब से भरी है। इनका राष्ट्रवाद फर्जी सिद्धान्तों पर खड़ा है। और यह राष्ट्रवाद मजदूरों-मेहनतकशों के हितों के स्थान पर देशी-विदेशी पूंजी और भारतीय समाज के घोर प्रतिक्रियावादी तत्वों की रक्षा करता है। इनके राष्ट्रवाद की जो कोई गहराई से छानबीन करेगा वह पायेगा कि इसमें जातिवाद, नस्लवाद, मर्दवाद, धार्मिक पाखण्ड-प्रपंच, अन्य धर्मों के प्रति गहरी घृणा व आक्रामकता कूट-कूट कर भरी है। सरल शब्दों में इनके राष्ट्रवाद का मतलब- पाकिस्तान-बांग्लादेश के साथ रात-दिन अलग-अलग ढंग से मुसलमानों को गाली देना है।     
    
हम भारत के मजदूर-मेहनतकशों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा है कि हम क्या ऐसे हिन्दू राष्ट्र को कभी स्वीकार करेंगे जहां एक मजदूर-मेहनतकश को धर्म या जाति के नाम पर कत्ल कर दिया जायेगा या फिर बेजुबान व्यक्ति में बदल दिया जायेगा। क्योंकि इनका हिन्दू राष्ट्र जितना धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ है उतना ही मजदूरों-मेहनतकशों के भी खिलाफ है। हिटलर ने यहूदियों का कत्लेआम किया तो उसने आम जर्मनों को युद्ध मशीन का चारा बना दिया था। या तो मजदूरों को रात दिन युद्ध के लिए सामग्री बनानी पड़ती थी। या फिर रात-दिन हिटलर के फासीवादी सिपाही बन कर लड़ना पड़ता था। याद रहे दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी के 90 लाख लोग मारे गये थे।  

 

इसे भी पढ़ें :-

1. ‘हिन्दू राष्ट्र’ की ओर एक और कदम

2. संघी राष्ट्र हित सर्वोपरि है

 

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।