उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में ऊर्जा भवन के सामने विद्युत संविदाकर्मियों ने 4 मार्च से अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर दिया है। प्रदर्शन की इसी कड़ी में परेड़ ग्राउंड से सचिवालय तक एक जुलूस भी निकाला गया। लेकिन उच्च स्तर के आला अधिकारियों ने व चुने गए जन प्रतिनिधियों ने इनके बीच जाकर ज्ञापन लेने की जहमत नहीं उठायी। ज्ञापन में नियमितीकरण की मांग रखी गयी। नियमितीकरण की प्रक्रिया पूर्ण होने तक सीधे विभाग द्वारा समायोजित कर लेने की मांग मुख्य तौर पर रखी गयी। ऐसा नहीं कि आंदोलन पहली दफा हो रहा हो इससे पहले मई 2011 में संविदाकर्मी आमरण अनशन कर चुके हैं। तब शासन-प्रशासन ने जबरन अनशनकारियों को अस्पताल में भर्ती कर दिया था। इस प्रकार अनशन के दबाव को खत्म करने के बाद आंदोलनकारियों का मनोबल कमजोर हो जाने से आश्वासन के साथ तब का संघर्ष स्थगित हो गया था।<br />
इतना लंबा वक्त गुजर जाने के बावजूद उत्तराखण्ड सरकार ने उनकी किसी भी मांग पर गौर फरमाना तो दूर कान तक नहीं दिया इस दौर में दो मुख्यमंत्री भाजपा के तो वर्तमान मुख्यमंत्री कांग्रेस के हैं। दो-दो सरकारों के इस दौर में रह चुकने के बावजूद भी समस्या ज्यों की त्यों बरकरार है।<br />
ऊर्जा के अंतर्गत तीनों निगमों(पावर कारपोरेशन, जल विद्युत निगम व पारेषण) में लगभग 1700 संविदाकर्मी काम कर रहे हैं जिसमें डाटा एंट्री आपरेटर, सब स्टेशन आपरेटर, लाइनमैन व क्लेरिकल का काम करने वाले कर्मी है। इन सभी की नियुक्ति उत्तराखण्ड भूतपूर्व सैनिक कल्याण निगम(उपनल) नामक एजेंसी द्वारा की गयी है। जबकि इसके पास विद्युत निगम में ठेका श्रमिकों द्वारा कार्य कराने हेतु कोई भी लाइसेंस नहीं है।<br />
उपनल प्रति कर्मी के वेतन का साढ़े बारह प्रतिशत डकार जाता है। इस प्रकार लगभग हर संविदाकर्मी से डकारे गए लगभग 2000 रुपये निगम की कमाई के रूप में दर्ज हो जाते हैं। इन कर्मियों को लगभग इस 2000 रुपये के कटौती तथा पी.एफ. व ई.एस.आई. के मद में कटौती के बाद लगभग 5500 से लेकर 7000 तक वेतन हाथ में मिलता है।<br />
ऐसे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस मामूली सी तनख्वाह में ये कर्मी अपना गुजर-बसर किस कठिनाई से कराते होंगे। काम के दौरान इनके साथ हादसे होते रहते हैं। लेकिन काम के दौरान होने वाली दुर्घटना या इसमें मौत हो जाने पर भी किसी प्रकार का मुआवजा नहीं मिलता।<br />
इन परिस्थितियों ने ही इन्हें संघर्ष के रास्ते को अपनाने के लिए बाध्य कर दिया। संविदाकर्मियों ने इस मकसद से विद्युत संविदा कर्मचारी संगठन का गठन किया इसकी संबद्धता शासक वर्गीय पार्टी कांग्रेस के ट्रेड यूनियन सेण्टर इंटक से करा दी गयी। अपने यूनियन के बैनर तले पिछले लंबे वक्त से ये आंदोलन करते आ रहे हैं।<br />
नियमितीकरण की मांग के लिए चल रहा यह संघर्ष दरअसल सरकार की नई आर्थिक नीति के ठीक विरोध में जाता है। पूंजीपति वर्ग की सरकार ने पूंजीपति वर्ग के संकट को हल करने के लिए ही 90 के दशक में नई आर्थिक नीतियां लागू की थी। और इन्हीं नीतियों के तहत एक ओर सरकार ने निजीकरण की ओर कदम बढ़ाये तो वहीं दूसरी ओर उदारीकरण के नाम पर मुट्ठीभर मजदूर वर्ग को मिल रही सुविधाओं में कटौती की जाने लगी साथ ही ‘काम पर रखो-निकालो’ ठेका प्रथा, संविदाकरण को देश भर में तेजी से लागू करना शुरू कर दिया। पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों द्वारा खड़ी की गयी ट्रेड यूनियन व ट्रेड यूनियन सेंटर ने इसके विरोध में उपजने वाले संघर्षों को गुमराह करने का काम किया जो कि उनके अपने चरित्र के ही अनुरूप था।<br />
इसलिए संविदाकर्मियों को भी सरकार द्वारा लागू की जा रही नीति को समझना ही होगा। साथ ही ट्रेड यूनियन सेंटरों के चरित्र को भी समझे बिना संघर्ष को आगे बढ़ाना मुश्किल है और इसे जीत की मंजिल तक पहुंचाना तो नामुमकिन ही है। एक व्यापक संघर्ष देश के स्तर पर चलाए बिना नई आर्थिक नीतियों को वापस लिए जाने के लिए सरकार को बाध्य कर देना बेहद मुश्किल है।<br />
हाल फिलहाल संविदाकर्मी अनिश्चितकालीन हड़ताल कर रहे हैं। यदि यह संघर्ष जुझारू रूप अख्तियार करता है तब यह कम से कम इस मांग को मनवाने में सफल हो सकता है कि इन्हें उपनल से हटाकर पावर कारपोरेशन अपने अधीन संविदा के तहत रख ले। <strong>देहरादून संवाददाता</strong>
विद्युत संविदाकर्मियों की हड़ताल फिर शुरू
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।