
इस समय देश में एक ऐसा प्रधानमंत्री है जिसे विदेश विभाग के गंभीर मामलों से संबंधित जानकारी भी अखबारों की रिपोर्ट से मिलती है। और जब प्रधानमंत्री ऐसा हो तो विदेश मंत्री का भी ऐसा हो जाना स्वाभाविक है।
हुआ यूं कि 31 मार्च को देश के बड़े पूंजीपतियों के अखबार टाइम्स आव इण्डिया ने एक खबर छापी। यह खबर तमिलनाडु के भाजपा अध्यक्ष द्वारा सूचना अधिकार कानून के तहत विदेश विभाग से हासिल की गई जानकारियों पर आधारित थी। इस खबर में दावा किया गया कि 1974 में तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने तमिलनाडु के पास स्थित छोटे से द्वीप कच्छतीवु को श्रीलंका को तोहफे में दे दिया था। यह भारत की संप्रभुता का कांग्रेसी सरकार द्वारा उल्लंघन था।
इस खबर के तथ्य ध्यान देने योग्य हैं। खबर छपती है मोदी और उनकी सरकार के पक्के समर्थक अखबार में। खबर का आधार है एक भाजपा नेता द्वारा सूचना अधिकार के तहत जुटाई गई जानकारी। जानकारी प्रदान करने वाला है भारत का विदेश मंत्रालय जो इस समय स्वयं इसी भाजपा के नियंत्रण में है।
इसके बाद जो हुआ उसे प्रहसन ही कहा जा सकता है। देश के प्रधानमंत्री ने एक्स या ट्विटर पर यह लिखा :
‘‘आंख खोल देने वाली और हैरान कर देने वाली बात सामने आई है। नये तथ्य बताते हैं कि कैसे कांग्रेस ने कच्छतीवु द्वीप श्रीलंका को दे दिया। इससे सभी भारतीयों में गुस्सा है। और लोगों के दिमाग में फिर से यह बात साफ हो गई है कि वह कांग्रेस पर यकीन नहीं कर सकते। भारत की एकता को कमजोर करना, भारत के हितों को नुकसान पहुंचाना कांग्रेस के 75 साल के कामकाज का तरीका रहा है।’’
उसी दिन मेरठ में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने यह कहा :
‘‘आज ही कांग्रेस का एक और देश विरोधी कारनामा सामने आया है। तमिलनाडु में समुद्र तट से कुछ किलोमीटर दूरी पर तमिलनाडु और श्रीलंका के बीच समुद्र में एक टापू है- कच्छतीवु। ये सुरक्षा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। ये देश की आजादी के समय भारत के साथ था। लेकिन चार-पांच दशक पहले इन लोगों ने कह दिया कि ये द्वीप फालतू है, जरूरी ही नहीं है। इस तरह इंडी एलायंस के गठबंधन के लोगों ने मां भारती का एक अंग काट दिया।’’
अब अपने आका की इस तरह की बातों के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर क्यों पीछे रहते। उन्होंने यह कहा :
‘‘डी एम के और कांग्रेस ने ऐसे बर्ताव किया है कि सब कुछ अब केन्द्र सरकार के हाथ में है और उन्होंने कुछ किया ही नहीं है। इस पर बात इसलिए हो रही है क्योंकि लोगों को जानना चाहिए कि ये विवाद शुरू कैसे हुआ। इस द्वीप को लेकर संसद में कई बार सवाल पूछे गये हैं।
‘‘मैंने खुद 21 बार तमिलनाडु सरकार को जवाब दिया है। जून 1974 में विदेश सचिव और तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि के बीच बातचीत हुई। कच्छतीवु पर भारत और श्रीलंका के अपने दावे हैं।’’
विदेश मंत्री ने अपने आका की चाटुकारिता में कोई कसर नहीं छोड़ी पर उन्होंने जो बातें कहीं उन्होंने उनके आका के दावों का खंडन कर दिया। कच्छतीवु मामले में नयी जानकारी वाली कोई बात नहीं है। 1960 के दशक से ही यह मुद्दा चर्चा में रहा है, खासकर तमिलनाडु में। जैसा कि विदेश मंत्री ने कहा है, संसद में इस पर कई पर सवाल पूछे गये हैं और सरकार ने हमेशा आधिकारिक जवाब दिया है। डी एम के हमेशा से इस समझौते का विरोधी रहा है।
यही नहीं अभी हाल में यानी 2015 में जब यही जयशंकर विदेश सचिव थे, विदेश मंत्रालय ने सूचना अधिकार के एक आवेदन के जवाब में यह कहा था कि कच्छतीवु द्वीप के पास के क्षेत्र का सीमांकन नहीं किया गया था और जब 1974 में भारत-श्रीलंका के बीच समझौते के तहत सीमांकन हुआ तो यह द्वीप श्रीलंका के क्षेत्र में पड़ा। यानी भारत सरकार ने किसी तोहफे के तहत इसे श्रीलंका को नहीं दिया था।
अब सवाल उठता है कि जब तथ्य ऐसे हों तो विदेश विभाग के ऐसे गंभीर मामले में मोदी और उसकी सरकार यह घटिया खेल क्यों खेल रही है? क्यों वह ‘मित्र’ कहे जाने वाले देश के खिलाफ माहौल बना रही है?
इसका सीधा सरल जवाब यही है कि यह तमिलनाडु के मतदाताओं को चुनावों में लुभाने के लिए किया जा रहा है जहां कांग्रेस व डी एम के का गठबंधन है। यानी चुनावों में जीत की खातिर एक ‘मित्र’ देश से संबंध खराब करने में भी मोदी एण्ड कंपनी को गुरेज नहीं। श्रीलंका में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई भी है।
लेकिन अंदरूनी मसला शायद थोड़ा और गंभीर है। मोदी एण्ड कंपनी ने चुनावों से इतर भी इस मुद्दे के जरिये कुछ हासिल करने की योजना बनाई है। इसका संकेत इस बात से मिलता है कि अभी हाल में जनता विमुक्ति पेरूमुना (जे वी पी) के मुखिया भारत आये थे और मोदी सरकार ने उनकी काफी आवभगत की। यानी मोदी सरकार श्रीलंका में कोई नई खिचड़ी पका रही है। यह सब कुछ श्रीलंका में चीन के बढ़ते दखल के मद्देनजर हो सकता है।
मोदी एण्ड कंपनी की असली मंशा चाहे जो हो, इतना तय है कि इस सबका परिणाम कोई अच्छा नहीं निकलेगा। इससे श्रीलंका से भारत के संबंध और खराब होंगे। इसकी छाया अन्य पड़ोसी देशों से भारत के संबंधों पर भी पड़ेगी जो मोदी राज में वैसे भी कोई अच्छे नहीं रह गये हैं। सारी दुनिया में भारत का डंका बजवाने का दावा करने वाले मोदी अपने पड़ोसी देशों में भी तिरछी नजर से देखे जा रहे हैं।
पर इसमें कुछ भी अचरज की बात नहीं है। जैसा कि स्वयं मोदी कहते हैं- मोदी है तो मुमकिन है!