नये साल में क्या करना है

    तारीखें रोज ही बदलती हैं। इन बदलती हुयी तारीखों के बीच एक साल बीत गया। नया साल आ गया। <br />
    होता इस मौके पर यह है कि जिनकी जेब में पैसा है वे जश्न मनाते हैं। तोहफे बांटते हैं। ‘नया साल मुबारक हो’ कहकर आशायें बांटते हैं और जमाने भर के सताये हुए गरीब, मजलूम, मेहनतकश अपने को वहीं पाते हैं जहां वे पहली रात, पहले दिन थे। <br />
    जो साल बीता है उसकी इबारत को पढ़ा जाये तो दुनिया में जश्न मनाने वालों के जश्न के दिन और ज्यादा नहीं हैं। दूसरों के शोषण से, ठगी और भ्रष्टाचार से अमीर बने जो लोग नये साल के जश्न में डूबे हैं वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि दुनिया तेजी से उस ओर बढ़ रही है जहां ये सब ज्यादा नहीं चलने वाला है।<br />
    पिछले साल दुनिया भर में इस व्यवस्था को चलाने वालों ने साबित किया कि वे कितने काबिल हैं। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने पूरी दुनिया में अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के चक्कर में इसे नये तनाव व युद्ध की दहलीज पर पहुंचा दिया। लातिन अमेरिका से लेकर कोरिया प्रायद्धीप तक अमेरिका के बददिमाग राष्ट्रपति ने बीते वर्ष में जो कदम उठाये वह बता रहे हैं कि नये वर्ष में अमेरिकी साम्राज्यवाद और घृणा की वस्तु बनेगा। <br />
    पिछले वर्ष विश्व आर्थिक संकट को दस वर्ष का लम्बा समय हो गया। इन दस वर्षों में साम्राज्यवादी इस आर्थिक संकट का कोई ठीक हल नहीं निकाल पाये। और उल्टे खुशफहमी की नयी कहानी गढ़ी गयी। ऐसा ही हमारे देश में हो रहा है। झूठी तसल्ली न तो उस वर्ग को संतुष्ट कर पा रही है जिसने उन्हें भारी उम्मीदों से सत्ता सौंपी और न उस वर्ग को जिससे किये अपने वायदों को बाद में उन्होंने जुमला साबित कर दिया। लेकिन पिछले साल तक ‘मोदी-मोदी’ करने वाले सुर थोड़े कमजोर हुये हैं। <br />
    राजनैतिक नेताओं के गिरते स्तर को अमेरिका के राष्ट्रपति के बयानों से लेकर भारत के गुजरात चुनाव के समय हुये गाली-गलौच में देखा जा सकता है। यानी देश-दुनिया में शासन करने वाले शासन करने के लिए दिनों दिन अयोग्य होते जा रहे हैं। वे शासन कर ले जा रहे हैं तो इसलिए कि उन्हें मजदूर-मेहनतकशों द्वारा बर्दाश्त किया जा रहा है। सही सबक नहीं सिखाया जा रहा है। मूर्ख हम पर शासन कर रहे हैं हम बर्दाश्त पर बर्दाश्त किये जा रहे हैं। <br />
    हमारे देश में सत्तारूढ़ पार्टी ने भले ही कई राज्यों में चुनाव बीते वर्ष में जीते हों पर उसके कारनामे बता रहे हैं कि चुनाव जीतने के लिये वे किस हद तक जायेंगे। इस वर्ष और आने वाले वर्ष में चुनाव में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिये ये नये-नये हत्याकाण्ड और प्रपंच रचेंगे। पहलू खान, जुनैद, अखलाक, अफराजुल की हत्यायें सनसनीखेज ढंग से की गईं और इनका प्रचार संघ-भाजपा के नेताओं-मंत्रियों-विधायकों द्वारा जिस ढंग से किया गया उससे उन्हें उतना ही मत लाभ और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में सफलता हासिल हुयी जितना पहले एक बड़े स्तर के दंगे को प्रायोजित करवा कर होती थी। <br />
    हत्यारों के गिरोह ने उन निर्भीक आवाजों को भी दबाने की कोशिश की जो इनके सामने चट्टान बन कर खड़ी थीं। गौरी लंकेश ने भारत के उन बहादुर व्यक्तियों की श्रेणी में अपना स्थान बनाया जो हमेशा से इस देश में रही है। यह परम्परा आदि काल के गार्गी, मक्खलि गोसाल, कबीर, भगत सिंह से लेकर आज के दिन तक कायम है। जब तक ऐसे जन हमारी धरती में पैदा होते रहेंगे तब तक कौन है जो भारत को हिटलर का जर्मनी बना दे। हमारा देश यदि शून्य की खोज कर सकता है तो उन्हें शून्य भी बना सकता है जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का मंसूबा पाले बैठे हैं।<br />
    भारत के मजदूर जाग रहे हैं। नौजवान जाग रहे हैं। दलित, आदिवासी जाग रहे हैं। स्त्रियां जाग रही हैं। यह बात बीते वर्षों ने साबित की है। वर्ष 2017 में इनकी मुखर होती आवाजों को चहुंओर से सुना जा सकता है। बात इतने भर की है कि इन आवाजों में इंकलाबी सुर पैदा करने की जरूरत है। आम जन के मन में यह बात बिठाने की जरूरत है कि उनकी मुक्ति का काम स्वयं उन्हें करना होगा। उन्हें खुद अपनी तकदीर लिखनी होगी। उन्हें खुद ही वह काम करना होगा जिसकी उन्हें जरूरत है। कोई मोदी, कोई गांधी, कोई बाबा उनके लिये कुछ नहीं करेगा। ये सब अमीरों के, पूंजीपतियों के एजेण्ट हैं। ये शोषण, उत्पीड़न, अपमान की जंजीरों से कभी उन्हें मुक्त नहीं होने देंगे।<br />
    जो बात हमारे देश के लिए सही और अच्छी है वही बात पूरी दुनिया के लिए भी है। पूरी दुनिया पूंजीवादी राजनैतिक नेताओं के छल-प्रपंचों, झूठ, बेशर्मी, तीन-तिकड़मों से आजिज आती जा रही है। उसे इन घृणित पूंजी के चाकरों ने मजबूर कर दिया है कि वे सड़कों पर उतरे। उन्हें सबक सिखाये। ये अनायास नहीं है कि फ्रांस में ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति बना जिसका कुछ आधार नहीं था। रातों-रात उसकी पार्टी वहां की संसद में बहुमत पा जाती है। इतिहास का चक्र शायद इसी तरह से पूरा होगा कि वह अब पूंजीपति वर्ग के हर नमून, हर जोकर को मौका देकर अंत में साबित कर देगा कि अब कुछ नहीं बचा है जो आजमाया जाये। अब अंत में ‘‘मजदूरों, शोषित-उत्पीड़ितों उठो! इन परजीवी, शोषकों को सजा सुनाओ, उन जुल्म, अत्याचारों की जो इन्होंने सदियों से तुम पर किये हैं’’।<br />
    साल दर साल बीत गये। बीतते जा रहे हैं। हमारे माथे पर लगे गुलामी के दाग नहीं मिटे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी से हमारी कौम की कौम बरबाद हो रही हैं। आपस में लड़ना, आत्महत्या करना, पूंजीवादी नेताओं के उकसावे में आना यह सब बंद करना होगा। <br />
    पिछले साल रूस के मजदूरों की क्रांति का सौवां साल था। सौ साल पहले ही रूस के मजदूरों ने दिखा दिया था कि समाजवाद ही पूंजीवाद का जवाब है। और जब रूस में पूंजी ने षड्यंत्र रचकर दुबारा पूंजीवाद ला दिया तो साबित हो गया कि मजदूर-किसान जो कल तक आजाद और तरक्की कर रहे थे वे फिर से गुलाम बन गये। शोषित-उत्पीड़ित बन गये। सबक यही निकला कि मजदूरों को फिर वही क्रांति करनी होगी जिनसे उनकी मुक्ति हुयी थी। यह इतिहास का सबक है जो हमें पिछले साल दुबारा याद दिलाया गया। नये साल में क्या करना है। साफ है इंकलाब करना है। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।