वि.वि. के संघर्षरत छात्रों का वक्तव्य

हम कोलंबिया में छात्र कार्यकर्ता हैं जो नरसंहार से मुक्ति की मांग कर रहे हैं।
    
हम मीडिया द्वारा उन भड़काऊ व्यक्तियों पर ध्यान केंद्रित करने में निराश हैं जो हमारा प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। देश भर के विश्वविद्यालयों में, हमारा आंदोलन प्रत्येक मानव जीवन को महत्व देने के लिए एकजुट है।
    
राजनीति से प्रेरित भीड़ द्वारा हमारे सदस्यों की गलत पहचान की गई है। हमें प्रेस में लांछित किया गया, एनवाईपीडी द्वारा गिरफ्तार किया गया, और विश्वविद्यालय द्वारा हमारे घरों से बाहर निकाल दिया गया। हमने जानबूझकर खुद को खतरे में डाल दिया है क्योंकि हम अब कोलंबिया में हमारे ट्यूशन डालर को खर्च करने और उन कंपनियों को फंडिंग देने में शामिल नहीं हो सकते हैं जो मौत से लाभ कमाती हैं।
    
प्रेम और न्याय में एकजुट एक विविध समूह के रूप में, हम मांग करते हैं कि गाजा में फिलिस्तीनियों के सामूहिक नरसंहार के खिलाफ हमारी आवाज सुनी जाए। हम हर दिन भयभीत हो गए हैं, बच्चों को अपने मारे गए माता-पिता के शवों पर रोते हुए, परिवारों को खाने के लिए भोजन के बिना और डाक्टरों को बिना एनेस्थीसिया के आपरेशन करते हुए देखकर। हमारा विश्वविद्यालय इस हिंसा में शामिल है और यही कारण है कि हम विरोध करते हैं।
    
हम नफरत या कट्टरता के किसी भी रूप को दृढ़ता से अस्वीकार करते हैं और छात्रों-फिलिस्तीनी, मुस्लिम, अरब, यहूदी, काले और फिलिस्तीन समर्थक सहपाठियों और शहर के बीच बनाई जा रही एकजुटता को बाधित करने का प्रयास करने वाले गैर-छात्रों के खिलाफ सतर्क रहते हैं, जो हमारी संपूर्ण विविधता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
    
हम शांतिपूर्ण रहे हैं। हम मुक्ति की अपनी तलाश में नागरिक अधिकारों और युद्ध-विरोधी आंदोलनों के नक्शेकदम पर चलते हैं।
    
जब तक बल प्रयोग नहीं किया जाता या कोलंबिया हमारी मांगें नहीं मान लेता, हम यहीं रहेंगेः

1. फिलिस्तीन में इजरायली रंगभेद, नरसंहार और कब्जे में लाभ कमाने वाले निगमों से बंदोबस्ती सहित सभी वित्त को हटा दें। 

2. कोलंबिया के सभी वित्तीय निवेशों के लिए पूर्ण पारदर्शिता।

3. फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन में अनुशासित या नौकरी से निकाले गए सभी छात्रों और संकाय के लिए माफी।

आलेख

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।