साथियो पंतनगर विश्व विद्यालय में दो हजार से लेकर पच्चीस सौ रुपये में ठेका मजदूर काम कर रहे हैं। न तो उनको समय से वेतन दिया जाता है और न ही उनको बोनस, ई.एस.आई., आवास भी नहीं दिया जाता है जब कोई मजदूर आवास के लिए कहता है तो यह कह कर मना कर दिया जाता है कि वह ठेकेदार के कर्मचारी है। और जब हम श्रम कल्याण अधिकारी से कहते हैं कि ‘सर जी हमारा ईपीएफ पर्ची और ईएसआई कार्ड बनाया जाये तो एकदम चुपचाप सुन लेते हैं और कोई जबाव नहीं देते हैं। जब हम कहते हैं कि मजदूरों से घरों पर बेगार कराया जाता है। उस पर रोक लगायी जाये तो एकदम चुप हो जाते हैं। चुप इसलिए हो जाते हैं क्योंकि उन मजदूरों से ये भी घरों पर बेगार करवाते हैं और प्रशासनिक अधिकारियों का भी यही रवैय्या है।<br />
<strong> मनोज कुमार, सीआरसी, पंतनगर <br />
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वह दिन दूर नहीं </strong><br />
जितना हमको तड़पाते हैं उतना इनको तड़पायेंगे<br />
इतना इनको तड़पायेंगे कि चैन से नहीं यह रह पायेंगे<br />
पूंजीवाद का नाश करेंगे हम इनको बतलायेंगे। <br />
असली क्या है, नकली क्या है हम इनको सिखलायेंगे<br />
कर लें जितना जुल्म सितम तनिक नहीं हम घबरायेंगे <br />
भगत सिंह की बात को हम फिर से दोहरायेंगे<br />
आंख खुलेगी उस दिन इनकी जब इनको तारे दिखलायेंगे<br />
लाल किले की चोटी पर जब हम लाल झण्डा फहरायेंगे<br />
साथियो का साथ रहेगा कदम से कदम बढ़ायेंगे<br />
अब वह दिन नहीं है दूर जब हम सब खुशहाली पायेंगे। <br />
<strong>रमेश कुमार, सी आर सी पंतनगर</strong><br />
पंतनगर विश्व विद्यालय में ठेका मजदूरों का शोषण जारी है
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।