हत्यारे मसीहा नहीं हो सकते...

17 अप्रैल को खबर आयी कि छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में सुरक्षाकर्मियों के साथ मुठभेड़ में 29 ‘नक्सली/माओवादी’ मारे गये। दावा किया गया इसमें कई सीनियर माओवादी कमाण्डर थे। बताया गया कि इस साल अब तक 79 नक्सली मारे गये हैं। 
    
छत्तीसगढ़ में हिंसा का ताण्डव मचा हुआ है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दस सालों में (2013 से 2022 तक) 3447 ‘नक्सली हमले’ हुए जिसमें 418 जवान मारे गये और ‘सुरक्षा बलों’ ने 663 ‘नक्सलियों’ को मार गिराया। इसके बाद गृहमंत्री आये दिन दावा करते हैं कि उनकी सरकार ने नक्सलवाद/माओवाद की समस्या को खत्म कर दिया है। जबकि सैकड़ों लोग साल दर साल मारे जा रहे हैं। 
    
17 अप्रैल को जो 29 लोग मारे गये हैं, वे कौन थे? जो भी थे सबसे पहले वे भारतीय नागरिक थे। इसमें क्या किसी को संदेह हो सकता है कि वे भारतीय नागरिक थे। भारत के सुरक्षा बल भारत के नागरिकों की हत्या करें, इस पर भारत का मीडिया किस तरह से जश्न मना सकता है। कैसे वह ‘‘बड़ी कामयाबी’’ जैसी सुर्खियां लगा सकता है। जब एक भारतीय द्वारा दूसरे भारतीय की हत्या पर सिर शर्म से झुकना चाहिए, दुखी होना चाहिए तब आप गर्व से फूले जा रहे हैं। सिवा सरकारी दावे कि वे ‘नक्सली/माओवादी’ थे कौन बता सकता है कि वे कौन थे। वे निर्दोष आदिवासी थे यह तो कोई निष्पक्ष जांच पड़ताल से ही पता लग सकता है। और फिर किसने सुरक्षा बलों को यह अधिकार दिया हुआ है कि वे कहीं भी किसी की भी हत्या कभी माओवादी, कभी नक्सली, कभी आतंकवादी, कभी उग्रवादी, कभी जिहादी, कभी अपराधी कह कर कर दें। क्या देश में कोई कानून का राज नहीं है? यह कौन सा तरीका है कि किसी नागरिक की हत्या बिना किसी पुख्ता सबूत, जांच-पड़ताल के, बिना मुकदमा चलाये कर दी जाती है। बार-बार कश्मीर से लेकर छत्तीसगढ़ तक साबित हो चुका है कि सुरक्षा बल अक्सर ही निर्दोष, निहत्थे नागरिकों की हत्या बिना चेतावनी, बिना जांच-पड़ताल आदि के कर देते हैं। समाज अपने आंसू पीकर रह जाता है। न्यायालय मौन रहते हैं। 
    
नक्सल/माओवादियों के तौर-तरीके गलत हो सकते हैं परन्तु उनकी भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, दलितों, आदिवासियों, शोषितों-वंचितों के प्रति निष्ठा असंदिग्ध है। वे भारत में क्रांति के रखवाले हैं। भारत के हजारों नवयुवक-नवयुवतियों ने भारत में क्रांति की वेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये हैं। जो सिलसिला गोरे अंग्रेजों के जमाने में शुरू हुआ था वह काले अंग्रेजों के जमाने तक जारी है। इसके उलट भारत के शासक, मजदूरों-मेहनतकशों के बेटों से बने सुरक्षाबलों के जरिये उन्हीं की हत्या करवा रहे हैं जिनकी उन्हें रक्षा करनी चाहिए। 
    
हत्यारे कभी भी मसीहा नहीं हो सकते हैं। भारत को गुलाम बनाने वाले क्रूर अंग्रेज शासकों ने अपने आपको भारत को सभ्य बनाने वाले, कानून का राज लाने वाले, विकास करने वाले आदि-आदि के रूप में ही पेश किया था। वे हमारे मसीहा नहीं थे। अंत तक हत्यारे ही रहे। और उन्हें एक दिन भारत की जनता ने ‘भारत छोड़ो’ नारे के तहत देश से भागने को मजबूर कर दिया था। 

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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