...कहीं नहीं है। यही सच्चाई है कि मजदूर वर्ग आम चुनाव में कहीं नहीं है। किसी को उसकी परवाह नहीं है।
न तो वह किसी पार्टी के चुनावी घोषणापत्र के केन्द्र में है और न वह नेताओं के चुनावी भाषण में कहीं है। न तो किसी को उसके मुद्दों की परवाह है और न किसी को यह फिक्र है कि अगर मजदूरों का मत उसे न मिला तो वह चुनाव हार जायेगा।
न वह चुनाव के अंकगणित में है, न चुनाव के रसायन शास्त्र में, न चुनाव के समाजशास्त्र में है।
कोई भी चुनाव विश्लेषक उनकी गिनती नहीं करता है। किस लोकसभा क्षेत्र में कितने ब्राह्मण, कितने क्षत्रिय, कितने दलित, कितने ओबीसी, कितने मुसलमान इसकी गणना रोज-रोज की जाती है पर कोई नहीं बतलाता कि किस लोकसभा क्षेत्र में कितने मजदूर हैं। कितने स्थायी, कितने अस्थायी या कितने ऐसे मजदूर हैं जिन्हें साल भर काम मिलता है। कोई नहीं कहता है कि फलानी लोकसभा क्षेत्र में इतने मजदूर हैं। और ये मजदूर तय कर सकते हैं कि इस सीट में कौन प्रत्याशी जीतेगा। हर कोई यह कहता है यह सीट फलानी जाति या धर्म के इतने-इतने मतों के मिलने या न मिलने से जीती या हारी जा सकती है।
कोई भी मजदूरों की चिंता नहीं करता है। कोई भी मजदूरों के मुद्दों को नहीं उठाता है। वाकई यह हैरत में डालने वाली बात है कि भारत के आम चुनाव में मजदूर वर्ग चुनाव के केन्द्र में तो क्या हाशिये में भी नहीं है।
यह इस सच्चाई के बावजूद है कि भारत का सबसे बड़ा वर्ग, मजदूर वर्ग है। और आज का भारत किसान प्रधान नहीं बल्कि मजदूर प्रधान देश है। चाहे शहर हो अथवा देहात भारत में मजदूर, आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है। मजदूर वर्ग के बाद मेहनतकश किसान और मेहनतकश शहरी निम्न मध्यम वर्ग आता है।
जिस वक्त भारत आजाद हुआ था, उस समय सबसे बड़ा वर्ग किसान था। परन्तु जिस ढंग से भारत का पूंजीवादी विकास हुआ, उसका स्वाभाविक परिणाम यह निकला कि धीरे-धीरे भारत का सबसे बड़ा वर्ग मजदूर वर्ग बन गया। भारत का मजदूर वर्ग कहां से आया। वह बरबाद होते किसानों, दस्तकारों, निम्न मध्यम वर्गीय तत्वों से आया। यद्यपि भारत की आबादी में आज भी बड़ा हिस्सा देहाती आबादी का है परन्तु देहात में सबसे बड़ी आबादी मजदूरों की है। करोड़ों की आबादी वाला मजदूर वर्ग देश के चुनाव में अपना कोई प्रभाव नहीं रखता है।
यहां पर यह सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है। क्यों भारत की राजनीति में मजदूर वर्ग का कोई स्थान नहीं है? क्यों मजदूरों के मुद्दे चर्चा का विषय नहीं बनते हैं? आये दिन मजदूर फैक्टरियों में दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं; आये दिन सफाई मजदूर नालों की सफाई में मारे जाते हैं; आये दिन खेत मजदूर आत्महत्या करते हैं परन्तु कहीं कोई हलचल नहीं होती है। कहीं कोई इन विषयों पर न तो उद्वेलित होता है न कोई सामाजिक प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। न तो अखबार, न मीडिया, न संसद-विधानसभाएं मजदूरों की मृत्यु पर किसी किस्म की चर्चा आयोजित करते हैं। सोशल मीडिया में भी भूले-भटके कभी मजदूरों के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती है।
क्यों है ऐसा कि भारत का सबसे बड़ा वर्ग सामाजिक जीवन में लगभग अनुपस्थित है। पूरे समाज का सबसे बड़ा उत्पादक वर्ग कहीं भी अपना असर नहीं रखता है। क्यों है ऐसा।
मजदूरों के बिना समाज का चक्का एक दिन भी नहीं चल सकता परन्तु वह सामाजिक-राजनैतिक जीवन में एक भी दिन चर्चा का विषय नहीं बनता है। क्यों है ऐसा? क्यों मजदूर समाज का सबसे आवश्यक वर्ग होने के बावजूद उस पर एक भी दिन उसके बारे में समाज के रहनुमा चर्चा नहीं करना चाहते हैं। वह भारत के मतदाताओं में सबसे बड़ी संख्या में है परन्तु वह भारत के चुनाव में शून्य हस्तक्षेप करता है। उसके बारे में किसी भी पार्टी या नेता की चिंता शून्य है।
‘फिर से मोदी सरकार’ या ‘हाथ हालात बदलेगा’ जैसे लोकरंजक चुनावी विज्ञापनों में मजदूर या तो नदारद है या महज दया का पात्र है।
कोई यहां पर सवाल खड़ा कर सकता है कि वैसे तो भारत में दर्जनों पार्टियां हैं जो अपने को कम्युनिस्ट पार्टियां कहती हैं। यह दुनिया में बहुत जानी-पहचानी बात है कि कम्युनिस्ट पार्टियां मजदूर वर्ग की पार्टियां रही हैं। भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) आदि नाम वाली पार्टियों के सामने क्या समस्या है कि वे क्यों नहीं मजदूरों की समस्याओं को राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बना पाती हैं। ऐसा क्या है कि उनके यहां भी मजदूर वर्ग अपने शरीर और आत्मा के साथ अनुपस्थित है। बहुत-बहुत समय हुआ जब भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने पूंजीवादी व्यवस्था के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया था। आत्मसमर्पण की इस प्रक्रिया में क्रांति के रास्ते को त्याग दिया गया। फलतः मजदूर वर्ग की क्रांति में अब कोई भूमिका नहीं रही। मजदूरों को जगाने वाले पूंजीवादी व्यवस्था की गोद में जाकर उबासियां लेने लगे। इस विडम्बना के साथ दूसरी विडम्बना यह थी जो अपने आपको क्रांतिकारी कहते या मानते थे, उन्होंने एक तरह से भारत के मजदूर वर्ग से किनाराकशी कर ली।
नब्बे का दशक आते-आते दुनिया में सोवियत संघ सहित पूर्वी यूरोप के देशों में नकली कम्युनिस्टां के तम्बू भी उखड़ गये। पूंजीवाद की पुनर्स्थापना को हुए इन देशों में कई दशक गुजर गये थे। चीन भी तब तक पूंजीवाद का रास्ता पकड़ चुका था। मजदूरों की सत्ता ही नहीं बल्कि ट्रेड यूनियन आंदोलन का प्रभाव समाज में खत्म होता गया।
ऐसी परिस्थितियों में तथाकथित वामपंथी पार्टियों ने मजदूर वर्ग की ‘‘मजदूर पहचान’’ पर नहीं उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर आधारित पहचान पर जोर देना शुरू कर दिया। अब वह ‘‘मजदूर’’ नहीं रहा। अब वह ‘‘गरीब’’, ‘‘दलित’’, ‘‘पिछड़ा’’, ‘‘आदिवासी’’, ‘‘अल्पसंख्यक’’, ‘‘बंगाली’’, ‘‘बिहारी’’, ‘‘नेपाली’’ आदि, आदि था। उसकी इतिहास या समाज निर्माण में कोई भूमिका नहीं थी। महज अपनी आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक-जातीय-नस्लीय आदि पहचानों में ही उसकी भूमिका थी। मजदूर शब्द गौरव का प्रतीक न रह कर लांक्षन, उपेक्षा, बेचारगी, हीनता आदि का प्रतीक बन गया। ‘दुनिया के मजदूरो एक हो’ का नारा इंकलाबी रास्ते, कार्यशैली व लक्ष्य के स्थान पर महज एक रस्मी नारे में तब्दील कर दिया गया।
सरकारी वामपंथी इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि अगर उन्हें अपना सामाजिक आधार बनाना है तो यह ‘‘मजदूर पहचान’’ पर नहीं बल्कि वह सिर्फ व सिर्फ तभी बन सकता है जब ‘‘दलित’’, ‘‘पिछड़ा’’, ‘‘अल्पसंख्यक’’ आदि पहचान पर जोर दिया जाए। ‘जय भीम-लाल सलाम’ जैसे नारे अपनी ऐतिहासिक भूल को दूर करने के लिए दिये जाने लगे। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मजदूरों को भारत के पूंजीपतियों के विचारों, नीतियों, कार्यक्रम व कार्यनीति के साथ-साथ उसके अपनी व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाये गये संविधान का पिच्छलग्गू बना दिया। हिन्दू फासीवाद से लड़ने के लिए सबसे लोकप्रिय रास्ते या नारे के रूप में ‘‘संविधान बचाओ’’ को आदर्श व व्यावहारिक तरीका घोषित कर दिया गया। दशकों पहले पूंजीवादी व्यवस्था के सामने आत्मसमर्पण कर चुकी इन पार्टियों ने बहुत पहले ही मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन को ही नहीं बल्कि मजदूर वर्ग को भी त्याग दिया था। और मजदूर वर्ग ने अपने सहज बोध से जो किया वह यह किया कि उसने भी इन पार्टियों को लगभग त्याग दिया। अब कहीं मजदूर वर्ग में इनका प्रभाव शेष है तो इसका महत्व इस रूप में सामने आता है कि बाज दफा इन पार्टियों को उतने मत भी चुनाव में प्राप्त नहीं होते हैं जितने कि इनकी ट्रेड यूनियनों या संगठनों में सदस्य घोषित रूप में होते हैं। हर बीते वर्ष के साथ इनका आधार सिकुड़ता जाता है।
बहुत समय पहले ‘दुनिया के मजदूरों एक हो!’ का नारा देने वाले मजदूर वर्ग के एक शिक्षक ने कहा था ‘मजदूर वर्ग की मुक्ति स्वयं मजदूर वर्ग का कार्य है’। यानी मजदूर वर्ग को ही स्वयं आगे आना होगा और अपनी मुक्ति के कार्य को सम्बोधित करने के लिए अपने आप पर विश्वास कर रास्ता खोजना होगा। सबसे पहले उसे अपनी परवाह करनी पड़ेगी। अपनों की परवाह करनी होगी। पूंजीपति वर्ग की पार्टियों, उनके नेताओं, उनकी नीतियों-कार्यक्रमों के प्रति हर कदम पर सचेत रहना होगा। उनकी पोल मेहनत व लगन से खोलनी पड़ेगी। हर दुःख-सुख में, हर संघर्ष में अपने भाईयों व अन्य मेहनतकशों का साथ देना होगा। पूंजीपतियों के गुलाम मजदूरों की भलाई भला कैसे उनकी व्यवस्था के भीतर हो सकती है। गुलाम बनाने वाले भला गुलामों की भलाई कैसे कर सकते हैं। वे तभी कुछ भलाई की बातें करते हैं जब उन्हें डर सताता है कि कहीं गुलाम विद्रोह न कर दें। स्पार्टाकस के जमाने से आज तक यही बात सही है। मजदूरों का रास्ता क्या हो सकता है। उनका रास्ता स्पार्टाकस का ही रास्ता हो सकता है।
आम चुनाव में मजदूर वर्ग कहां है
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को