संशोधन एक सामान्य शब्द है। या शायद थोड़ा अच्छा भी। इसका मतलब है किसी चीज को ठीक करना या सही करना। इसमें बेहतरी का भाव निहित है : बेहतरी की ओर ठीक करना। <br />
पर इस संशोधन शब्द से पैदा होने वाले संशोधनवाद के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि यह कोई अच्छा या प्रिय शब्द है। कम से कम कम्युनिस्टों के लिए यह बेहद अप्रिय शब्द है। यह शब्द उनके बीच एक राजनीतिक गाली की तरह प्रचलित है। एक कम्युनिस्ट के लिए संशोधनवाद का मतलब है मजदूर वर्ग की क्रांति और कम्युनिज्म का लक्ष्य छोड़कर पूंजीवादी व्यवस्था का पैरोकार बन जाना। पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार तक सीमित हो जाना। इसमें मजदूर वर्ग से गद्दारी का भाव निहित है। <img alt="" src="/newsImages/181002-004334-5.bmp" style="border-width: 1px; border-style: solid; width: 235px; height: 235px; margin: 1px; float: right;" /><br />
संशोधनवाद शब्द का यह मतलब हमेशा से नहीं रहा है और गैर-कम्युनिस्ट दायरों में यह अन्य अर्थों में भी प्रयुक्त होता रहा है। मसलन संशोधनवादी इतिहासकार। कम्युनिस्टों के बीच एक राजनीतिक गाली के रूप में इस शब्द की उत्पत्ति का अपना एक इतिहास है। <br />
एडवर्ड बर्नस्टीन और कोनार्ड श्मिट जर्मनी की मजदूर वर्ग की पार्टी (सामाजिक जनवादी पार्टी) के दो नेता थे जो मार्क्स और एंगेल्स के अनुयाई थे। लेकिन मार्क्स-एंगेल्स की मृत्यु के बाद उन्नीसवीं सदी के अंत में उन्होंने जोर-शोर से और अचानक ही यह कहना शुरू कर दिया कि पूंजीवाद के विकास ने मार्क्सवाद के सिद्धान्तों को गलत साबित कर दिया है तथा इन सिद्धान्तों में इसीलिए संशोधन की जरूरत है। खासकर उन्होंने क्रांति के बदले सुधार पर तथा कम्युनिज्म के अंतिम लक्ष्य के बदले मजदूर वर्ग की तात्कालिक हालत में बेहतरी पर जोर दिया। उनका नारा थाः ‘आंदोलन ही सब कुछ है, अंतिम लक्ष्य कुछ भी नहीं’। <br />
क्रांति और कम्युनिज्म की चाहत रखने वाले नेताओं ने मार्क्सवाद में संशोधन की इस मांग का विरोध किया। और इनकी बातों को खारिज किया। वक्त के साथ साबित हो गया कि बर्नस्टीन और उनके अनुयाई पक्के सुधारवादी थे और मार्क्सवाद में संशोधन की उनकी मांग बस इस सुधारवाद को सैद्धान्तिक जामा पहनाने की कोशिश भर थी। <br />
तब से मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन में तथा इसके नेता कम्युनिस्टों के बीच संशोधनवाद शब्द सबसे बुरी किस्म की राजनीतिक गाली के रूप में प्रचलित हो गया। इसका मतलब है मजदूर वर्ग से गद्दारी कर पूंजीवादी व्यवस्था का पैरोकार बन जाना। कम्युनिज्म के लक्ष्य और मार्क्सवादी सिद्धान्तों को त्यागकर अवसरवाद और सुधारवाद को अपना लेना। इसके लिए सिद्धान्त गढ़ना। <br />
लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो कोई कम्युनिस्ट संगठन है नहीं और न ही इसके प्रमुख मोहन भागवत कोई कम्युनिस्ट हैं। तब फिर इनके संदर्भ में संशोधनवाद की चर्चा क्यों हो रही है?<br />
इस चर्चा का कारण है। <br />
17-18-19 सितम्बर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दिल्ली में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया। इसमें भांति-भांति के गैर संघी लोगों को आमंत्रित किया गया। इस बैठक को स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सम्बोधित किया। तथा राष्ट्र के बारे में सवालों का जवाब दिया। <br />
इस कार्यक्रम में मोहन भागवत ने जो बातें कीं उससे पूंजीवादी प्रचारतंत्र में यह बात कही और सुनी गयी कि संघ बदल रहा है। वह पुरानी चीजों को छोड़कर नयी जमीन ग्रहण कर रहा है। अगर कम्युनिस्टों की शब्दावली से पूंजीवादी प्रचारतंत्र ज्यादा परिचित होता तो कहता कि संघ प्रमुख संशोधनवादी हो गये हैं। यानी उन्होंने हिन्दू राष्ट्र के मूलभूत सिद्धान्तों को छोड़कर वह रास्ता अपना लिया है जो संघ-भाजपा में मोदी समर्थक पूंजीवादी प्रचारतंत्र का ज्यादातर हिस्सा चाहता भी यही है। <br />
वास्तव में इस कार्यक्रम में मोहन भागवत ने कुछ अलग हटकर बातें कीं। उन्होंने कांग्रेस की आजादी की लड़ाई में भूमिका को स्वीकार किया। उन्होंने पुराने कांग्रेसी नेताओं की तारीफ की। उन्होंने (कांग्रेस) ‘मुक्त’ नहीं बल्कि ‘युक्त’ भारत की बात की। उन्होंने भारत के संविधान को स्वीकार करने की बात की। उन्होंने कहा कि मुसलमानों के बिना हिन्दू राष्ट्र का कोई मतलब नहीं है। उन्होंने अंतर्जातीय शादियों की बात की। उन्होंने गाय के नाम पर भीड़ हत्या का विरोध किया। इत्यादि।<br />
इतनी सारी बातों के बाद यह सवाल उठना लाजिमी था कि क्या संघ प्रमुख ‘संशोधनवादी’ हो गये हैं? क्या उन्होंने संघ के मूलभूत सिद्धान्तों से गद्दारी कर दी है? क्या हिन्दू राष्ट्र की अपनी संघी फासीवादी परियोजना को छोड़कर वे भारत के पूंजीवादी लोकतंत्र में समाहित हो जायेंगे? क्या इस लोकतंत्र को ध्वस्त करने के लिए इसका इस्तेमाल करने के बदले वे इसका सामान्य हिस्सा बन जायेंगे? क्या भारत के पूंजीवादी लोकतंत्र में सचमुच इतनी ताकत है जितना कि इसके पैरोकार दावा करते हैं? <br />
इन सवालों के उठने पर लोगां की नजर अभी कुछ ही दिन पहले के एक-दूसरे कार्यक्रम पर गई। यह कार्यक्रम सात समुंदर पार संयुक्त राज्य अमेरिका में आयोजित हुआ था जो आजकल संघियों के लिए स्वर्ग की हैसियत रखता है। इस कार्यक्रम में भी मोहन भागवत वक्ता थे। वहां उन्होंने अन्य बातों के अलावा यह कहा था कि हिन्दुओं को एक होना चाहिए तभी वे बच पायेंगे। अन्यथा तो एक अकेले शेर को कुत्ते भी घेरकर मार डालते हैं। तब इस पर काफी चर्चा हुई थी कि शेर और कुत्तों की उपमा किनके लिए है? सामान्य राय यही थी कि शेर का मतलब था हिन्दू धर्म के अनुयाई तथा कुत्तों का मतलब था मुसलमान। इसका कोई और मतलब नहीं निकल सकता था। कम से कम इसका मतलब हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों से नहीं हो सकता था। जैसा कि मोहन भागवत समय-समय पर कहते रहते हैं और अभी दिल्ली में भी कहा। <br />
उनके शेर-कुत्तों वाले हालिया वक्तव्य के बाद दिल्ली में मोहन भागवत की ‘संशोधनवादी’ बातों पर लोगों के कान खड़े होने ही थे। और जब लोगों ने थोड़ा बारीकी से छान-बीन की तो पता चला कि मोहन भागवत तो बहुत मंजे हुए या घुटे हुए राजनीतिज्ञ हैं। <br />
पिछले सालों में संघ परिवार कुछ निश्चित मुद्दों पर हिन्दुओं की साम्प्रदायिक गोलबंदी करता रहा है। ये हैं अयोध्या में राम मंदिर, धारा-370, गौरक्षा, ‘लव जिहाद’ इत्यादि। इन मुद्दों पर मोहन भागवत रत्ती भर भी टस से मस नहीं हुए। राम मंदिर के बारे में उन्होंने कहा कि राम मंदिर बनना चाहिए और राम तो सारे हिन्द के हैं। धारा-370 के बारे में उन्होंने साफ कहा कि यह गैर-जरूरी है। यानी उसे खत्म होना चाहिए। गौ रक्षा के बारे में उन्होंने कहा कि गौ रक्षा के नाम पर भीड़ हत्या गलत है पर गौ वध की भी निन्दा की जानी चाहिए। लव जिहाद के मामले में वे चुप्पी साध गये। तीसरे दिन सवाल-जवाब सत्र में बीस सवालों में यह एकमात्र सवाल था (अंर्तधार्मिक शादियों के बारे में) जिसका जवाब उन्होंने नहीं दिया। <br />
इतना ही नहीं, मुसलमानों के बारे में उन्होंने जो कहा वह वही है जो संघ एक लम्बे समय से कहता आ रहा है यानी यह कि हिन्दुस्तान में रहने वाला हर कोई हिन्दू है चाहे उसकी पूजा पद्धति के आधार पर मुसलमान, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी और ईसाई अलग हैं और उनके अलग नाम हैं तो फिर ब्राह्मणी पूजा पद्धति वाले खुद क्या हैं? उनका नाम क्या है? परम्परागत तौर पर तो उन्हें हिन्दू नाम से ही जाना जाता रहा है। भारत के वर्तमान संविधान कानून में भी उन्हें उसी नाम से जाना जाता रहा है। फिर इन्हें क्या कहा जाए? यदि सभी हिन्दू हैं तो इन्हें अलग से क्या कहा जाये? क्या देश की सत्तर प्रतिशत आबादी धार्मिक तौर पर बेनाम ही रहेगी? जो भी हो, यह स्पष्ट है कि दिल्ली में मोहन भागवत ने जिस ‘संशोधनवाद’ का परिचय दिया वह एक राजनीतिक रणकौशल के सिवा कुछ नहीं था। संघ प्रमुख द्वारा इस रणकौशल को अपनाए जाने के पीछे प्रमुखतः दो वजहें हैं। <br />
पहली वजह मोदी और शाह हैं। रंगा-बिल्ला की इस जोड़ी ने भाजपा पर जिस तरह अपनी पकड़ मजबूत कर ली है वह संघ के लिए कोई बहुत सुकूनदायक नहीं है। मोदी का गुजरात का रिकार्ड और भी सुखद नहीं है। इसलिए संघ के लिए जरूरी है कि वह इस खतरनाक जोड़ी पर कुछ अंकुश लगाये। संघ प्रमुख द्वारा (कांग्रेस) ‘मुक्त’ के बदले ‘युक्त’ भारत की बात करना अथवा एक ही सांस में ‘शमशान, कब्रिस्तान, भगवा आतंकवाद’ की राजनीति की भर्त्सना करना मोदी-शाह के लिए एक स्पष्ट संदेश था। यह अलग बात है कि मोदी और शाह इस पर कितना ध्यान देते हैं। <br />
दूसरी वजह संघ द्वारा अपने और व्यापक विस्तार की कोशिश है। भाजपा के सत्ता में आने ने संघ के विस्तार में बहुत मदद की है। अब हर संघी को हिन्दू राष्ट्र का सपना पूरा होता दिख रहा है। लेकिन यह सपना पूरा हो सके उसके लिए आबादी के कुछ प्रमुख हिस्सों में पैठ बनाना जरूरी है। <br />
आबादी के ऊपरी इलाकों में एक आबादी है जो मोदी के विकास के नारे के साथ तो है पर हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद से वह चिहुंकती है। यह आबादी बहुत मुखर है। यही कभी ‘अन्ना आंदोलन’ के पीछे थी। आगे बढ़ने के लिए संघ को इस आबादी को अपने पीछे लाना जरूरी है। <br />
दिल्ली में मोहन भागवत का संबोधन मूलतः इसी आबादी के लिए था। संघियों के अलावा यही आबादी वहां भौतिक तौर पर उपस्थित थी। मोहन भागवत ने अपने हिन्दू राष्ट्र के सपने को सतरंगे-सितारों से सजाकर पूरी आबादी के लिए पेश किया।<br />
यह आबादी स्वयं भी इस सपने को लपकने के लिए उत्सुक है, बस उसके बनैले दांतों और नाखूनों को यदि ढंक दिया जाये। अंग्रेजी में ‘टाइम्स नाऊ’ और ‘रिपब्लिक’ टी.वी. चैनलों का सबसे लोकप्रिय होना इसी की अभिव्यक्ति है। मोहन भागवत इसे समझते हैं और इसीलिए उन्होंने राष्ट्रवाद पर सबसे ज्यादा जोर दिया। राष्ट्रवाद के लबादे से हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद के लकड़बग्घे को आसानी से छिपाया जा सकता है। <br />
पूंजीवादी प्रचार तंत्र की प्रतिक्रियाओं से देखें तो मोहन भागवत अपने मिशन में काफी हद तक सफल रहे। उन्होंने अपनी ‘संशोधनवादी’ बातों से बहुतों का मन मोह लिया। यह दीगर बात है कि ये लोग संघ को अपना दिल देने के लिए पहले से तैयार बैठे थे। <br />
बात इतिहास के अन्य हवाले से समाप्त की जाये। 1930 व 40 के दशक में कम्युनिस्टों ने फासीवाद-नाजीवाद से लड़ने के लिए लोकप्रिय संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया था। इस मोर्चे के निर्माण के समय कम्युनिस्टों ने अपने दूरगामी लक्ष्य को नेपथ्य में रखकर लोकतंत्र बहाली को सामने रखा था। इसमें हर तरह की शक्तियों को शामिल किया गया था। कम्युनिस्ट सोचते थे कि फासीवाद-नाजीवाद को पराजित करने के बाद वे इसी संघर्ष की गति में इंकलाब की ओर आगे बढ़ जायेंगे। <br />
आज अपनी हिन्दू फासीवाद की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए संघी इसी तरह के रणकौशल पर चल रहे हैं। मोहन भागवत का ‘संशोधनवाद’ असल में हिन्दू फासीवाद से असहमत लोगों को भी अपने पीछे गोलबंद करने की कोशिश है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख का ‘संशोधनवाद’
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आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।