मोदी सरकार की घोषणा है कि 2025 तक भारत को टी बी से मुक्त कर दिया जाएगा। पहले की 2030 तक की समय सीमा को पांच वर्ष कम कर यह लक्ष्य लिया गया। लेकिन जैसा कि मोदी सरकार की आम कार्यप्रणाली है, घोषणा करने का मकसद सिर्फ हेडलाइन बनाना होता है और घोषणाओं का उठाए गए कदमों के साथ कोई साम्य नहीं होता। ऐसा ही टी बी मुक्त भारत बनाने की घोषणा का हाल है।
भारत टी बी के सबसे ज्यादा मरीजों वाला और टी बी से होने वाली सबसे ज्यादा मौतों वाला देश है। टी बी एक ऐसी बीमारी है जिसका सीधा संबंध निम्न सामाजिक आर्थिक स्थिति से है। कम पोषण या किसी अन्य वजह से किसी व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़़ जाने से ही वह इस बीमारी का शिकार होता है। समाज के आम पोषण के स्तर को बुनियादी जरूरत पूरा होने के स्तर तक लाने मात्र से भारत में टी बी मरीजों की संख्या में तीन चौथाई से ज्यादा की कमी की जा सकती है। सरकार के टी बी मुक्त भारत की घोषणा के बाद कोई भी सरकार से यही उम्मीद करेगा कि सरकार जनता के न्यूनतम पोषण को सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएगी। हर माह पांच किलो अनाज की खैरात बांटने के स्थान पर भरपेट पौष्टिक भोजन हर नागरिक का अधिकार माना जाएगा। इसके लिए सार्विक जन वितरण प्रणाली का ढांचा खड़ा किया जाना आज के युग में किसी भी सरकार के लिए चुटकियों में संभव किया जाने वाला मामला है। लेकिन मोदी सरकार ने यह सब करना तो दूर, टी बी मरीजों को मिलने वाली टी बी रोधी दवाओं की किल्लत भी पैदा कर दी है।
भाजपा को इलेक्टोरल बांड से जो पैसा मिला है, उसमें दवा कंपनियों के द्वारा दिया गया चंदा भी है। अब इसकी कीमत दवा कंपनियां अलग-अलग तरीके से देश की जनता से वसूल रही है। टी बी रोधी दवाओं की पिछले समयों में शुरू हुई किल्लत का इनसे किसी न किसी तरह का संबंध होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
18 मार्च को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक पत्र जारी किया। पत्र में चेतावनी दी गयी है कि ‘‘अप्रत्याशित और असंगत परिस्थितियों के कारण’’ टी बी रोधी दवाओं की आपूर्ति में देरी हो गयी है। कि वे अगले तीन माह के लिए या जब तक केन्द्रीय खरीद नहीं हो जाती, जरूरत के अनुसार दवाएं खरीद लें। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के फंड का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया है।
जमीनी स्थिति यह है कि देश के कई राज्यों में टी बी मरीजों को अपनी दवा की खुराक के लिए पिछले एक वर्ष में कई मौकों पर दर-दर भटकना पड़ा है। यह इस वजह से और गंभीर हो जाता है क्योंकि अगर कोई मरीज टी बी का आधा अधूरा इलाज कराता है तो उसकी बीमारी ऐसा रूप धारण कर लेती है जिसमें सामान्य टी बी रोधी दवाएं बेअसर हो जाती हैं। 2023 के अक्टूबर माह में भी जब इस तरह की स्थिति के लिए सरकार की आलोचना की गयी थी तो उस वक्त सरकार ने दवाओं की किल्लत होने की बात को ही खारिज कर दिया था और इसे सरकार को बदनाम करने के लिए दुष्प्रचार करार दिया। अगर सरकार समय से चेत जाती तो उसे दवाओं के स्थानीय स्तर पर खरीद संबंधी पत्र नहीं लिखना पड़ता।
यहां यह भी अंदेशा पैदा हो रहा है कि कहीं मोदी सरकार दवाओं की केन्द्रीय खरीद की अपनी जिम्मेदारी से ही तो पल्ला नहीं झाड़ना चाह रही। सरकार का अन्य मामलों में ऐसा ही रिकार्ड यह खतरा पैदा करता है।
टी बी रोधी दवाओं की खरीद जैसे संवेदनशील मामले में मोदी सरकार की लापरवाही और गैर जिम्मेदारी अत्यन्त चिंताजनक है। यह न सिर्फ टी बी मरीजों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है, बल्कि पूरी आबादी के टीबी संक्रमण के खतरे को बढ़ा देता है।
टी बी रोधी दवाओं की किल्लत
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।