इलेक्टोरल बाण्ड के आंकड़ों से जैसे-जैसे पर्दा हटता जा रहा है वैसे-वैसे पूंजीपति वर्ग और उसकी पाटियों के परस्पर संबंधों का स्वरूप उजागर होता जा रहा है। इसी के साथ विषय के प्रस्तुतीकरण के बारे में तरह-तरह के तर्कों का इस्तेमाल कर भिन्न-भिन्न निष्कर्षों तक पहुंचा जा रहा है। इन निष्कर्षों पर चर्चा से पूर्व जरूरी है कि अब तक उजागर हुए तथ्यों पर एक नजर डाल ली जाये।
1. मोदी-शाह की सरकार ने 2018 में इलेक्टोरल बाण्ड की व्यवस्था शुरू की। इस व्यवस्था का उद्देश्य यह था कि पूंजीपति वर्ग के सदस्य अपनी पहचान गुप्त रखते हुए अपनी इच्छा से किसी भी राजनैतिक दल को मनमाना चंदा दे सकें। इसके तहत कोई पूंजीपति बैंक से इलेक्टोरल बाण्ड खरीद किसी भी दल या कई दलों को दे सकता है और ये दल उसे बैंक से भुना सकते हैं। स्पष्ट है कि राजनैतिक दल को यह तो पता होता था कि उक्त बाण्ड पत्र से किस पूंजीपति ने उसे चंदा दिया पर यह नहीं पता होता कि उस पूंजीपति ने किन-किन और दलों को चंदा दिया। जनता को राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव आयोग में जमा आय-व्यय विवरण से महज यह पता चल सकता था कि किस दल को बांड से किसी वर्ष में कितना चंदा मिला पर यह पता नहीं चल सकता था कि किसने यह चंदा दिया।
2. अब तक उजागर तथ्यों से लगभग 12 हजार करोड़ रु. के बाण्डों के विवरण से पता चलता है कि बीते 4-5 वर्षों में भाजपा को सर्वाधिक 55-56 प्रतिशत (लगभग 6.5 हजार करोड़ रु.) का चंदा मिला है। कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस को 8-9 प्रतिशत (लगभग हजार-हजार करोड़ रु.) बीजू जनता दल व डीएमके को 6-7 प्रतिशत (600 से 770 करोड़ रु) चंदा मिला। शेष अन्य दलों को लगभग 10 प्रतिशत (1200 करोड़ रु.) चंदा मिला।
3. चंदा देने वाली शीर्ष कम्पनी फ्यूचर गेमिंग एण्ड होटल सर्विसेज प्रा.लि. (1368 करोड़) रही। इसके बाद मेघा इंजीनियरिंग (966 करोड़), वेदान्ता (400 करोड़), क्विक सप्लाई (400 करोड़) का स्थान रहा। बहुचर्चित शीर्ष घराने अम्बानी-अडाणी की कंपनियां सीधे इलेक्टोरल बाण्ड की खरीददार नहीं थीं। पर अपनी सहायक या शैल कंपनियों के जरिये इन्होंने भी करोड़ों के इलेक्टोरल बाण्ड खरीदे।
4. कंपनियों द्वारा इलेक्टोरल बाण्ड पार्टियों को देने के मामले में कुछ प्रमुख पैटर्न इस प्रकार रहे।
क. कुछ कंपनियों ने सरकार की किसी नीति में बदलाव, मनवांछित ठेका पाने के लिए सरकार में मौजूद पार्टी को प्रमुखता से चंदा दिया। कोटक महिन्द्रा बैंक के मालिकों ने रिजर्व बैंक द्वारा किसी बैंक में मालिकां की हिस्सेदारी अधिकतम 15 प्रतिशत तक रखने के प्रावधान का उल्लंघन करते हुए 40 प्रतिशत तक हिस्सेदारी रखी। अंततः मामला कोर्ट तक गया। उसके बाद समाधान के बतौर 26 प्रतिशत भागीदारी पर रिजर्व बैंक सहमत हुआ। इस संदर्भ में रिजर्व बैंक ने अपनी नीति को भी अधिक उदार बना लिया। पाया गया कि समझौते के आस-पास कोटक फर्म ने 60 करोड़ रु. के इलेक्टोरल बाण्ड सत्तासीन भाजपा को दिये।
इसी तरह टोरेंट ग्रुप ने कुल 184 करोड़ रु. के बाण्ड खरीदे इनमें 137 करोड़ भाजपा को दिये। सरकार द्वारा जहां 2019 में इस ग्रुप को सम्पत्ति कर देने से छूट दी गयी वहीं दादरा नगर हवेली में विद्युत वितरण, गुजरात, उ.प्र. में विद्युत उत्पादन-वितरण से जुड़े ठेके मिले।
लाटरी व होटल के धंधे वाली कंपनी फ्यूचर गेमिंग का मालिक साण्टियागो मार्टिन है। इसका पुत्र भाजपा में शामिल हो केन्द्र सरकार से सम्बन्ध रखता रहा है। मोदी के सत्ता में आने से पूर्व इस कंपनी पर सिक्किम में लाटरी के धंधे में सरकारी टैक्स चोरी का केस चल रहा था। मोदी के सत्ता में आते ही इसके मालिक को सहूलियतें मिलने लगीं। इसने बीते 4-5 वर्षों में इलेक्टोरल बाण्ड ज्यादातर उन राज्यों की सत्तासीन पार्टियों को दिये जिनके राज्यों में लाटरी प्रतिबंधित थी। तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक बड़े लाभ प्राप्तकर्ता रहे। यह चंदा राज्यों में लाटरी चालू कराने व धंधे में सहूलियतें, सरकारी कर घटाने आदि सहूलियतों के लिए दिया गया।
ख. दवा कंपनियों ने लगभग 945 करोड़ रु. के इलेक्टोरल बाण्ड राज्य सरकारों से सम्बद्ध पार्टियों को दिये। यह चंदा दवा के मनमाने दामों की छूट, दवा की कम गुणवत्ता के बावजूद बिक्री की छूट से लेकर सरकार द्वारा दवा की खरीद आदि सहूलियतें हेतु दिये गये।
ग. कुछ कम्पनियों द्वारा अपनी आय से अधिक राशि के इलेक्टोरल बाण्ड खरीदे गये। पाया गया कि ये कंपनियां अडाणी-अंबानी से लेकर किसी अन्य कंपनी द्वारा खड़ी शैल या फर्जी कंपनियां थीं या फिर किसी काले धन को सफेद धन में बदलने का जरिया थीं। अक्सर ये कम्पनियां खड़ी कर बड़ी कम्पनियां अपनी अघोषित कमाई इन तक स्थानान्तरित करती रही हैं।
घ. कुछ कंपनियों पर समय-समय पर इडी, आयकर विभाग के छापे पड़़ते रहे हैं और ये इलेक्टोरल बाण्ड खरीद सत्ताधारी भाजपा को दे इन छापों व मुकदमों से मुक्त हो जाती रही हैं। इन छापों वाली कंपनियों की सूची बहुत लम्बी है। यहां महज 2 मामलों का जिक्र करेंगे।
पहला, 2014 के चुनाव में कांग्रेस के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए मोदी बार-बार सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के भूमि खरीद घोटाले को उजागर करते रहे। सत्ता में आने के बाद भी राबर्ट वाड्रा पर वक्त-वक्त पर जांच का शिकंजा कसा जाता रहा। बाद में डीएलएफ द्वारा 170 करोड़ रु. के बाण्ड भाजपा को दिये गये और हरियाणा सरकार ने वाड्रा द्वारा भूमि खरीद को अदालत में क्लीन चिट दे दी। वक्त के साथ राबर्ट वाड्रा चर्चा से गायब होते चले गये।
दिल्ली के चर्चित शराब घोटाले जिसमें आजकल अरविंद केजरीवाल जेल में हैं, में एक अन्य अभियुक्त ने जब लगभग 50 करोड़ के इलेक्टोरल बाण्ड भाजपा को दे दिये तो उसे न केवल जमानत मिल गयी बल्कि वह प्रमुख गवाह भी बन गया। उसकी व कुछ अन्य की गवाही से आम आदमी पार्टी के नेताओं पर शिकंजा कसा जाने लगा।
5. कुछेक पूंजीपतियों ने राज्य सभा की सांसदी के लिए भी चंदा दिया। हेटरो ग्रुप के संस्थापक डा.बी. पार्थ साधि रेड्डी ने भारत राष्ट्र समिति को 70 करोड़ के इलेक्टोरल बाण्ड दिये बदले में पार्टी के टिकट पर वे निर्विरोध राज्य सभा पहुंच गये।
6. भाजपा को चंदा देने वाली कंपनियों में मेघा इंजी, रिलांयस (लगभग 545 करोड़ अन्य कंपनियों के जरिये), अडाणी (42.4 करोड़ रु. अन्य के जरिये), केवेटर, बिड़ला, भारती, वेदांता प्रमुख थीं।
7. ढेरों कंपनियों ने जिन्होंने भाजपा को चंदा दिया उन्होंने कांग्रेस को भी चंदा दिया। हालांकि भाजपा की तुलना में कांग्रेस को दिये चंदे काफी कम थे।
इन सारे रहस्योद्घाटन से स्पष्ट है कि भाजपा इलेक्टोरल बाण्ड से चंदा पाने वाली प्रमुख पार्टी है पर कांग्रेस व अन्य पार्टियां भी चंदा हासिल करती रही हैं। कंपनियां भाजपा को चंदा दे इडी, आयकर की गिरफ्त से बचने, केन्द्रीय ठेके प्राप्त करने, केन्द्रीय नीति बदलवाने का काम करती रही हैं। साथ ही कंपनियां राज्यों की सत्ताधारी पार्टियों को भी चंदा दे राज्य स्तर के यही काम करवाती रही हैं। यहां इस चर्चा में नहीं जाया जा रहा है कि कंपनियां इतनी अकूत दौलत लुटाने के लिए कहां से लाती हैं। जाहिर है यह देश के करोड़ों-करोड़ मजदूरों-मेहनतकशों के शोषण, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और छोटी पूंजी को हड़प कर हासिल की जाती है। यह दौलत मजदूरों-मेहनतकशों का खून बहाकर उन्हें अंतिम दम तक निचोड़ कर कमाई जाती है।
भाजपा के सर्वाधिक धन कमाने के चलते कुछ भाजपा विरोधी इस पूरी प्रक्रिया को इस ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं कि पार्टी खजाना भरने के लिए मोदी-शाह कंपनियों के पीछे इडी-इनकम टैक्स के छापे-मुकदमे डलवाते रहे हैं बाद में उनसे मोटी रकम वसूल कर उन्हें बरी करवाते रहे हैं। इस तरह मोदी-शाह आम नागरिकों-विपक्षी दलों ही नहीं कंपनियों तक से एक तरह से हफ्ता वसूली करते रहे हैं और भाजपा का खजाना भरते रहे हैं।
तथ्यों को देखें तो उक्त विवरण में सत्य का एक अंश जरूर है पर यही पूरा सत्य नहीं है। उक्त तर्क मोदी-शाह की ताकत के आगे कंपनियों को कहीं न कहीं बेचारी व पीड़ित के बतौर प्रस्तुत करता है। कुछेक मामलों में यह जरूर हो सकता है कि कंपनियां मुकदमों में फंसने से बचने को मोदी-शाह गिरोह को हफ्ता देती हों पर यह देखते हुए कि खुद मोदी-शाह बड़़ी पूंजी के चाकर हैं और बड़ी पूंजी ने ही उन्हें सत्ता पर पहुंचाया है, इसलिए यह आम तौर पर नहीं हो सकता कि नौकर मालिक से हफ्ता वसूली करे। हां मालिक अपने कुछ अपराधों के मामले में नौकर को मुंह बंद रखने के लिए कुछ टुकड़े जरूर फेंक सकते हैं।
इसीलिए मोदी-शाह को वसूली गैंग की तरह प्रस्तुत करना दरअसल उन्हें उस बड़ी पूंजी के ऊपर बैठा देने सरीखा है जिन्होंने मोदी-शाह को सत्ता तक पहुंचाया है।
इसी तरह कुछ भाजपा विरोधी लोग इसे भाजपा के सबसे बड़े भ्रष्टाचार के बतौर पेश करते हैं। निश्चय ही भाजपा भ्रष्टाचार के मामले में कहीं से भी बाकी दलों से कम नहीं दो हाथ आगे हैं। पर भ्रष्टाचार के मामले को कुछ इस तरह पेश किया जाता है जैसे किसी सरकारी विभाग में एक ठेका पाने के लिए ठेकेदार अफसर को रिश्वत खिलाता है वैसे ही बड़े पूंजीपति ठेके पाने, सरकारी नीति बदलवाने के लिए सरकार में बैठी पार्टी को रिश्वत देते हैं। इस तरह सरकार में बैठी पार्टी सत्ता में होने का बेजा फायदा उठा कम्पनियों से रिश्वत खाती है और उन्हें सरकारी ठेका, कभी-कभी कम खर्च का ठेका भारी राशि में देती है।
इस मामले में भी सत्य का एक अंश है पर पूर्ण सच इतना ही नहीं है। किसी सरकारी बाबू द्वारा किसी गरीब आदमी का काम करने के लिए ली गयी रिश्वत, किसी अफसर द्वारा छोटे ठेकेदार को ठेका देने में ली गयी रिश्वत और किसी कंपनी द्वारा सरकार को दी गयी रिश्वत में ध्यान से देखें तो रिश्वत लेने व देने वाले के संबंधों में क्रमशः गुणात्मक फर्क पड़ता जाता है। किसी बाबू के आगे गरीब आदमी की कोई औकात नहीं है, किसी अफसर व ठेकेदार के मामले में लेने-देने वाले लगभग बराबर हैसियत के हैं जबकि सरकार में बैठी पार्टी व बड़ी पूंजी के मामले में बड़ी पूंजी ताकतवर है और पार्टी दरअसल पूंजी के हितों में सक्रिय दल है।
तब फिर कम्पनियों द्वारा ठेके के एवज में दी गयी रकम को कैसे देखा जाए। एक बार पूंजीवादी व्यवस्था की कार्य प्रणाली को अगर गौर से देखें तो इसके पीछे छिपी वास्तविकता समझ में आने लगती है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों के विभिन्न धड़े परस्पर संघर्षरत रहते हैं। एकाधिकारी पूंजीवाद के आज के दौर में बड़ी एकाधिकारी पूंजी के घराने परस्पर संघर्षरत रहते हैं। ये घराने ही सत्ता के वास्तविक मालिक होते हैं। ये ही सरकार को गिराने से लेकर नीतियां निर्धारित करवाने आदि को तय कर रहे होते हैं। मजदूरों-मेहनतकशों के शोषण को बढ़ाने, सरकार से पूंजीपरस्त नीतियां बनवाने, पूंजी पर कम कर, तरह-तरह की छूटों के मामले में जहां इन एकाधिकारी घरानों के हित एक होते हैं वहीं अपने मुनाफे को बढ़ाने को लेकर ये परस्पर गलाकाटू प्रतियोगिता में भी डूबे होते हैं।
अब इस गलाकाटू प्रतियोगिता का इनके बीच हल कैसे होता है। आम तौर पर छुट्टे पूंजीवाद में मान लिया जाता है कि बाजार इस प्रतियोगिता का स्वतः निपटारा करेगा। पर एकाधिकारी घराने प्रतियोगिता के मामले में महज बाजार पर भरोसा करने के बजाय प्रतियोगिता में जीत के लिए सारे कानूनी-गैरकानूनी हथकण्डे अपनाते हैं। ज्यादा सही कहें तो बड़ी पूंजी अपनी बढ़ती के लिए खेल के किसी भी नियम को ताक पर रखने की ओर ले जाती है। परिणाम यह होता है कि अपनी बढ़ती के लिए ये घराने दस गैर काननी काम करते हैं, कर चोरी करते हैं, फर्जी कंपनियां खड़ी करते हैं, श्रम विभाग से लेकर पर्यावरण के मामले में अपने फायदे में दस जगह रिश्वत देते हैं, सरकार से खास नीति बनवाने हेतु मीडिया से लेकर पालतू बुद्धिजीवियों से दबाव डलवाते हैं, सरकार के मंत्री-विधायकों-न्यायाधीशों के बीच लाबिंग करते हैं, इसी तरह सत्ताधारी दल व बाकी दलों को चंदा देते हैं। इस तरह सभी एकाधिकारी घराने अपनी पूंजी की बढ़ती की खातिर पूंजी का तरह-तरह से इस्तेमाल करते हैं। जिनमें एक इस्तेमाल सरकारी पार्टी को चंदा भी है।
इस तरह बड़ी पूंजी द्वारा मंत्री, विधायकों-न्यायाधीशों-अफसरों पर कानून तोड़ने की एवज में फेंका जाने वाला चारा पूंजीवाद की आम परिघटना है। यह भ्रष्टाचार पूंजीवाद से नाभिनालबद्ध है। इस भ्रष्टाचार के बगैर बड़ी पूंजी इस बात को सुनिश्चित नहीं कर सकती कि चाहे जिस भी दल की सरकार बने, उसे काम बड़ी पूंजी के लिए ही करना पड़ेगा। इस भ्रष्टाचार से पूंजीवादी व्यवस्था कभी मुक्त नहीं हो सकती। अगर कल्पना कर लें कि यह भ्रष्टाचार खत्म हो जाये और अफसर-नेता ईमानदार हो जायें तो सारे बड़े पूंजीपति जेल में नजर आयेंगे। जो कि पूंजीवादी व्यवस्था में असम्भव है।
बड़ी पूंजी की ताकत इस कदर है कि वो किसी रंगा-बिल्ला को जेल से निकाल सत्ता के शीर्ष तक पहुंचा दे। अक्सर जब इस प्रक्रिया को सामान्य भ्रष्टाचार के बतौर देखा जाता है तो मान लिया जाता है कि भ्रष्ट बाबू-भ्रष्ट अफसर को हटा ईमानदार के आने से जैसे भ्रष्टाचार कम हो सकता है वैसे ही भ्रष्ट पार्टी की जगह ईमानदार पार्टी ला इससे मुक्त हो सकते हैं पर यह संभव नहीं है। बड़ी पूंजी अपनी ताकत से हर ईमानदार को भी बेईमान बना डालती है।
तब फिर सरकार आखिर क्यों इडी-सीबीआई बड़ी पूंजी के पीछे लगाती है। भ्रष्टाचार के बतौर व्याख्यायित करने वाले इसे यूं बताते हैं कि मोदी-शाह कंपनियों से वसूली के लिए उनके पीछे सरकारी कारकून दौड़ाते हैं। पर वास्तविकता महज यह नहीं है। वास्तविकता यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में सरकार पूंजीपति वर्ग के आम व दूरगामी हितों का प्रतिनिधित्व करती है। पूंजीपति वर्ग के दूरगामी हित के लिए जरूरी है कि कानून का शासन सुचारू ढंग से चलता दिखे। बड़ी पूंजी द्वारा कानून का तोड़ा जाना एक सीमा में रहे व जनता से छिपा रहे ताकि जनता का व्यवस्था पर भरोसा बरकरार रहे। ऐसे में बड़ी पूंजी जहां अपने तात्कालिक लाभ के लिए सारे कानून तोड़ने को उतारू होती है वहीं सरकार पूंजीपति वर्ग के दूरगामी हितों की खातिर, पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने की खातिर यह सुनिश्चित करती है कि बड़ी पूंजी एक दायरे में ही कानून से खिलवाड़ करे। बड़ी कंपनियों पर इडी, सीबीआई, आयकर विभाग के छापे दरअसल सरकार की ओर से बड़ी पूंजी को यह संदेश होता है कि वो सहनीय दायरे को लांघ रही है वहीं यह जनता में कानून पर भरोसा कायम कर व्यवस्था को दीर्घायु बनाने का जरिया भी होता है। इसीलिए कभी-कभी कोई पूंजीपति जेल भी चला जाता है। एकाध को सजा भी हो जाती है पर ज्यादातर बरी हो जाते हैं।
पूंजीपति वर्ग में तरह-तरह की धड़ेबंदियां इजारेदार-गैर इजारेदार, बड़े-छोटे, निजी-नौकरशाह, क्षेत्रीय-ग्रामीण पूंजीपति सरीखी धड़ेबंदियां होती हैं। आम तौर पर जब पूंजीवादी व्यवस्था किसी आर्थिक संकट का शिकार नहीं होती तो एकाधिकारी पूंजी के साथ बाकी पूंजी भी मुनाफे की एक दर पा रही होती हैं पर जैसे ही पूंजीवादी व्यवस्था संकटग्रस्त होती है पूंजीपतियों का मुनाफा गिरने लगता है तब बड़ी पूंजी बाकी पूंजी के दम पर भी अपने मुनाफे की गिरती को रोकने को उतारू हो जाती है ऐसे में वह फासीवादी दलों को सत्ता में पहुंचाती है जो अपनी बारी में बड़ी पूंजी की खातिर अन्य छोटी पूंजियों पर भी एक तानाशाही कायम करती है। आज संघ-भाजपा अम्बानी-अडाणी सरीखे बड़े घरानों की खातिर इसी दिशा में बढ़ रहे हैं। इसीलिए वे पूंजीपतियों के छोटे हिस्सों पर भी कुछ शिकंजा कस रहे हैं। उनके पीछे सरकारी मशीनरी लगाना, विपक्षी नेताओं को घेरना आदि इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है।
कुल मिलाकर कहा जाय तो पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग के हितों में पूंजीवादी दल सक्रिय होते हैं। पूंजीवादी दल पूंजीपति वर्ग के पैसों पर पलते पनपते हैं। इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था में राजनीति को पैसे के प्रभाव से मुक्त नहीं किया जा सकता। इलेक्टोरल बाण्ड की व्यवस्था से पहले भी यह प्रभाव था और आगे भी रहेगा। इससे मुक्ति ऐसी व्यवस्था में ही पायी जा सकती है जहां पूंजीपति वर्ग का ही अन्त कर दिया जाये।