नये वर्ष की पूर्व संध्या पर जश्न का माहौल होता है। जश्न मनाने वालों में वैसे तो सभी वर्ग-तबके के लोग होते हैं परन्तु पूंजीपतियों व उच्च मध्यमवर्गीय लोगों के लिए तो यह संध्या खास ही होती है। बीता वर्ष भी उन्हें खुशी दे गया होता है और आने वाला वर्ष उन्हें अपनी दौलत में इजाफे की नयी संभावना वाला लगता है। पूंजीवादी समाज में इस संध्या-रात्रि ने त्यौहार का सा दर्जा हासिल कर लिया है। चमक-दमक से भरा आधुनिक उपभोक्तावादी त्यौहार। ढोंग, पाखण्ड, बनावटीपन और औपचारिकता से सजा यह त्यौहार उन लोगों में उन्माद पैदा कर देता है जो इन चीजों में ही जीने के आदी हैं। <br />
मजदूर, किसानों सहित अन्य मेहनतकशों के लिए इस त्यौहार का क्या कोई महत्व है? यह गैरों का त्यौहार है। इसकी भौंड़ी नकल भी उनके लिए भारी पड़ जाती है। पूंजीवादी संस्कृति उनकी जेबों को और खाली और आत्मा को और पंगु बना देती है। मजदूर-मेहनतकश ‘पूंजीवादी समाज’ में किस चीज का जश्न मनायें? अपने शोषण का, गरीबी का, बेरोजगारी का, महंगाई का या फिर बढ़ते अपराधों का?<br />
वर्ष 2013 ने उन्हें ऐसा क्या दिया जिसके लिए वे किसी का शुक्र अदा करें। ऐसा क्या था इस वर्ष में जिससे उनके जीवन में रौनक आयी हो और वर्ष 2014 से वे ऐसी क्या उम्मीदें पालें जो पूरी होंगीं। बीते वर्ष ने भी उन्हें जख्म दिये और नया साल और बड़े जख्म देने को तैयार बैठा है। जश्न मनाने वालों की बात और है। वे 2013 से भी ज्यादा दौलत बटोरने का मंसूबा 2014 में बांध रहे हैं। <br />
भारत के मजदूरों व मेहनतकशों के लिए वर्ष 2013 कैसा रहा। मारुति के मजदूर जेल में ही बंद हैं। हरियाणा की सरकार का दमनचक्र और न्याय का पाखण्ड जारी है। पूरे देश में सैकड़ों की संख्या में मजदूर इस वर्ष फैक्टरियों में काम के दौरान मारे गये। कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है। बेरोजगार युवा स्थान-स्थान पर पुलिस की लाठियां खाते रहे। महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ते गये। नाजुक बचपन पूंजीवादी समाज के बहशीपन का शिकार होता रहा। 2012 के मुकाबले 2013 में साम्प्रदायिक दंगों की संख्या बढ़ गयी। दलित, आदिवासियों के साथ अपमान व हिंसा की अनगिनत घटनाएं घटीं। <br />
वर्ग सचेत मजदूर 2013 को याद करेगा तो ऐसी ही बातें उसके जेहन में आयेंगी। <br />
2014 से क्या उम्मीद पाली जायेगी? यह वर्ष भारत के समकालीन इतिहास में अति महत्वपूर्ण होने जा रहा है। लोकसभा चुनाव के पहले और चुनाव के बाद भारत के मजदूर-मेहनतकशों को पूंजीवादी समाज की विद्रूपताओं के अदभुत नजारे देखने को मिलेंगे। पूंजीवादी पार्टियों की घृणित राजनीति किसी अन्य वर्ष के मुकाबले इस वर्ष और चौंकाने वाले अंदाज में उजागर होगी। वर्ष के प्रारम्भ में उसे ठगा जायेगा और वर्ष के अंत आते-आते उसे अहसास होगा कि वह बुरी तरह से ठगा गया है। पूंजीवादी मदारी अपना खेल समेटकर अपनी ऐशगाहों में लुप्त हो चुके होंगे। तमाशबीन तो ढूंढ़े से भी नहीं मिलेंगे। लोकतंत्र का महान पर्व- आम चुनाव- जब संपन्न हो जायेगा तब उसके बाद बनने वाली सरकार उन सब मंसूबों को पूरा करेगी जिसका इंतजार जश्न मनाने वाले लोग कर रहे थे।<br />
भारत के पूंजीवादी एकाधिकारी घराने (टाटा, बिड़ला, अम्बानी, मित्तल, जिंदल आदि) ही नहीं बल्कि साम्राज्यवादी देश इस आम चुनाव के जरिये ऐसी सरकार चाहते हैं जो तेजी से आर्थिक सुधार लागू करे। वे तेजी से भारत की प्राकृतिक सम्पदा से लेकर विशाल श्रम शक्ति का दोहन करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि ऐसी सरकार बने जो विकास के पहिये को तेजी से घुमाये। <br />
पूंजीपतियों के लिए जो विकास का पहिया है वह भारत के मजदूरों के लिए तीव्र शोषण का पहिया है। वह मंझोले-छोटे किसानों के लिए घोर विनाश का पहिया है। वह आदिवासियों-वनवासियों के लिए दमन का बड़ा पहिया है। <br />
भारत के एकाधिकारी घराने इस विकास के लिए ‘स्थिर सरकार और सुशासन’ चाहते हैं। विकास, स्थिर सरकार और सुशासन के जितने भी नारे पूंजीवादी पार्टियों द्वारा लगाये जा रहे हैं वे पूंजीपतियों की बैलेंस शीट से निकले निष्कर्ष हैं। फिक्की, सीआईआई, एसोचैम जैसे पूंजीपतियों के संगठनों से उपजा वह मंत्र है जिसका जाप सारी पूंजीवादी पार्टियां कर रही हैं। हर पार्टी का घोषणापत्र इस मंत्र को अपने घोषणापत्र का आप्त वाक्य(मोटो) बनाने के लिए लालायित है। <br />
वर्ष 2014 भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के सामने दो तरह की चुनौतियां लेकर आ रहा है। एक चुनौती आम चुनाव के पहले और दूसरी आम चुनाव के बाद है।<br />
पहली चुनौती यह है कि वह भारतीय समाज में पूंजीवादी पार्टियों के चंगुल से कैसे भारत को निकाले। कैसे इन पार्टियों के चरित्र का भण्डाफोड करे कि मजदूर और मेहनतकश झूठे वायदों- आश्वासनों के जाल से अपने को मुक्त कर सही दिशा में आगे बढ़े। समाजवाद को हकीकत बनायें।<br />
दूसरी चुनौती यह है कि आम चुनाव के बाद शासक वर्ग की नीतियों और कुण्ठित योजनाओं को परवान चढ़ने से कैसे रोकें। और कैसे अपनी समस्याओं को ऐसी मुखरता और जुझारूपन से पेश करे कि शासक वर्ग की कुत्सित चालें नाकामयाब हो जायें। कैसे उन जश्न मनाने वालों के मंसूबों पर पानी फेर दे जो इस वर्ष अपनी दौलत में बेइंतहा इजाफा करना चाहते हैं।<br />
नये वर्ष को मजदूर-मेहनतकशों को इतिहास की रोशनी में भी देखने की सख्त जरूरत है। इस वर्ष प्रथम विश्व युद्ध (1914-1919) की सौवीं सालगिरह है। इस विश्व युद्ध में करोड़ों लोग मारे गये थे। इस युद्ध की वजह थी साम्राज्यवादी देशों में उपनिवेशों के लिए छिड़ा तीखा संघर्ष। इस विश्वयुद्ध के पीछे गम्भीर आर्थिक संकट भी था। मजदूर-मेहनतकशों को जहां युद्ध की विभीषिका को याद रखने की जरूरत है। वहां रूस के मजदूरों के ऐतिहासिक व अतुलनीय कृत्य अक्टूबर क्रांति जिसने पूंजीवाद के विकल्प के तौर पर समाजवाद को प्रस्तुत किया को भी याद करने की जरूरत है। बीसवीं सदी में वह पहला मजदूर राज था।<br />
जश्न मनाने वालों को यह बताने का वक्त आ गया है कि उनकी यह मश्ती, यह रोशनी, यह आतिशबाजी चंद दिनों की है। पूंजीवादी समाज गम्भीर रूप से बीमार है। वर्ष 2008 से शुरू हुआ वैश्विक आर्थिक संकट जारी है। जश्न मनाने वाले सोचते हैं कि एक मसीहा आयेगा और संकट गायब हो जायेगा। मसीहा आयेगा और ऐसा जादू बिखेरेगा कि स्थिर सरकार और सुशासन कायम हो जायेगा। कितने मूर्ख हैं जश्न मनाने वाले और कितना बड़ा मूर्ख है उनका मसीहा।
नया वर्ष
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।