न्यायपालिका का भेदभावपूर्ण रवैय्या
कानून की महिमा का बखान करते हुए अक्सर ही सुना जाता रहा है कि ‘कोई भी चाहे जितना ऊंचा क्यों न हो कानून से ऊपर नहीं है’। अक्सर न्यायधीश भी इस बात को जब तब अपने फैसलों में सुनाते रहते हैं। पर क्या वास्तव में यही सच भी है या नहीं? निचली अदालतों में पैसों-सिफारिशों पर होते न्याय से सभी जानते हैं कि यह सच नहीं है यहां पैसे व सिफारिश से कानून से ऊपर लोग उठते रहते हैं। पर क्या सुप्रीम कोर्ट के मामले में यह बात ठीक साबित होती है?
बीते दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल को शराब घोटाले में गिरफ्तार किया गया। उनकी जमानत याचिका लगाते हुए वकीलों ने कहा कि ईडी के पास केजरीवाल पर लाभ पहुंचाने का सबूत नहीं है, कि इसी मामले में एक आरोपी ने भाजपा को जब 60 करोड़ के चुनावी बांड दिये तो उसके पिता को भाजपा का टिकट व उसे जमानत मिल गयी। व एक को सरकारी गवाह बनने व आप नेताओं के खिलाफ बयान देने पर जमानत मिली। पर न्यायमूर्ति स्वर्णकांत शर्मा ने केजरीवाल की जमानत याचिका खारिज करते हुए कहा कि सरकारी गवाह बनाना न्यायिक प्रक्रिया है, किसी एजेंसी की कार्यवाही नहीं है व कौन चुनावी बाण्ड किसे देता है व किसका टिकट पाता है यह अदालत की चिंता नहीं है। अतः केजरीवाल चाहे जितने ऊंचे हों कानून से ऊंचे नहीं हैं।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांत शर्मा ने न्यूजक्लिक के संस्थापक पुरकायस्थ की जमानत याचिका पर 16 फरवरी को सुनवाई करते हुए अगली तारीख 10 जुलाई डाल दी। इस मामले में न्यूजक्लिक पर चीन समर्थक प्रचार का आरोप है। दिल्ली पुलिस ने पीठ को खुद को नोटिस न जारी करने को कहा था जिसे ठुकराते हुए न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि मैं दिल्ली पुलिस को नोटिस नहीं जारी करूंगा तो उसके जवाब को देखूंगा कैसे। हालांकि अगली सुनवाई लगभग 5 माह बाद डालना अदालत का रुख स्वयं ही स्पष्ट कर देता है। इस तरह पुरकायस्थ की जमानत याचिका पर उनकी गिरफ्तारी (7 अक्टूबर 23) से लगभग 9-10 माह से पूर्व जमानत याचिका पर सुनवाई पूरी होने की कोई उम्मीद नहीं है। हो सकता है यह समय और अधिक हो।
एक भिन्न पीठ ने जे एन यू के छात्र उमर खालिद को 4 वर्ष से जेल में रखा है और 4 वर्ष में पीठ खालिद की जमानत याचिका पर निर्णय नहीं ले पाई। अंत में खालिद के खुद ही याचिका वापस लेने की खबर आई। उक्त तीनों मामलों में अदालत का एक सा रुख दिखलाई पड़ता है।
पर अब एक भिन्न मामले को देखें। उड़ीसा की बीजू जनता दल के संस्थापक सदस्य दिलीप रे एक दिग्गज नेता हैं। बीजद को भाजपा के करीब लाने में इनकी बड़ी भूमिका रही। वाजपेयी सरकार में ये केन्द्रीय मंत्री भी रहे। 1999 में उन पर कोयला मंत्री रहते घोटाले का आरोप लगा। अक्टूबर 2020 में एक ट्रायल कोर्ट ने उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में 6 वर्ष की सजा सुनाई। अतः वे संसद-विधानसभा का चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित हो गये। दिलीप रे ने 4 वर्ष तक ट्रायल कोर्ट के निर्णय को चुनौती नहीं दी। पर 2024 चुनाव निकट आते ही उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील कर दी। इसके बाद उड़ीसा में उनके राउरकेला विधानसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार के बतौर लड़ने की घोषणा हो गयी। पर हाईकोर्ट ने उनकी सजा जारी रखी अतः वे चुनाव लड़ने से अयोग्य हो गये। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
9 अप्रैल को जिस दिन न्यायमूर्ति स्वर्णकांत शर्मा ने केजरीवाल की याचिका खारिज की उसी दिन उन्होंने दिलीप रे की ऊंची उम्र का ख्याल करते हुए दिलीप रे की सजा पर रोक लगा दी। तर्क था कि अगर उनकी सजा पर रोक नहीं लगायी जाती तो 71 वर्षीय दिलीप रे के 35 वर्ष लम्बे राजनैतिक कैरियर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि वे चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। न्यायमूर्ति ने कहा कि अगर उनकी सजा को निलम्बित नहीं किया गया और बाद में उन्हें बरी कर दिया गया तो उन्हें हुए नुकसान की भरपाई नहीं होगी।
न्यायमूर्ति के उक्त भोले तर्क केजरीवाल से लेकर पुरकायस्थ-खालिद सब पर लागू हो सकते हैं। जेल में रहते केजरीवाल चुनाव प्रचार नहीं कर पायेंगे। पुरकायस्थ जो उम्र में दिलीप रे से काफी बड़े हैं हो सकता है जेल में ही बीमार पड़ जायें और खालिद को तो जवानी के कीमती वर्ष जेल में बिताने पड़े हैं। इन सब बातों के आधार पर सबको जमानत मिल सकती थी। पर ऐसा नहीं हुआ।
क्या सत्य यही नहीं है कि दिलीप रे भाजपा नेता हैं इसलिए वस्तुतः कानून से ऊपर हैं व शेष को भाजपा जेल में रखना चाहती है इसलिए वे जेल में हैं। न्यायपालिका अपने इस पक्षपाती रुख को छुपा नहीं सकती।