पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के मौके पर एक बार फिर पूंजीवादी व्यवस्था का विद्रूप दिखा। एक तरफ निर्वाचन आयोग आदर्श चुनाव संहिता का पालन करने के लिए अपने को तत्पर दिखाई देता है, चुनाव आयोग के उड़नदस्ते हर जगह मुस्तैद प्रचार सामग्री की जांच करने हेतु, छापामारी करते दिखाई देते हैं परन्तु मंच से तमाम राजनीतिक पार्टियों के नेता जनता को लुभाने हेतु एक से बढ़कर एक लोकरंजक नारे देते दिखाई दिए। हर महीने एक किलो देशी घी से लेकर लैपटाॅप, स्मार्ट फोन, मुफ्त इंटरनेट डाटा से लेकर प्रत्येक परिवार में एक व्यक्ति को रोजगार जैसी लोक लुभावन घोषणाएं मंच से बड़ी-बड़ी पार्टियों के नेता कर रहे थे। <br />
इसमें किसी को शक नहीं कि ये बातें स्पष्ट तौर पर मतदाताओं को दिये जाने वाले क्षुद्र प्रलोभन थीं। और यह सब चुनाव आयोग की आंख के सामने और नाक के नीचे हो रहा था। कई पार्टियां तो अपने चुनावी घोषणापत्र में ही ये प्रलोभन दे रही थीं लेकिन न तो अखबार या टी.वी. चैनलों को इसमें कुछ गलत नजर आता था और न ही निर्वाचन आयोग को। पूंजीवाद में चुनावों का स्तर किस हद तक क्षुद्र व पतित हो सकता है इस चुनाव ने इसे बखूबी उद्घाटित किया। उत्तराखंड चुनाव के समय कांग्रेस सरकार की एक वरिष्ठ नेता व शक्तिशाली मंत्री का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें वे वोटरों को उनको वोट न करने पर अंजाम भुगतने की धमकी देती दिखाई दीं तो दूसरी ओर जाति धर्म के नाम पर वोट न मांगने के चुनाव आयोग के निर्देश के बावजूद तमाम राजनीतिक पार्टियां इसका धडल्ले से उल्लंघन करती रहीं। विकास को अपना एजेण्डा घोषित करने वाली भाजपा ने वक्त की नजाकत के हिसाब से राम मंदिर का राग छेड़ने व उसे गरमाने के लिए कुछ सिपहसालारों को नियुक्त कर रखा था जो गाहे बगाहे मंदिर राग छेड़कर माहौल में साम्प्रदायिक जहर घोलने में मशरूफ थे ताकि एक हद तक हिंदू मतों का ध्रुवीकरण हो जाये। <br />
इस चुनाव में जिस बड़े पैमाने पर दल बदल हुए, एक पार्टी के बागी एक ही रात में दूूसरी पार्टी के सम्माननीय नेता बन गए और जिस तरह थोक के भाव हर पार्टी ने दूसरी पार्टी के बागियों को टिकट थमाया उससे एक बात साफ हो गयी कि आज तमाम राजनीतिक पार्टियों के लिए विचारधारा, मूल्य व नैतिकता व प्रतिबद्धता का कोई मतलब नहीं रह गया है। चुनाव में सीट निकालने की काबिलियत, चाहे उसके लिए कोई भी तिकड़म या चालबाजी की जाती हो, सबसे बड़ी काबिलियत है। ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की दुहाई देने वाली भाजपा ने 70 सीटों वाले उत्तराखण्ड में रिकार्ड दर्जन भर दल बदलुओं को टिकट दिये जिनमें ऐसे नेता भी थे जो कांग्रेस में भ्रष्टाचार के शिरोमणि माने जाते थे। <br />
इस चुनाव में एक चीज, पूर्वोत्तर के प्रति तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया की सचेतन उपेक्षा नजर आयी। विभिन्न विधानसभाओं के चुनावी गणित का मर्मज्ञ होने, जातिगत-धार्मिक व क्षेत्रीय मुद्दों की जनता में असर को नापने की काबिलियत का दावा करने वाले अखबारों व मीडिया चैनलों के लिए ‘मणिपुर’ चुनावी परिदृश्य से गायब था। यह गौरतलब है कि मणिपुर के चुनाव इस बार सबसे दिलचस्प थे। इसका कारण यह था कि इस बार मणिपुर की लौह महिला के नाम से विख्यात और घोर दमनकारी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) को हटाने के लिए 16 साल तक अनशन करने वाली इरोम शर्मिला चानू इस बार इसी मुद्दे को लेकर चुनाव में उतरी थीं। उन्होंने अपनी एक पार्टी गठित कर सत्ताधारी पार्टी को चुनावी मैदान में चुनौती देने की घोषणा की थी और वे खुद मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रही थीं। चुनावी सफलता के जरिए अफस्पा को खत्म करना इरोम शर्मिला के लिए सत्ता प्रतिष्ठानों व शासक वर्ग द्वारा इतने लंबे आमरण अनशन की अनदेखी करने से उपजा निराशावाद हो सकता है लेकिन चुनावों के जरिए बदलाव की दुहाई देने वाले सत्ता प्रतिष्ठानों व मीडिया ने इस चुनाव में मणिपुर को विमर्श से बाहर कर, चर्चा से बाहर कर अपने घोर गैरजनवादी व जनविरोधी चरित्र का प्रदर्शन किया। आखिर क्या कारण है कि 11 लाख की आबादी वाला गोवा तो अखबारों की सुर्खियों व टी.वी. चैनलों में काफी कवरेज पाता है लेकिन उससे दुगुनी से अधिक (लगभग 27 लाख) की आबादी वाला मणिपुर अखबारों व मीडिया चैनलों के लिए चुनावी परिदृश्य से गायब रहता है। बात साफ है शासक वर्ग व मीडिया प्रतिष्ठान नहीं चाहते हैं कि किसी भी रूप में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) पर चर्चा हो, देश की जनता देश के विभिन्न हिस्सों में जनता के ऊपर थोपे गये दमनकारी कानूनों से अनभिज्ञ रहे, उसके खिलाफ जनता का कोई जनमत नहीं बन सके इसलिए मणिपुर को चुनाव परिदृश्य से गायब कर देना ही इन्हें बेहतर रास्ता नजर आया। यह लोकतंत्र व जनवाद के पाखंड की पोल खोल देता है। यह भारतीय लोकतंत्र व उसके ‘पहरूए’ अथवा तथाकथित चैथे स्तम्भ की हकीकत को उजागर कर देता है। <br />
नोटबंदी व चुनाव आयोग की अतीव सक्रियता व सचेतनता के बावजूद दारू, मुर्गा से लेकर तरह-तरह के प्रलोभनों व रिश्वत के बीच लोकतंत्र का यह ‘उत्सव’ सम्पन्न हो रहा है। पांच राज्यों में हुए इन चुनावों में भारतीय पूंजीवादी लोकतंत्र की सडांध व विद्रूपता एक बार फिर उजागर हुई।
पांच राज्यों में चुनाव: फिर उजागर हुआ पूंजीवाद का विद्रूप चेहरा
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।