मोदी सरकार के दस साल पूरे होने और लोकसभा चुनाव के मद्देनजर क्रांतिकारी जन संगठनों का जनवरी माह के मध्य से जारी व्यापक भंडाफोड़ प्रचार अभियान अपने दूसरे व अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका है, जिसमें अब विभिन्न संगठनों द्वारा लोकसभा प्रत्याशियों के नाम खुले पत्र जारी कर उन्हें कटघरे में खड़ा किया गया है।
इंकलाबी मजदूर केंद्र, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन, प्रगतिशील महिला एकता केंद्र और परिवर्तनकामी छात्र संगठन द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित इस भंडाफोड़ अभियान के पहले चरण में ‘‘मोदी सरकार के दस साल : आखिर देश किधर जा रहा है’’ शीर्षक से एक पुस्तिका एवं ‘‘मजदूरों-मेहनतकशों की लड़ाई को तेज करो’’ शीर्षक से एक पर्चा जारी किया गया और उत्तराखंड के गढ़वाल व कुमाऊं मंडल के विभिन्न शहरों, उत्तर प्रदेश के बरेली, बदायूं एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों व ग्रामीण इलाकों, हरियाणा के फरीदाबाद एवं गुड़गांव-मानेसर जैसे औद्योगिक शहरों एवं राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में व्यापक अभियान संगठित किया गया।
अभियान हेतु जारी पुस्तिका में मोदी सरकार के दस सालों का लेखा-जोखा लेते हुये तथ्यपरक ढंग से बताया गया है कि यह सरकार एकदम नंगे रूप में अडानी-अम्बानी सरीखे इजारेदार पूंजीपतियों के हितों को आगे बढ़ा रही है। इस सरकार द्वारा देश की जनता से किये गये वायदे-आश्वासन सभी खोखले साबित हुये हैं; देश की अर्थव्यवस्था के हाल खस्ता हैं और महंगाई-बेरोजगारी अपने चरम पर है। इस सरकार ने कोरोना काल में देश की जनता को अपनी मौत मरने को छोड़ दिया और इस विपदा की घड़ी में आपदा में अवसर की घिनौनी राजनीति करते हुये छात्र विरोधी नई शिक्षा नीति, किसान विरोधी तीन कानून और मजदूर विरोधी चार लेबर कोड पारित कर दिये; हालांकि किसानों ने अपने जबरदस्त आंदोलन के बल पर मोदी सरकार को किसान विरोधी तीनों कानून वापस लेने पर मजबूर कर दिया।
पुस्तिका में बताया गया है कि विगत दस वर्षों में महिलाओं के प्रति यौन हिंसा लगातार बढ़ती गई है और ऐसे अनेकों मामलों में सत्ता में बैठे भाजपाई सीधे तौर पर शामिल हैं। विगत दस वर्षों में दलितों पर भी नये सिरे से हमले हुये हैं; खासकर हिंदू-मुसलमान की सांप्रदायिक विषबेल लगातार बढ़ती गई है और मुसलमानों पर योजनाबद्ध हमले हो रहे हैं। साथ ही, दंगे प्रायोजित किये जा रहे हैं। सरकार का विरोध करने वाले लोगों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देशद्रोही करार देकर फर्जी मुकदमों में जेलों में ठूंसा जा रहा है। आज देश पर हिंदू फासीवादी बर्बरता का खतरा कहीं अधिक प्रत्यक्ष हो चुका है और जिसका मुकाबला चुनावी हार-जीत के बजाय मजदूर-मेहनतकश जनता की संगठित ताकत और संघर्ष के बल पर ही किया जा सकता है।
अभियान मुख्यतः मजदूर-मेहनतकश लोगों की बस्तियों- कालोनियों, दलित एवं मुस्लिम बहुल इलाकों, कालेज परिसरों एवं बाजार इत्यादि जगहों पर घर-घर, दुकान-दुकान जाकर एवं नुक्कड़ सभाओं के माध्यम से संचालित किया गया। अभियान के दौरान लोगों ने बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे पर खुलकर चर्चा की और इस पर सबसे अधिक आक्रोशित नजर आये। उम्रदराज लोगों और बूढ़े-बुजुर्गों ने अपना दर्द बयां करते हुये कहा कि पढ़-लिख कर भी लड़के बेरोजगार घर पर बैठे हैं, क्या करें? इस सवाल पर नवयुवकों से बात करने पर कहीं उन्होंने निराशा प्रदर्शित की तो कहीं सरकार के प्रति आक्रोश व्यक्त किया। जो नवयुवक सेना में भर्ती की तैयारी कर रहे हैं वे सभी अग्निवीर योजना के प्रति गुस्से से भरे थे, उनका कहना था कि इसे तुरंत रद्द किया जाना चाहिये।
मोदी सरकार की सांप्रदायिक वैमनस्य की राजनीति एवं मुसलमानों पर किये जा रहे हमलों पर बात करने पर मुस्लिम समुदाय के लोग बेहद आक्रोशित नजर आये। उन्होंने कहा कि कैसे भी हो ये सरकार तुरंत जानी चाहिये; हालांकि मुस्लिम समुदाय के लोगों की प्रतिक्रिया से स्पष्ट है कि वे हिंदू समुदाय के लोगों को अपना विरोधी नहीं मानते हैं, उनका स्पष्ट कहना है कि आर एस एस-भाजपा ने देश का माहौल खराब कर रखा है।
सांप्रदायिक राजनीति के मुद्दे पर हिंदू समुदाय के मेहनतकश लोगों से बात करने पर कुछ ही लोगों ने सरकार का खुले तौर पर समर्थन किया और ज्यादातर लोगों ने इस तरह की राजनीति के बजाय बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दों को अधिक जरूरी माना। हालांकि इन ज्यादातर लोगों पर खुद इस सांप्रदायिक राजनीति का असर भी स्पष्ट दिखाई दिया; ये लोग राम मंदिर बनने से जहां खुश दिखे वहीं बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई पर उन्होंने सरकार के प्रति अपना गुस्सा भी जाहिर किया।
दलित समुदाय में मोदी सरकार के प्रति सामान्यतः गुस्सा ही नजर आया; ज्यादातर का मानना था कि आर एस एस-भाजपा मनुवादी हैं और इनके शासन काल में दलितों का उत्पीड़न बढ़ा है।
दलित और मुस्लिम समुदाय का आम तौर पर एवं मध्यम व सवर्ण जातियों के हिंदू मेहनतकशों के भी एक हिस्से का यह मानना है कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हो रहे हैं, कि भाजपाई चुनावों में धांधली कर रहे हैं और ई वी एम मशीनों में गड़बड़ी कर चुनाव जीते जा रहे हैं। उन्होंने इस लोकसभा चुनावों में भी इसी तरह की गड़बड़ी किये जाने का अंदेशा जताया।
इस संयुक्त अभियान में अभी तक करीब 7000 पुस्तिकाओं का वितरण हो चुका है। जबकि मार्च मध्य से शुरू अभियान के दूसरे चरण में विभिन्न संगठनों- इंकलाबी मजदूर केंद्र, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन, प्रगतिशील महिला एकता केंद्र एवं परिवर्तनकामी छात्र संगठन तथा उत्तराखंड में भोजनमाताओं की यूनियन- प्रगतिशील भोजन माता संगठन और गुड़गांव-मानेसर की बेलसोनिका कंपनी की यूनियन द्वारा लोकसभा प्रत्याशियों के नाम अलग-अलग खुले पत्र जारी कर उन्हें कटघरे में खड़ा किया गया है।
इन खुले पत्रों में प्रत्याशियों से सवाल किये गये हैं कि आखिर वे मजदूर-मेहनतकश जनता के जीवन से जुड़े हुये मुद्दे क्यों नहीं उठाते? मजदूर विरोधी लेबर कोड्स, ठेकेदारी प्रथा, आशा, आंगनबाड़ी और भोजनमाताओं से कराई जा रही बेगारी, सांप्रदायिक राजनीति और मुसलमानों पर हमले, दलित उत्पीड़न की घटनाओं, छात्र विरोधी नई शिक्षा नीति, महिलाओं के प्रति बढ़ती यौन हिंसा, निजी स्कूलों और अस्पतालों की लूट, अतिक्रमण के नाम पर मजदूर-मेहनतकश जनों को उजाड़े जाने... इत्यादि मुद्दों पर क्यों मौन रहते हैं?
इन खुले पत्रों के माध्यम से सभी पूंजीवादी चुनावबाज पार्टियों व उनके प्रत्याशियों एवं निर्दलीय ही चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहे प्रत्याशियों को पूंजीपति वर्ग का चाकर बताते हुये इनके असली चरित्र का खुलासा किया गया है। मजदूर-मेहनतकश जनता, छात्रों-नौजवानों एवं महिलाओं के बीच इन खुले पत्रों को काफी सराहा जा रहा है। -विशेष संवाददाता
लोकसभा चुनाव पर व्यापक भंडाफोड़ अभियान जारी
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को