आज दुनिया भर में ही फासीवादी शक्तियां उभार पर हैं। कई देशों में वे इस या उस हद तक सत्ता में भागीदार भी बन रही हैं। हालांकि आज किसी भी देश में फासीवाद निजाम नहीं है पर कई जगह इसका खतरा प्रत्यक्ष है। भारत भी इनमें से एक है जहां दशक भर से हिन्दू फासीवादी केन्द्र की सत्ता में हैं।
दुनिया भर में फासीवादियों के इस उभार के बावजूद उदारवादी और वाम-उदारवादी इनके खतरे के प्रति जरा भी सचेत नहीं हैं। उनमें से ज्यादातर के लिए यह महज ‘चुनावी एकतंत्र’ या ‘अनुदार जनतंत्र’ का मामला है। कुछ तो इसे महज ‘लोकरंजकवाद’ तक सीमित कर देते हैं।
पूंजीवादी जनतंत्र में लगभग धार्मिक आस्था रखने वाले उदारवादियों और वाम-उदारवादियों का यह व्यवहार अजीबो गरीब है। लेकिन थोड़ा ध्यान से देखने पर यह उतना अजीब नहीं लगता। पर पहले थोड़ा इतिहास की बात।
इतिहास में फासीवादी निजाम के सबसे शास्त्रीय उदाहरण मुसोलिनी का फासीवाद और हिटलर का नाजीवाद रहे हैं। हिटलर का नाजीवाद भी फासीवाद था जिसमें यहूदियों को खास निशाना बनाया गया था।
तब के उदारवादी न केवल फासीवाद के प्रति चिंतित नहीं थे बल्कि वे उसे अपने औजार की तरह देखते थे। इटली में प्रथम विश्व युद्ध के बाद मजदूर वर्ग की क्रांति का खतरा पूंजीपति वर्ग और उनके राजनीतिक प्रतिनिधि उदारवादियों को सताने लगा। वे समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी से क्रमशः और ज्यादा भयभीत होते चले गये। खासकर 1919 के क्रांतिकारी संघर्षों ने उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी। ऐसे में जब फासीवादी लंपट सैनिक अधिकारियों के सहयोग से मजदूर आंदोलन (साथ ही देहातों में गरीब किसानों के आंदोलन) को कुचलने के लिए आगे आये तो उन्हें उदारवादियों का भरपूर समर्थन मिला। बाद में मुसोलिनी की फासीवादी पार्टी को उदारवादियों के चुनावी गठबंधन में स्थान मिला तथा अंत में अत्यन्त कम वोट और सीटों के बावजूद उसे प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठा दिया गया। यह उदारवादियों ने किया था।
उदारवादी मुसोलिनी और उसकी फासीवादी पार्टी को एक ऐसी शक्ति के रूप में देखते थे जो हाशिये पर थी तथा जिसका इस्तेमाल मजदूर आंदोलन को नष्ट करने में किया जा सकता था। वह उनके लिए मजदूर आंदोलन का ‘ंएंटीडोट’ था। एक बार मजदूर आंदोलन का दमन हो जाने के बाद फासीवादियों को फिर हाशिये पर चले जाना था और सारा राजनीतिक क्षेत्र उदारवादियों के लिए खुला छोड़ देना था।
पर, जैसा कि हम इतिहास के हवाले से जानते हैं, ऐसा नहीं हुआ। सत्ता हासिल करने के बाद फासीवादियों ने मजदूर आंदोलन का तो दमन किया ही, साथ ही उदारवादियों का भी दमन किया। कुछ ही सालों में इटली में फासीवादी निजाम कायम हो गया। उदारवादी या तो दमन के सामने चुप लगा गये या फिर फासीवादियों के साथ हो गये।
यही सब कुछ एक-दूसरे रूप में जर्मनी में दोहराया गया। वहां भी मजदूर आंदोलन बहुत मजबूत था तथा पूंजीपति वर्ग को क्रांति का भय सता रहा था। ऐसे में वहां के उदारवादियों को हिटलर और नाजी जैसी शक्ति अपने लिए फायदेमंद लगे। उन्होंने उसके साथ तालमेल बैठाया। उद्देश्य था किसी भी तरह मजदूर आंदोलन का दमन। अंत में जब महामंदी की शुरूआत के साथ नाजियों का तेजी से उभार हुआ तो वह सब इन्हीं उदारवादियों की कीमत पर हुआ। सामाजिक जनवादी पार्टी तथा कम्युनिस्ट पार्टी का संयुक्त आधार कमोबेश बना रहा पर उदारवादी पार्टियां ध्वस्त हो गईं और उनका आधार नाजी पार्टी की ओर चला गया। अंत में उदारवादियों ने 1933 में हिटलर को सत्ता में बैठा दिया, यह सोचकर कि वे इसके द्वारा हिटलर को नाथ कर उसका इस्तेमाल कर लेंगे। पर हिटलर ने कुछ महीनों में ही मजदूर आंदोलन को कुचलकर फासीवादी निजाम कायम कर लिया तथा लगे हाथों उदारवादियों का भी दमन कर दिया। हिटलर ने उनका बखूबी इस्तेमाल कर लिया था।
मुसोलिनी और हिटलर के जमाने में उदारवादियों के इस व्यवहार की क्या वजह थी? (वाम उदारवादी अभी नगण्य थे। वे दूसरे विश्व युद्ध के बाद समाजवादी और सामाजिक जनवादी पार्टियों के क्रमशः पतन के साथ अस्तित्व में आये।) उसकी वजह थी उदारवादियों की वह दृष्टि जो उन्हें फासीवाद के खतरे की ओर देखने नहीं देती थी।
उन्नीसवीं सदी के मध्य तक पूंजीवाद अस्तित्व में आ गया था। और ठीक उसी समय उसे मजदूर वर्ग की ओर से चुनौती मिलनी शुरू हुई जिसकी पहली बानगी 1848-50 की यूरोपीय क्रांतियों में देखने को मिली, खासकर फ्रांस में। इस क्रांति की असफलता के बाद भी मजदूर आंदोलन क्रमशः मजबूत होता गया तथा सदी के अंत तक यूरोपीय देशों में मजबूत मजदूर पार्टियां अस्तित्व में आ गईं जो कम से कम ऊपरी तौर पर पूंजीवाद विरोधी मजदूर क्रांति का दम भरती थीं। ऐसे में पूंजीपति वर्ग तथा उनके राजनीतिक प्रतिनिधि उदारवादियों का भयभीत होना स्वाभाविक था।
जब प्रथम विश्व युद्ध से यूरोप बाहर निकला तो वहां पूंजीवाद अत्यन्त संकटग्रस्त था। रूस में बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी तथा अन्य देशों में मजदूरों के क्रांतिकारी संघर्ष फूट रहे थे। ऐसे में पूंजीपति वर्ग इनसे निपटने के लिए किसी का भी सहारा लेने को तैयार था। और जब ठीक इसी संकट के फलस्वरूप फासीवादी शक्तियां सामने आईं तो पूंजीपति वर्ग ने मानो मौका लपक लिया। उन्होंने फासीवादी शक्तियों को पाला-पोषा, बढ़ावा दिया और फिर सत्तारूढ़ कर दिया, यह सोचकर कि अपनी भूमिका निभा लेने के बाद फासीवादी रंगमंच से विदा हो जायेंगे।
संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग अपनी रक्षा में किसी का भी सहारा लेने के लिए छटपटा रहा था। पर उसके राजनीतिक प्रतिनिधि यानी उदारवादियों से यह उम्मीद की जाती थी कि वे अपने वर्ग के दूरगामी हितों के मद्देनजर नफा-नुकसान देखें। लेकिन वे ऐसा कर पाने में इसलिए असफल रहे कि वे अपनी दृष्टि के कारण ही यह देख पाने में असफल रहे कि फासीवाद महज कुछ नेताओं या लंपटों के गिरोह का मामला नहीं था। कि इसकी जड़ें खुद उनकी पूंजीवादी व्यवस्था के गहरे संकट में थी। यह संकट फासीवादियों को पैदा कर रहा था।
इस सामान्य सी सच्चाई को स्वीकार करना उनके बस में नहीं था। एक लम्बे समय से वे अपनी पूंजीवादी व्यवस्था को सबसे ‘प्राकृतिक व्यवस्था’ समझते आये थे जिसमें तेजी-मंदी के दौर तो आते-जाते रहते थे पर जो स्वयं उस तरह के संकट की शिकार नहीं हो सकती थी जो उसके अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दे। एक अरसे से वे सैद्धान्तिक तौर पर मजदूर आंदोलन द्वारा की जाने वाली इस तरह की बातों को नकारते आये थे। उनके लिए मजदूर वर्ग द्वारा क्रांति की बातें ऐसी बातें थीं जिनका कोई आधार नहीं था और जो समाज को केवल भयानक विपदा की ओर भी ले जा सकती थीं। इसीलिए मजदूर वर्ग द्वारा इस तरह के किसी प्रयास का हर कीमत पर दमन किया जाना था।
अपनी व्यवस्था के इस तरह व्यवस्थागत संकट से इंकार के बाद यह स्वाभाविक था कि उदारवादी इससे पैदा होने वाली फासीवादी परिघटना को भी नकारें। वे अपनी व्यक्तिवादी सोच के अनुरूप इसे महज कुछ बहके हुए नेताओं और लंपटों का परिणाम मानें। ये समाज की सतह पर पैदा होने वाले तात्कालिक बुलबुले थे जिनका संभव हो तो इस्तेमाल किया जा सकता था।
उदारवादियों ने अपनी सोच की कीमत फासीवादी निजाम में अपने दमन से चुकाई जब पूंजीपति वर्ग ने इन्हें त्याग कर फासीवादियों को अपना लिया था। पर ऐसा नहीं था कि इस कटु अनुभव से उदारवादी कुछ बुद्धिमान हो गये थे। उन्होंने पहले की तरह ही क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन को अपना प्रमुख दुश्मन मानना जारी रखा तथा दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका के बाद भी फासीवादियों के साथ आंख-मिचौली का खेल खेलते रहे। यह याद रखना होगा कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद इटली में उदारवादियों ने फासीवादी निजाम के दो दशकों पर चुपचाप परदा डाल दिया और आगे बढ़ गये। उन्होंने अपने इस निकट फासीवादी अतीत से हिसाब-किताब चुकता नहीं किया। (उन्हें यह भी भय था कि तब शायद उनके भी कुकर्म यानी फासीवादियों से सांठ-गांठ के मामले सामने आयेंगे) नाजियों के मामले में नूरेनबर्ग के कुछ चर्चित मुकदमों को छोड़ दिया जाये तो जर्मन उदारवादियों का भी यह रुख था। उनके लिए अब सोवियत संघ और कम्युनिज्म का खतरा ज्यादा बड़ा हो चुका था। कम से कम उन्होंने नाजियों से अपनी सांठ-गांठ को छिपाने के लिए इसी का इस्तेमाल किया।
स्पष्ट है कि उदारवादियों ने अपने निकट फासीवादी अतीत से कोई हिसाब-किताब चुकता नहीं किया। उन्होंने इसके द्वारा इस दौरान के अपने कुकर्मों पर भी पर्दा डाला। हां, आम जन में फासीवादियों-नाजीवादियों के प्रति नफरत का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने यह जरूर प्रचार किया कि फासीवादी और कम्युनिस्ट दोनों एक ही तरह के लोग थे- तानाशाह या सर्वसत्तावादी। उन्होंने इस सामान्य से तथ्य को झुठला दिया कि फासीवादी पूंजीवाद की रक्षा में लगे हुए थे जबकि कम्युनिस्ट पूंजीवाद को समाप्त करना चाहते थे। आज तो पूंजीवादी बुद्धिजीवी इस हद तक चले गये हैं कि वे अतीत के फासीवाद को एक क्रांतिकारी आंदोलन घोषित करते हैं।
आज के उदारवादी (और वाम-उदारवादी) इतिहास के उदारवादियों से सारतः जरा भी भिन्न नहीं है। वे किसी भी तरह यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। कि उनकी आदर्श पूंजीवादी व्यवस्था चौतरफा संकट की शिकार है। मजे की बात यह है कि वे टुकड़ों-टुकड़़ों में व्यवस्था के अलग-अलग पहलुओं का रोना रोते रहते हैं। आर्थिक ठहराव, राजनीतिक छिछोरापन, नैतिक मूल्यों का अभाव, किसी नयी सोच का न पैदा होना, सामाजिक दिशाहीनता, इत्यादि पर न जाने कितने लेख और किताबें उनके द्वारा लिखी-पढ़ी जा रही हैं। पर पुरानी कथा के अनुसार वे यह कहने का साहस नहीं जुटा पर रहे हैं कि हाथी मर चुका है। क्योंकि ऐसा करने का मतलब स्वयं अपने अस्तित्व पर सवाल खड़ा करना होगा।
और चूंकि उदारवादी (व वाम-उदारवादी) यह स्वीकार नहीं कर सकते कि उनकी आदर्श पूंजीवादी व्यवस्था (जिसका उनकी नजर में कोई विकल्प नहीं है) चौतरफा संकट की शिकार है, इसीलिए वे फासीवादी परिघटना की इस गहरी जड़ को भी देखने से इंकार करते हैं। फिर तो फासीवाद महज कुछ सिरफिरे लोकरंजकतावादी नेताओं और उनके लंपट समर्थकों का ऐसा असुविधाजनक राजनीतिक तत्व बन कर रह जाता है जो तात्कालिक है तथा जिसे पूंजीवादी जनतंत्र देर-सबेर जज्ब कर लेगा। भारत ने पहले भी इंदिरा गांधी और आपातकाल को देखा है, अब मोदी को भी देख रहा है।
देश-दुनिया में फासीवाद के प्रत्यक्ष खतरे के प्रति उदारवादियों और वाम-उदारवादियों की यह बेपरवाही उनकी दृष्टि से पैदा होती है। इसीलिए वे यदि कभी फासीवाद शब्द का इस्तेमाल करते भी हैं तो वह महज आलंकारिक ही होता है। उसमें न तो फासीवाद की कोई समझ होती है और न ही कोई गंभीरता। ज्यादा से ज्यादा उनकी बात कुछ तानाशाही प्रवृत्तियों तक सिमट जाती है।
पर मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश जन फासीवाद के आज के प्रत्यक्ष खतरे के प्रति उस तरह से बेपरवाह नहीं हो सकते क्योंकि फासीवादी निजाम का सारा कहर उन्हीं पर बरपा होगा। उन्हें तो समय रहते इस खतरे को निरस्त करने के हर संघर्ष में उतरना ही होगा।
उदारवादी, वाम-उदारवादी और फासीवाद
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को