राहुल गांधी ने अपनी ‘न्याय यात्रा’ के दौरान वादा किया कि उनकी सरकार आयी तो वो गरीब महिलाओं को एक लाख रुपये साल का देंगे। इससे पहले सामंती मूल्य-मान्यताओं की घोर समर्थक, जनवाद और महिलाओं की स्वतंत्रता की घोर विरोधी भाजपा पार्टी ने महिला आरक्षण बिल संसद में पास करवाया। यह करते हुए उसने स्वयं को महिलाओं के हितैषी के रूप में पेश करने की कोशिश की। आम आदमी पार्टी ने भी महिलाओं को एक हजार रुपये प्रतिमाह देने का वादा किया। यह सब कुछ लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हो रहा है।
इससे पहले भी अलग-अलग राज्यों के चुनावों में राजनीतिक दल महिलाओं को लेकर कई घोषणाएं, योजनाएं, वादे उछालते रहे हैं। बिहार में शराबबंदी, कनार्टक-दिल्ली में बस किराया माफ, उ.प्र.-राजस्थान में लड़कियों को फोन, टैबलेट बांटना, अन्य कई राज्यों में भी राज्य सरकारों द्वारा इसी तरह की विभिन्न योजनाएं चलायी गयीं या वादे किये गये। मोदी सरकार द्वारा राशन कार्ड महिला के नाम से, उज्ज्वला योजना को महिला स्वतंत्रता के मील के पत्थर के रूप में पेश किया जाता रहा है। पूंजीवादी राजनीतिक दलों की महिलाओं पर यह ‘मेहरबानी’ अकारण नहीं है। इसे भी वह वोट बैंक के हिसाब से ही तोल-मोल कर देख रहे हैं। पिछले चुनावों के अध्ययन से पता चला है कि वोटर के तौर पर महिलाओं की संख्या और मतदान करने वाली महिलाओं की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है और कई सीटों पर तो महिला वोट निर्णायक बन गये हैं।
अध्ययन से पता चला कि कुल मत देने वालों में महिलाओं का प्रतिशत 2009 में 45.97 था जो 2019 में बढ़कर 48.15 हो गया। मतदान करने में भी महिलाओं का प्रतिशत 2009 में 55.80 से बढ़कर 2019 में 67.18 हो गया। ऐसी सीटों की संख्या भी बढ़ी है जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है। 2009 में ऐसी सीटें 64 थीं जो 2019 में बढ़कर 143 हो गयी हैं।
महिलाओं की वोट की राजनीति में बढ़ते इस प्रभाव को हर राजनीतिक पार्टी अपने पक्ष में भुनाना चाहती है। यही वजह है कि वो महिला वोटरों को रिझाने के लिए पैंतरे चल रही हैं।
महिलाओं के बढ़ते मतदान के पीछे कई कारण हैं। देहातों से कामकाज के लिए पुरुषों का पलायन, मतदान वाले दिन भी पुरुषों का काम पर होना, राजनैतिक दलों का महिलाओं को मतदान हेतु प्रेरित करना आदि इनमें से कुछ कारण हैं। पर इस सब के साथ महिलाओं की बढ़ती सामाजिक सक्रियता सर्वप्रमुख कारण है। मतदान के जरिए अभी वे सामाजिक जीवन में अपनी भागीदारी बढ़ा रही हैं। भविष्य में वे यह भी समझेंगी कि चुनाव से वे बहुत कुछ बदलाव पैदा नहीं कर सकतीं। तब वे संघर्षों के जरिए अपना जीवन बदलने की ओर बढ़ेंगी। वास्तव में संघर्षों में भी उनकी भूमिका बढ़ती जा रही है।
राजनीतिक दल अपनी ‘मेहरबानियों’ को इस तरह से पेश करते हैं जैसे वो महिलाओं के बहुत हितैषी हों और उनकी घोषणाओं, योजनाओं से ही महिलाएं आगे बढ़ी हैं, सशक्त हुई हैं। भाजपा ने उज्जवला योजना, महिला आरक्षण आदि को लेकर ऐसा ही आक्रामक प्रचार किया।
महिलाओं की बढ़ रही समाजिक भूमिका के पीछे सरकारी योजनाओं, घोषणाओं का बेहद सीमित प्रभाव है। असली प्रभाव तो स्वयं महिलाओं ने पैदा किया है। शिक्षा, रोजगार, रोजगार की तलाश में महिलाओं ने घर की चारदीवारी को लांघकर ‘खतरों से भरी’ दुनिया में प्रवेश किया। निरंतर जूझते हुए पुरुषों के वर्चस्व वाली दुनिया में अपने लिए एक स्थान बनाती चली गयी हैं।
महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के खिलाफ संघर्ष, सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर संघर्षों में उसकी भूमिका निरंतर बढ़ती गयी है। इस सबने सामाजिक जीवन में उनकी भूमिका को छलांग लगाकर बढ़ा दिया है। बीते कुछ समय में सामाजिक आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को देखें तो यह और भी साफ हो जाता है। दिल्ली दामिनी हत्याकांड के बाद पूरे देश में महिलाएं बड़े पैमाने पर आंदोलन में उतरीं, इसी तरह प्रीति शर्मा हत्याकांड (हल्द्वानी), गुडिया हत्याकांड (हिमाचल), कठुआ गैंग रेप, बनारस वि.वि. में छात्राओं के साथ अभद्रता और बलात्कार, पहलवान खिलाडियों के साथ यौन उत्पीड़न आदि मामलों में, विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं की काफी भूमिका रही है। हदायतुल्ला विश्व विद्यालय की छात्राओं ने मोरल पुलिसिंग के खिलाफ जोरदार आंदोलन चलाया। साथ ही डीयू, जेएनयू, जामिया, जादवपुर, पुणे, बनारस, इलाहाबाद वि.वि. आदि शिक्षण संस्थानों में होने वाले आंदोलनों में भी छात्राओं की भूमिका प्रेरणादायी रही है।
एनआरसी, सीएए के विरोध में उपजे देशव्यापी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका काफी ज्यादा रही। मुस्लिम महिलाएं घरों में बंदिश को तोड़कर आंदोलन में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रही। सरकार का घोर दमन भी इनका हौंसला नहीं तोड़ पाया। शाहीन बाग की महिलायें भारत ही नहीं दुनिया भर में चर्चित हो गयीं।
कृषि कानूनों के खिलाफ चले देशव्यापी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता। महिलाओं ने घरेलू मोर्चा भी संभाला और धरने को भी भरपूर ताकत दी। किसानों की सभाओं में पीले, हरे दुपट्टे में बैठी हाथों में किसान यूनियन का झंडा लिये महिलाओं की ताकत हर कोई महसूस कर सकता था।
इन सब के साथ हर छोटे-बड़े सामाजिक आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को आज कोई भी नहीं नकार सकता। महिलाओं के बिना किसी सामाजिक आंदोलन की कल्पना नहीं की जा सकती है। किसी भी आंदोलन में बडे़ पैमाने पर महिलाओं की हिस्सेदारी आंदोलन को मजबूत बनाती है और जीत की संभावनाओं को काफी बढ़ा देती है।
महिलाओं की यह सामाजिक आंदोलनों में भूमिका ही है जो उसे एक सचेत ताकत के तौर पर आगे बढ़ा रही है। समाज के हर मामले में उसके दखल को बढ़ा रही है। अब महिलाएं सहने के स्थान पर प्रतिकार करने वाली की भूमिका की तरफ बढ़ती जा रही हैं।
हालांकि सड़ी-गली सामंती-पुरुष प्रधानता के मूल्य अभी भी उनके पैरों में बेडियां डालने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। पूंजीवादी व्यवस्था महिलाओं की उतनी ही स्वतंत्रता चाहता है, जिससे पूंजीपति वर्ग मुनाफा कमा सके। इससे ज्यादा की भूमिका उसे खुद के लिए खतरा लगती है। पूंजीवादी व्यवस्था की राजनीतिक पार्टियां महिलाओं की बढ़ रही सामाजिक भूमिका को अपने सांचे में ढालकर उसे एक नये पिंजड़े में कैद कर देना चाहती हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था महिलाओं को सिर्फ शोषण-उत्पीड़न, गरीबी, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा जैसी कठिनाईयां ही दे सकती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार ही 2022 में महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों की वृद्धि दर 4 प्रतिशत से अधिक रही है। रोज ही अखबारों के पन्ने, सोशल मीडिया में प्रसारित खबरों में महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराध देखने को मिल जाते हैं। फैक्टरी, कारखाने, सड़क, कार्यालय, पुलिस थाने, न्यायालय कोई भी जगह महिलाओं के साथ भेदभाव, छेड़खानी से मुक्त नहीं है।
इन कठिनाईयों से मुक्ति के लिए महिलाओं को अपनी सामाजिक आंदोलनों में अपनी भूमिका को और अधिक बढ़ाते हुए उसकी मुक्ति की राह में खड़े हर बुत को गिरा देना होगा।
महिला वोट को साधने के हथकंडे
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को