हाथरस में एक धार्मिक समागम में मची भगदड़ में 121 लोग मारे गये। मारे गये लोगों में अधिकांश औरतें और बच्चे हैं। मारे गये लोगों में से अधिकांश सामान्य मजदूर-मेहनतकश परिवारों में से हैं। इस भगदड़ के लिए आयोजकों और प्रशासकीय अधिकारियों को ‘‘जिम्मेदार’’ मानकर उन पर कार्यवाही अब सरकार द्वारा की जा रही है। मृतकों के परिवारजनों के आंसू, सरकार ‘‘मुआवजे’’ की राशि से पोंछ रही है। जिस बाबा साकार नारायण हरि उर्फ भोलेबाबा का यह समागम था उस पर हाथ डालने की हिम्मत योगी या मोदी सरकार की नहीं है। स्थिति यह है कि विपक्षी पार्टियां, समाजवादी पार्टी या कांग्रेस भी बाबा का नाम लेने से बच रही हैं। सिर्फ टीवी चैनल ही बाबा के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और इस मोर्चे के पीछे इन चैनलों के मालिक व पत्रकारों का पूर्वाग्रह और जातीय दम्भ अपनी भूमिका निभा रहा है। क्योंकि बाबा जाटव जाति बिरादरी से हैं इसलिए उनके लाखों अनुयाइयों के कारण पक्ष-विपक्ष नाम नहीं ले रहा है और इसी विशेष कारण से टी.वी. चैनल उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। (सिर्फ इसी कारण से मायावती ही बाबा पर अपने वोट बैंक के कारण हमलावर है)। अन्यथा पाखण्डी-प्रपंचियों का और उसमें सवर्ण पृष्ठभूमि वालों का तो पूरा बोलबाला है। एक से बढ़कर पाखण्डी अपनी धार्मिक दुकानें पूरे भारत में खोले हुए हैं। कोई धर्म के नाम पर, कोई योग के नाम पर तो कोई आयुर्वेद के नाम पर अपना धंधा चमका रहा है।
भारतीय समाज में पिछले तीन-चार दशकों में बाबा परिघटना ने बड़ी तेजी से प्रसार किया है। एक के बाद एक बाबा के काले चिट्ठे खुलते रहे परन्तु रोज-रोज नये बाबा पैदा होते रहे हैं। और कुछ बाबा जो इस वक्त सलाखों के पीछे अपने काले-कारनामों की वजह से हैं, उनका ऐसा असर अपने भक्तों-अनुयाइयों पर है कि वे इसकी परवाह किये बगैर उन्हें पूजते ही रहते हैं। आसाराम बापू, राम-रहीम जैसे बाबाओं के जेल में होने के बाद भी अनुयाइयों की संख्या कम नहीं हुयी है। दोनों पर बलात्कार के आरोप सिद्ध हुए हैं परन्तु भक्त इसे साजिश मानकर नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे अनगिनत बाबा, तांत्रिक, ओझा, गुरू पूरे देश में हैं।
क्या वजह है जो ऐसे धार्मिक ठग आराम से जनता को ठगते-लूटते हैं और इनमें से अधिकांश का बाल भी बांका नहीं होता है। और मजे की बात है कि मरने के बाद ये और परम पूज्य हो जाते हैं।
गौर से देखा जाये तो ये सारे बाबा सत्ता के संरक्षण में पलते हैं। शासक वर्ग द्वारा इन्हें पाला-पोसा जाता है। ये बाबा अलग-अलग वर्गों से सम्बन्धित होते हैं। कुछ अंग्रेजी में प्रवचन देते हैं और उनके अनुयाई ऊपर के तबके के लोग होते हैं। ये अभिजातों की भावनाओं को उन्हीं की इच्छा से उनकी भाषा में, उन्हीं की संस्कृति के अनुरूप तुष्ट करते हैं। पांच सितारा होटल इनके प्रवचन स्थल होते हैं। और स्वयं इनके आश्रम आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस होते हैं। भगवान रजनीश से लेकर श्री श्री रविशंकर जैसे बाबा ऐसे ही हैं।
इसी तरह मध्यम-निम्न मध्यम वर्ग के अपने बाबा हैं तो गरीब मजदूरों-मेहनतकशों के अपने बाबा हैं। इन आधुनिक बाबाओं के अलावा आम लोगों के अपने परम्परागत ओझा, तांत्रिक, गुरू, पुरोहित, पीर आदि-आदि हैं।
एकदम नीचे के परम्परागत ओझा, तांत्रिक आदि को छोड़ दिया जाये तो आधुनिक बाबाओं के विभिन्न राजनैतिक दलों और उनके नेताओं से विशेष सम्बन्ध होते हैं। नेता बाबाओं की मदद करते हैं और बाबा नेताओं के वोट बैंक का ख्याल रख उनकी मदद करते हैं। परस्पर लेन-देन से चलने वाला यह सम्बन्ध दोनों के हितों का एक-दूसरे के द्वारा ध्यान देने से गहराता है। बाबाओं की सम्पत्ति, पाखण्ड-प्रपंच से लेकर काला धंधा और यहां तक कि सामाजिक अपराध सत्ता या नेताओं के द्वारा छुपाये व संरक्षित किये जाते हैं।
गौर से देखा जाये तो ये नेता और बाबा दोनों ही अपने-अपने ढंग से मजदूर-मेहनतकश जनता से लेकर खाते-पीते अनुयाइयों को ठग और छल रहे होते हैं। एक राजनीति के क्षेत्र में ऐसा करता है तो दूसरा धार्मिक-आत्मिक क्षेत्र में कर रहा होता है। और जहां तक शासक वर्ग -पूंजीपति व भूस्वामी वर्ग का सवाल है राजनेता क्योंकि इसी वर्ग से आते हैं तो इनका मामला यह होता है कि वे एक-दूसरे के हितों के लिए ठण्डे दिमाग और गणित से काम करते हैं। कुछ समय में ही हर प्रसिद्ध बाबा छोटे-बड़े पूंजीपति में तब्दील हो जाता है। और इस तरह मामला जम जाता है।
ठोस मिसाल पर गौर करें तो पिछले एक दशक से सत्ता के शीर्ष पर बैठे महाशय आराम से धार्मिक छल-प्रपंच के साथ अपने झूठे-झूठे वायदों से देश के मजदूरों-मेहनतकशों को ठग रहे हैं। इनमें अच्छे दिनों का वायदा हो या फिर हरेक के खाते में पन्द्रह लाख रु. का ख्वाब हो या फिर दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष का मामला हो या फिर किसानों की आय 2022 तक दोगुना करने की बात हो। ये महाशय जो काम राजनैतिक-सामाजिक जगत में कर रहे हैं वही काम अपने बदले रूप में बाबा भी करते हैं। वह कहता है कि उसके पास दैवीय शक्ति है जिसके दम पर वह किसी की बीमारी ठीक कर सकता है तो किसी की किस्मत बदल सकता है। इन बाबाओं के पास गृहकलह से लेकर पुत्र रत्न तक की समस्याओं का समाधान मौजूद होता है।
जैसे बाबाओं की आवक-जावक होती रहती है। पुराने ठग अपना प्रभाव खो देते हैं तो नये ठग, नया वेश धारण कर, नयी बातों के साथ अपना धंधा चालू करते हैं। ठीक यही राजनैतिक क्षेत्र में भी घटता है। एक नेता की जगह दूसरा नेता। एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी। एक का जादू उतरता है तो दूसरे का जादू चढ़ता है।
और यहां पर खास बात यह है कि राजनैतिक व धार्मिक ठगों का ग्राफ त्यों-त्यों चढ़ता है ज्यों-ज्यों आम मजदूरों-मेहनतकशों की जिन्दगी में तबाही-बर्बादी बढ़ती है। राजनेता नये नारे गढ़ते हैं तो बाबा नये चमत्कार की कहानी चलाते हैं। राजनीति घोर प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी हो जाती है और ऐसी अवस्था में धार्मिक पाखण्ड-प्रपंच का बोलबाला हो जाता है। और जब देश का प्रधानमंत्री ही पाखण्ड, प्रपंच का सिरमौर बन जाये तो फिर क्या कहियेगा। राजनीति और धर्म का बेहद जहरीला रसायन मजदूरों-मेहनतकशों के हलक में जबरन उतारा जाता है। वे बेसुध रहें और चुपचाप अपना शोषण-उत्पीड़न कराते रहें। राजनेता इसमें अपना काम करते हैं और बाबा अपने ढंग से इसमें अपना काम करते हैं। आज के प्रधानमंत्री की स्थिति में तो राजनेता और बाबा एक दूसरे में समा गये हैं। चुनाव प्रचार के समय राजनेता और बाबा का खेल साथ-साथ बड़ी कलाकारी के साथ खेला जाता है। देश के प्रधानमंत्री का चुनाव परिणाम के पहले किसी गुफा या किसी शिला में तपस्या का प्रपंच अपनी बात आप कह देता है।
भारत में आम मजदूर-मेहनतकश लगातार ठगे और छले जा रहे हैं और उनका जीवन गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, अभाव, बीमारियों के दलदल में फंसा हुआ है। जैसे ही उन्हें अपनी समस्याओं के हल का कोई रास्ता किसी नेता अथवा बाबा में दिखाई देता है तो वे उसके पीछे हो लेते हैं। ऐसे में क्या रास्ता निकल सकता है? और भी बुरी बात यह है कि भारत के मजदूरों-मेहनतकशों की सच्चे अर्थों में सेवा या उसका प्रतिनिधित्व करने वाली कोई पार्टी अथवा संगठन नहीं है। जो कुछ संगठन या ग्रुप हैं उनका व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी से कोई जीवंत और व्यापक सम्बन्ध नहीं है। अधिक से अधिक स्थानीय आधार है। देशव्यापी आधार नहीं है।
ऐसे में रास्ता तो यही है कि राजनैतिक या धार्मिक ठगों की पोल खोली जाये और व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी को मुक्ति की उस राह पर चलने का आह्वान किया जाये जो किसी समय शहीद भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने किया था। मजदूरों-मेहनतकशों की मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक वे स्वयं आगे नहीं आते हैं।
मजदूरों-मेहनतकशों की बस्ती में ठगों का डेरा
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।