लोकतंत्र को लोकतंत्र के माध्यम से खत्म करती ‘संघी मोदी सरकार’

कहने को तो तानाशाह किसी से नहीं डरते लेकिन तानाशाहों के इतिहास पर एक नजर डालने से हम पाते हैं कि सभी तानाशाह मेहनतकशों के द्वारा लड़कर प्राप्त जनवादी अधिकार व मूल्यों का सहारा लेकर ही सत्तासीन हुए हैं। तानाशाह अच्छे से जानते हैं कि अभी जनता का मनोविज्ञान पुरानी मूल्य-मान्यताओं पर आधारित है, इसलिए तानाशाह सचेत तौर पर एक झटके में तानाशाही को लागू नहीं कर पाते हैं। तानाशाह सत्ता में आते ही जनवाद शब्द और जनवादी मूल्यों का अपने भाषणों व कार्यप्रणाली में खूब इस्तेमाल करते हैं। फिर जब ये जनता में लोकप्रियता हासिल कर लेते हैं तो अपने मंसूबों को अपने संसाधनों से जनता में प्रचारित करना शुरू कर देते हैं। लेकिन फासीवादियों के लिए अब भी बिना लोकतांत्रिक संस्थाओं के अपने मंसूबों के लिए जमीन तैयार करना आसान नहीं होता है। तानाशाह अभी भी लोकतंत्र का चोला चढ़ाए रहता है। इसी प्रकार ये तानाशाह अपने सभी प्रकार के विरोधियों को भांति-भांति के तरीकों से अपने रास्ते से हटाने में लगे रहते हैं और इन लोकतांत्रिक संस्थाओं का भरपूर इस्तेमाल करते हैं।
    
भारत की राजनीति में भी संघी तानाशाह, लोकतंत्र को लोकतंत्र के माध्यम से खत्म करने के हथकंडों को अपना रहे हैं। संघ अच्छी तरह जानता था कि बिना राजनीति में आए वे अपने हिंदू राष्ट्र  के सपने को साकार नहीं कर सकते हैं इसलिए संघ ने अपनी राजनीतिक पार्टी बनाकर सत्ता में आने  की कोशिशें शुरू कीं। इसके सत्ता में पहुंचने के सफल-असफल प्रयास चलते रहे। अन्ततः ये पहले 1998 व फिर 2014 में केन्द्र की सत्ता में काबिज होने में सफल हो गए। और तब से लेकर अभी तक नाम मात्र के ही सही, उस लोकतंत्र को भी लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से खत्म करने की कोशिश में संघी मोदी सरकार दिन-रात लगी हुई है। संघी मोदी सरकार लोकतंत्र को सैद्धांतिक तौर पर नापसंद करती है, लेकिन लोकतंत्र को व्यवहार में मानना इनके लिए मजबूरी बन जाती है। इन्होंने केन्द्र की सत्ता में आते ही सबसे पहले सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को नखदंत विहीन करने का काम किया। ‘‘लोहे को लोहा काटता है’’ की कहावत की तर्ज पर मोदी सरकार भी लोकतंत्र को लोकतंत्र के माध्यम से खत्म करने के हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है।  
    
संघी मोदी सरकार लोकतंत्र को खत्म करने पर आमादा है मोदी बार-बार जनता के सामने नमन करने का स्वांग रचते हैं। मोदी अपने राजनीतिक विरोधियों को भी लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर गरियाने का काम करते हैं। मोदी सरकार और इसके समर्थकों ने जनता के खतरे को भांपते हुए, उस पनडुब्बी की तरह व्यवहार किया जो खतरा देखकर गहरे पानी में चली जाती है और खतरा टलते ही ऊपर आ जाती है। संघ-भाजपा अपने इस खतरे को भांति-भांति के तरीकां से छुपाने का प्रयास करती रही है और वर्तमान में भी इनको सत्ता जाने का खतरा बहुत सता रहा है। जिसका ये अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डालने से लेकर उनको संवैधानिक संस्थाओं के द्वारा परेशान करवाकर समाधान ढूंढ  रहे हैं। जिन तरीकां और जिन इरादों से ये आगे बढ़ रहे हैं, उनसे फासीवादी संघी मोदी सरकार अपनी मौत को और करीब ला रही है। फासीवादियों की एक खासियत होती है कि वो अपने तय मकसद को जल्द से जल्द हासिल कर लेना चाहते हैं। इन्हें लगता है कि पूरी जनता ही उनकी भेडधसान हो गई है, अब जनता से उन्हें कोई खतरा नहीं है। ये गलतफहमी फासीवादियों को कब्र के पास जल्द ले जाती है। भारत के संदर्भ में भी देर-सबेर जनता अतीत के फासीवादियों जैसा सबक सिखायेगी। -राजू, गुड़गांव

आलेख

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।