वी वी डी एन कम्पनी में मजदूरों का शोषण

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आईएमटी मानेसर में स्थित वी वी डी एन कम्पनी के 6 प्लांट हैं। भारत के स्तर पर 10 डिजाइन सेंटर और कुल 7 प्लांट हैं। यह कंपनी इंजीनियरिंग, निर्माण, डिजिटल नेटवर्क के क्षेत्र में काम करती है। यह कम्पनी 5 जी डेटा,  नेटवर्किंग और वाई-फाई, विजन, आटोमोटिव, आई ओ टी, क्लाउड और ऐप्स इत्यादि उत्पादों का निर्माण करती है। इसकी मौजूदगी भारत सहित वियतनाम, कोरिया, जापान, अमेरिका, कनाडा, यूरोप आदि देशों में है।         

इस कंपनी की स्थापना 2007 में इसके संस्थापक भूपेन्द्र सहारन ने की थी जिनकी अब मृत्यु हो चुकी हैं। इस कंपनी का मुख्यालय गुड़गांव में स्थित है। इस कंपनी का खुद का डाई कास्टिंग और मोल्डिंग प्लांट है। यह कम्पनी मोल्ड बनाकर मिंडा, महिंद्रा जैसी कम्पनियों को बेचती है। यह कम्पनी अपनी सभी जरूरी चीजों का निर्माण खुद के प्लांटों में ही करती है। इन सभी प्लांटों में 10 हजार के लगभग मजदूर काम करते हैं।
    
इस कंपनी के कुछ प्लांट तीन शिफ्टों में चलते हैं। कुछ प्लांट में 12-12 घंटे की दो शिफ्ट में काम होता है। काम ज्यादा होने पर 12 घंटे और काम कम होने पर 8 घंटे काम कराया जाता है। इस कंपनी में लगभग 30 प्रतिशत हरियाणा के मजदूरों की संख्या और ज्यादातर यूपी व अन्य राज्यों के मजदूरों की संख्या हैं। यहां पर महिला मजदूर व पुरुष मजदूरों की संख्या लगभग बराबर है। 
    
यहां कहने को तो अधिकतर स्थाई मजदूरों को भर्ती किया जाता है। लेकिन सुविधाओं के नाम पर मजदूरों को श्रम कानून में दर्ज अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है। यहां मजदूरों को बोनस तक भी नहीं दिया जाता। जबकि श्रम कानून में बोनस एक्ट 1965 के तहत न्यूनतम 8.33 प्रतिशत बोनस अनिवार्य है, जो कि मजदूर की एक महीने के वेतन के बराबर बैठता है। कुछ कम्पनियां दुगना बोनस देती हैं। और तो और हद देखिए दीपावली पर मजदूरों को न कोई गिफ्ट न मिठाई जैसी चीजें दी जाती हैं। जबकि इन्हीं मजदूरों को हिन्दू राष्ट्र का पाठ जरूर पढ़ाया जाता है, लेकिन हिन्दू त्यौहार पर किसी भी प्रकार का उपहार या मिठाई तक नहीं दी जाती। मजदूरों का कहना है कि हमें उस समय बहुत दुख होता है जब दीपावली के मौके पर अन्य कंपनियों के मजदूर कुछ ना कुछ उपहार हाथ में लेकर जाते हैं। और हम खाली हाथ हिलाते हुए अपने घरों को जाते हैं। जबकि इस कंपनी का कारोबार देश-दुनिया में फैला हुआ है। जबकि कम्पनी मजदूरों की मेहनत को लूटकर खूब मुनाफा कमाती है। ये कम्पनी अपने कारोबार की उपलब्धि और समृद्धि का खूब प्रचार करती है। इस कंपनी पर यह कहावत ठीक बैठती है ‘‘ऊंची दुकान फीके पकवान’’। कंपनी को जितने चमकदार तरीके से बनाया गया है, उतनी ही मजदूरों की जिंदगी में चमक फीकी है।
    
इस कंपनी में महिलाओं से रात की पाली में काम लिया जाता है जो कि महिला सुरक्षा की      दृष्टि से खतरनाक है। हम सब जानते हैं कि महिला जब दिन के उजाले में सुरक्षित नहीं है तो रात में कैसे हो सकती है। कम्पनी ने बेशक महिला मजदूरों को कम्पनी में लाने-ले जाने के लिए बस की व्यवस्था कर रखी है। लेकिन इस तरह की व्यवस्था से महिलाओं की सुरक्षा का सवाल हल नहीं हो जाता है। महिला मजदूर जो स्थाई रोल पर कार्यरत हैं, उनको कंपनी ने पी.जी. में रहने का प्रबंध कर रखा है। पी. जी. में रहने का किराया इनके वेतन से काट लिया जाता है। अगर मजदूरों की अचानक तबियत खराब हो जाती है तो उनको ई एस आई अस्पताल न ले जाकर निजी अस्पताल में ले जाया जाता है, और इलाज के बिल का पैसा उस मजदूर के वेतन से काट लिया जाता है। यहां सभी मजदूरों के साथ ऐसा ही किया जाता है। कम्पनी ऐसा इसलिए करती है क्योंकि निजी अस्पताल वालों का मुनाफा बन जाता है और कम्पनी ई एस आई के झंझटों से मुक्त हो जाती है।
    
इस कंपनी में ठेका मजदूर और स्थाई मजदूर में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है। यहां स्थाई मजदूरों का कोई भविष्य नहीं है, इनको कभी भी निकाल दिया जाता है और सालों-साल वेतन नहीं बढ़ाया जाता है। ये सिर्फ नाम मात्र के स्थाई मजदूर हैं। ठेका मजदूरों का ई एस आई, पी एफ जमा नहीं किया जाता जबकि श्रम कानूनों में जमा करना अनिवार्य है। यहां श्रम कानूनों में दर्ज ओवरटाइम का दुगुने वेतन का भुगतान भी नहीं किया जाता है। जबकि मजदूरों की मेहनत के दम पर कम्पनी का मुनाफा ‘‘दिन दुगना रात चौगुनी’’ रफ्तार से बढ़ रहा है। दूसरी ओर मजदूरों के जीवन की बदहाली की रफ्तार भी तेजी से बढ़ रही है। मजदूरों का इतने कम वेतन में अपने और अपने परिवार का भरण-पोषण करना कठिन होता जा रहा है।
    
कंपनी में चाय, नाश्ता, खाने की व्यवस्था के रूप में 8 घंटे की शिफ्ट में एक टी ब्रेक मिलता है। नाश्ते के 20रु., खाने के 20रु. काटे जाते हैं। यहां ज्यादा पैसा खर्च करके अच्छी गुणवत्ता वाला खाना खा सकते हैं। कम्पनी मजदूरों को खाना खाने के लिए आधा घंटे का ब्रेक देती है। अगर किसी मजदूर को कैंटीन से खाना खाकर आने में देर हो जाती है, तो उसको खरी-खोटी सुननी पड़ती है। मजदूरों को देर इसलिए हो जाती है क्योंकि कैंटीन और मजदूरों के कार्यस्थल में काफी फासला है। जिस वजह से मजदूरों को आने-जाने और लाइन में लगकर खाना लेने में काफी समय लग जाता है। कंपनी अपने बनाए कानूनों में बांध कर मजदूरों से सिर्फ काम लेना जानती है ना कि उनको इंसान समझ कर सुविधा देना। 
    
जूता-वर्दी जैसी सुविधाओं के तौर पर  कंपनी पहली बार तो मजदूरों को फ्री में जूता-वर्दी या एप्रेन और चप्पलें देती है। लेकिन दूसरी बार जब मजदूरों को जरूरत पड़ती है तो उसका पैसा काट लिया जाता है। स्वास्थ्य संबंधी जांच के नाम पर भी मजदूरों से पैसों की उगाही की जाती है जबकि ये जांचें फ्री होनी चाहिए। इस कम्पनी में भी अन्य कम्पनियों की भांति मजदूरों से मैनेजमेंट द्वारा धार्मिक भेदभाव किया जाता है।
    
कंपनी में महिला मजदूरों के साथ गलत व्यवहार की रोकथाम के लिए सुप्रीम कोर्ट की विशाखा गाइडलाइन के आधार पर कमेटी बनाई गई है। लेकिन यह कमेटी किसी महिला के साथ गलत व्यवहार होने पर कंपनी के हित-अहित को ध्यान में रखते हुए उस व्यक्ति पर कार्रवाई करती है। अगर किसी व्यक्ति ने महिला मजदूर के साथ गलत व्यवहार किया है, और वह व्यक्ति कंपनी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, तो कमेटी उस पर कोई कार्रवाई नहीं करती बल्कि उसे बचा लिया जाता है। इस प्रकार यह कमेटी महिला मजदूरों के साथ हुए गलत व्यवहार के मामले में लीपा-पोती ही करती है।
    
इस कंपनी में मजदूर अपने अधिकारों व सुविधाओं के लिए आवाज या मांग नहीं कर सकते। एक बार 11 मजदूरों ने गर्मी से राहत पाने के लिए कार्यस्थल पर कूलर/पंखों की मांग की थी। कम्पनी ने उन सभी 11 मजदूरों को तुरंत ही काम से निकाल बाहर कर दिया था। उपरोक्त स्थिति बताती है कि मालिकों को मजदूरों से सिर्फ काम लेना आता है ना कि उनको बेहतर जीवन जीने लायक सुविधा देना। कंपनी में मजदूर का अपने हक की बात कहना एक अपराध बन गया है। अगर कोई मजदूर अपने लिए बेहतर सुविधाओं की मांग कंपनी से करता है, तो उसको दंडित किया जाता है।
    
उपरोक्त सभी बातों के आधार पर हम मजदूरों को इस बात को समझना होगा कि, आखिर मालिक पूंजीपति का ध्यान सिर्फ अपने मुनाफे पर ही क्यों होता है। वह उन मजदूरों के बारे में क्यों नहीं सोचता जिनके दम पर वह खूब ऐश करता है, और मुनाफा कमाता है। मालिक ऐसा इसलिए नहीं सोचता क्योंकि मालिक को सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब होता है, इसको तो सिर्फ मजदूरों का श्रम प्यारा लगता है। हम अपनी पूरी जिंदगी मालिक की तिजोरी भरने में लगा देते हैं और हम मजदूर कंगाल हालत में जीने को मजबूर होते हैं। इन सब बातों के आधार पर हमें अपने जीवन को बेहतर करने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। संघर्ष के बगैर बेहतर भविष्य नहीं बना सकते।
            -राजू, गुड़गांव

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