छावा - औरंगजेब और हिन्दू फासीवादी

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आजकल मुगल शासक औरंगजेब हिन्दू फासीवादियों के निशाने पर है। देश के मुसलमानों को औरंगजेब की संतान घोषित कर संघी उन पर भी हमला बोल रहे हैं। महाराष्ट्र से लेकर उ.प्र. की विधानसभाओं में संघी खुद को शिवाजी का वंशज घोषित कर औरंगजेब की औलादों को सबक सिखाने की बातें कर रहे हैं। 
    
इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 
    
पर फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि बीते 10-12 वर्षों के मोदी काल में इतिहास का मनमाना प्रस्तुतीकरण न केवल नई ऊंचाई पर पहुंच गया है बल्कि समाज में बड़ी आबादी तक यह आज कारगर तरीके से पहुंचा कर अधिक मारक-असरदार बन चुका है। सत्ता पर हिन्दू फासीवादियों के कब्जे ने उन्हें इस व्यापक प्रचार-प्रसार के मौके दे दिये हैं। 
    
एक ओर ऐसे इतिहासकारों की फौज पैदा हो चुकी है जो संघ की पाठशाला से निकल कर संघी चश्मे से इतिहास को प्रस्तुत कर रहे हैं। जो न केवल मनगढंत निष्कर्ष इतिहास के नाम पर प्रस्तुत कर रहे हैं बल्कि मनगढंत तथ्य भी गढ़ ले रहे हैं। वैसे साम्प्रदायिक नजरिये से इतिहास के प्रस्तुतीकरण की शुरूआत ब्रिटिश शासन में ही हो चुकी थी। भारत के इतिहास को हिन्दू काल-मुस्लिम काल-ब्रिटिश काल के बतौर पेश करने वालों की अच्छी-खासी जमात थी। संघ ने इसका इस्तेमाल मुस्लिम काल को हिन्दुओं की गुलामी के काल के रूप में प्रस्तुत करने के लिए किया। पर फिर भी कहना होगा कि आज संघी इतिहासकार जो कुछ कर रहे हैं उसके आगे ब्रिटिशकालीन साम्प्रदायिक इतिहासकार कहीं नहीं ठहरते। तब के इतिहासकार ज्यादातर ज्ञात तथ्यों का प्रस्तुतीकरण साम्प्रदायिक नजरिये से करते थे। आज संघी इतिहासकार अपने साम्प्रदायिक लक्ष्य के अनुरूप नये-नये तथ्य गढ़ ले रहे हैं। यानी इतिहास के नाम पर वे मनगढंत गल्प प्रस्तुत कर दे रहे हैं। 
    
इन्हीं मनगढंत साम्प्रदायिक गल्पों को जन-जन तक पहुंचाने का काम कुछ और मिर्च-मसाला लगाकर एजेंडा आधारित फिल्मों ने बीते कुछ वर्षों से करना शुरू किया है। इन फिल्मों ने संघ-भाजपा के आई टी सेल, टीवी चैनलों की तुलना में अधिक मारकता से समाज में संघी एजेण्डे को स्थापित करने का काम किया है। केरला स्टोरी, कश्मीर फाइल्स, स्वातंत्रयवीर सावरकर, 72 हुर्रें, सम्राट पृथ्वीराज सरीखी फिल्में सीधे ही संघी एजेण्डे को समर्पित फिल्में रही हैं। इनमें से कुछ जहां समाज में अधिक लोकप्रिय हुईं तो कुछ का असर कम रहा। संघी सरकारों ने इन फिल्मों पर कर छूट देने से लेकर इन्हें प्रचारित करने का पूरा प्रयास किया। इसी कड़ी में नई फिल्म छावा सामने आयी है। यह फिल्म जो कि शिवाजी सामंत के छावा उपन्यास पर आधारित ैहै, कहीं से भी इतिहास को प्रस्तुत नहीं करती है। बल्कि यह मनमाने तरीके से प्रस्तुतीकरण कर समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ाने का काम कर रही है। फिल्म में संभाजी महाराज के जीवन की कुछ चुनिंदा घटनाओं को दिखाकर साबित करने का प्रयास किया गया है कि औरंगजेब क्रूर हिन्दू विरोधी शासक था। फिल्म के एक तिहाई हिस्से में औरंगजेब द्वारा संभाजी को दी गयी यंत्रणा दिखा कर संभाजी को महान और औरंगजेब को क्रूर दिखाने की कोशिश की गयी है। इस यंत्रणा को दिखाने में फिल्मकार ने उपन्यास लेखक से भी आगे जाकर कई मनगढंत बातें जोड़ दी हैं। 
    
स्पष्ट है कि ये फिल्में हिन्दू शासकों को उदार-जनता प्रेमी व मुसलमान शासकों को क्रूर-अत्याचारी के बतौर पेश करती हैं। अगर यह शासकों को ही इस अनुरूप पेश करतीं तब भी गनीमत होती। फिल्म का लक्ष्य चूंकि मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाना था इसलिए फिल्में ज्यादातर मुसलमानों को ही क्रूर पेश कर दर्शक के दिमाग में यह धारणा बैठाने का काम करती हैं कि मुसलमान क्रूर-कट्टर व हिन्दू विरोधी होते हैं। छावा फिल्म में भी सारा प्रस्तुतीकरण इसी अनुरूप है। 
    
इतिहास को शासकों के धर्म के आधार पर बांटकर जब भी देखा जायेगा तो जो भी निष्कर्ष निकलेंगे और जो समझ विकसित होगी उसका घोर साम्प्रदायिक होना तय है। वैसे भी भारत में कभी शुद्ध रूप से कोई ‘हिन्दू काल’ या ‘मुस्लिम काल’ रहा ही नहीं। यानी कभी ऐसा नहीं रहा कि समस्त राजा हिन्दू रहे और न ही कभी ऐसा रहा कि समस्त राजा मुसलमान रहे। तथाकथित हिन्दू काल में बहुत से बौद्ध शासक थे और तथाकथित मुस्लिम काल में बहुत से हिन्दू शासक। इसी तरह इतिहास ऐसा भी नहीं रहा कि शासक केवल धर्म के आधार पर आपस में झगड़ा करते रहे हों। ढेरों हिन्दू शासकों की परस्पर लड़ाईयों से इतिहास भरा पड़ा है। इसी तरह मुसलमान शासकां के साथ ढेरों हिन्दू शासक मिलकर अन्य हिन्दू शासकों से लड़ते रहे हैं। 
    
सामंती काल में शासकों की लड़ाई को धर्म के चश्मे से देखने वाला इतिहासकार-फिल्मकार ऐसे तथ्यों को अपने मत के उलट पाता है इसलिए वो इन्हें गायब या सीमित कर मनपसंद तथ्यों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करने लगता है। छावा फिल्म में भी यही किया गया है। 
    
संभाजी जो कि शिवाजी के बड़े पुत्र थे, उनकी व औरंगजेब की लड़ाई पर ही फिल्म खुद को आधारित करती है। फिल्म ढेर सारे ऐतिहासिक तथ्य जानबूझकर छुपा ले जाती है। मसलन् शिवाजी की सेना के कई अधिकारी मुसलमान थे व औरंगजेब की सेना में तो 33 प्रतिशत हिन्दू अधिकारी थे। शिवाजी से लड़ने वाली औरंगजेब की सेना के सेनापति जयसिंह थे। इसी तरह संभाजी न केवल बीजापुर के आदिलशाह के खिलाफ लड़ाई में औरंगजेब के साथ थे बल्कि शिवाजी के खिलाफ औरंगजेब की लड़ाई में भी औरंगजेब के साथ थे। शिवाजी की मौत के बाद सत्ता संघर्ष में संभाजी ने अपने खिलाफ षड्यंत्र करने वाले कई हिन्दू अधिकारियों को मरवा दिया। औरंगजेब से संभाजी के युद्ध के बाद पकड़े जाने पर संभाजी को दी गयी यंत्रणा को फिल्म बढ़ा चढ़ा कर पेश करती है। 
    
शासकों द्वारा अपने शत्रु शासकों के प्रति क्रूर व्यवहार आम बात रही है। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। ऐसी क्रूरता हिन्दू-मुस्लिम सभी शासकों ने दिखायी है। सभी शासकों ने धर्म का ख्याल किये बगैर अपनी जरूरतों के अनुरूप संधियां की हैं तो सभी ने अपनी प्रजा का क्रूरतापूर्वक शोषण करने का काम किया है चाहे प्रजा किसी भी धर्म की अनुयायी क्यों न रही हो शासकों ने उसका शोषण ही किया है। इस मामले में औरंगजेब-शिवाजी-संभाजी सभी कमोवेश एक ही स्तर पर खड़े रहे हैं। इसी तरह औरंगजेब से लड़ने वाले शिवाजी या फिर संभाजी कोई स्वतंत्रता की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे बल्कि वे भी अपने साम्राज्य विस्तार की उसी चाहत से प्रेरित थे जिससे औरंगजेब प्रेरित था। इसी तरह क्रूरता के मामले में शिवाजी के शासन और औरंगजेब के शासन में कुछ खास फर्क नहीं था। सूरत की लूटपाट के वक्त शिवाजी की सेना द्वारा ढाये जुल्म कम नहीं थे। 
    
औरंगजेब को हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए उसके द्वारा नष्ट किये हिन्दू मंदिरों, जजिया कर आदि का हवाला दिया जाता है। यह बात सत्य है कि औरंगजेब ने अपने विजय अभियान के दौरान पराजित राजा द्वारा बनाये कई मंदिरों को नष्ट किया। पर यह भी स्पष्ट है कि उसका लक्ष्य मंदिर नष्ट करना नहीं पराजित राजा को अपमानित करना अधिक था। ऐसा ही हिन्दू राजाओं ने बौद्ध मठों के साथ किया था। अगर औरंगजेब इतना ही मंदिर विरोधी होता तो गुवाहाटी के कामाख्या देवी, उज्जैन के महाकालेश्वर व वृंदावन के कृष्ण के मंदिरों को भारी धन दान में नहीं देता। जहां तक जजिया कर की बात थी तो ब्राह्मण-अपाहिज-महिलायें इसके दायरे से बाहर थे। यह एक तरह का सम्पत्ति कर था। चूंकि मुसलमान जकात के रूप में इससे ज्यादा पहले ही देते थे इसलिए यह हिन्दुओं पर लगाया गया था।
    
आज हिन्दू फासीवादी इतिहास के तोड़-मरोड़ के जिस अभियान पर आगे बढ़ रहे हैं वह महज इतिहास को गलत प्रस्तुत करने तक सीमित नहीं है। बल्कि इतिहास को गलत प्रस्तुत किया ही इसलिए जा रहा है कि आज के लक्ष्य को हासिल किया जा सके। आज उनका लक्ष्य है कि हिन्दू आबादी के दिलों में मुसलमान अल्पसंख्यकों के प्रति स्थायी नफरत भर दी जाये। यह नफरत इतनी व्यापक और असरदार हो कि हिन्दू आबादी अपने सारे दुःख-कष्टों के लिए मुसलमान आबादी को जिम्मेदार ठहराने लग जाये।  
    
पूंजीवादी मीडिया इस काम में संघ-भाजपा के बड़े सहयोगी के बतौर सक्रिय है। जिस वक्त देश में बेरोजगारी आसमान छू रही हो, भारतीयों को अपमानित कर मोदी के मित्र अमेरिका से वापस भेज रहे हों, अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही हो, मजदूरों-किसानों-युवाओं सबका जीवन कठिन से कठिनतर होता जा रहा हो, उस वक्त इन मुद्दों पर चर्चा के बजाय औरंगजेब से लेकर मस्जिद के नीचे मंदिर की चर्चा को बढ़ावा देने का काम पूंजीवादी मीडिया अगर दिन-रात कर रहा है तो उसका एजेण्डा एकदम स्पष्ट है कि दिन-रात इतना साम्प्रदायिक विष वमन किया जाये कि जनता बुनियादी मुद्दों की असली जिम्मेदार ताकतों तक न पहुंच पाये। 
    
कहने की बात नहीं कि पूंजीवादी मीडिया पर भारत के बड़े एकाधिकारी घरानों- अम्बानी-अडाणी सरीखों का नियंत्रण है। मोदी को इन्होंने ही सत्ता पर पहुंचाने में पूरा जोर लगाया था और बदले में मोदी काल में इनकी लूट के लिए सरकार ने एक से बढ़कर एक इंतजाम किये। आज जब संघी शासक मनगढंत तरीके से साम्प्रदायिक नजरिये वाला इतिहास प्रस्तुत कर रहे हैं। सेंसर बोर्ड ऐसी अनर्गल फिल्मों को पास कर रहा है तो शासक पूंजीपति वर्ग का इस सबमें न केवल समर्थन मौजूद है बल्कि इस सबके जरिये जनता को कूपमण्डूक-साम्प्रदायिक बना कर सबसे ज्यादा पूंजीपति वर्ग और फिर संघी शासकों के ही हित सध रहे हैं। 
    
विज्ञान से संघियों का छत्तीस का आंकड़ा है। हर वैज्ञानिक सोच-वैज्ञानिक रिसर्च, वैज्ञानिक इतिहास लेखन इनके लिए घातक है। इसीलिए आस्था के ये पुजारी सारे विज्ञान को दफन कर देना चाहते हैं। इनके द्वारा कालेजों-विश्वविद्यालयों-शिक्षा संस्थानों में बैठाये संघी अधिकारी हर वैज्ञानिक चिंतन का गला घोंटने में जुटे हैं। 
    
मजे की बात यह है कि सारी वैज्ञानिक सोच को दफन कर संघी विकसित भारत का स्वप्न देखे रहे हैं और जनता को दिखा रहे हैं। कंगाली की ओर बढ़ रही जनता को विकास का स्वप्न कूममण्डूकता के आधार पर ही दिखाया जा सकता है। 
    
हिन्दू फासीवादियों द्वारा पिछले लोकसभा चुनावों में मिले झटके के बाद साम्प्रदायिक वैमनस्य के मुद्दों पर तत्परता इनकी मजबूती नहीं इनके भय का प्रमाण है। इतिहास का साम्प्रदायिक प्रस्तुतीकरण, हर मस्जिद के नीचे मंदिर, लव जिहाद-लैण्ड जिहाद आदि का इनका सतत शोर दिखलाता है कि ये इस बात से परिचित हैं कि बुनियादी मुद्दों पर परेशान हाल जनता का आक्रोश कभी भी इनके खिलाफ मुड़ सकता है। इसे रोकने के लिए जनता को लगातार साम्प्रदायिक उन्माद, फर्जी मुद्दों-अंधराष्ट्रवाद आदि के माहौल में बनाये रखना होगा। और संघी ताकतें अपनी पूरी मशीनरी की मदद से इसी में जुटी हैं। इनकी प्रचारक फिल्में अपनी तरह से उनके इस काम में मदद कर रही हैं।
    
हिन्दू फासीवादी ये ख्वाब पाले हैं कि इसी तरह का तांडव रचते-रचते ये अपने हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य पर पहुंच जायेंगे। और कि इनका हिंदू राष्ट्र अनंत काल तक चलेगा। पर ये अपने आदर्श हिटलर के हश्र को भूल जाते हैं। 
    
हिटलर की प्रचार मशीनरी एक झूठ को सौ बाद दोहरा कर सच साबित करने का प्रयास करती थी। संघी भी यही कर रहे हैं। हिटलर की तरह संघी भी सोचते हैं कि उनके झूठ के आगे सच कभी सर नहीं उठा पायेगा। हिटलर की तरह संघी भी अपने हश्र के बारे में गलतफहमी के शिकार हैं। 
    
हिटलर को उसके अंजाम तक पहुंचाने वालों ने- मजदूर-मेहनतकशों ने सच का साथ कभी नहीं छोड़ा। वे तब भी सच दोहराते रहे जब झूठ सर चढ़कर बोल रहा था। पर शीघ्र ही सच ताकतवर बन गया और बलशाली हिटलर मरियल। यही हश्र हिन्दू फासीवादियों का भी तय है। बस जरूरत है कि सत्य के-विज्ञान के-तर्क के साथ खड़ा रहा जाये। ऐसे वक्त में भी उसका प्रचार किया जाये जब संघी झूठ बार-बार बोले जाने के चलते सच सरीखा लग रहा हो। 
    
आज संघियों द्वारा प्रस्तुत इतिहास की हर तोड़-मरोड़, हर झूठ के जवाब में इतिहास के वैज्ञानिक मत को स्थापित करने की जरूरत है। 

 

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