हिन्दू फासीवादी और बढ़ती लंपटता

यदि किसी को हिन्दू फासीवादी प्रचारक से बात करने का मौका मिला हो तो उसने पाया होगा कि उसकी तीन चौथाई बातें नैतिकता के बारे में होती हैं। समाज की सारी समस्याएं उसके लिए नैतिकता की समस्याएं होती हैं। यदि सभी लोग नैतिक हो जाएं तो समाज की सारी समस्याएं हल हो जायेंगी। हालांकि यहां नैतिकता कभी परिभाषित नहीं होती पर प्रकारान्तर से उसका आशय प्राचीन भारतीय संस्कृति की किसी नैतिकता से होता है। 
    
हिन्दू फासीवादी प्रचारकों की इस तरह की लगातार नैतिकता की बातों के बरक्स यदि आज संघ परिवार के सारे लोगों के व्यवहार को देखा जाए तो आश्चर्य होता है। आश्चर्य इस बात पर कि नैतिकता की इस कदर बात करने वाले वास्तविक जीवन में कितना अनैतिक व्यवहार कर रहे हैं। गाली-गलौज, हत्या-बलात्कार की धमकी, झूठ बोलना, इत्यादि संघ परिवार के लोगों के लिए एकदम आम बात है। इस मामले में वे देश में सबसे आगे हैं। राजनीति के क्षेत्र में भाजपा और उसकी सरकारों ने अनैतिकता की सारी हदें पार कर दी हैं। स्थिति यह है कि संघी प्रधानमंत्री से लेकर पार्टी तक खुलेआम झूठ बोल रहे हैं। डर-भय, धमकी और खरीद-फरोख्त को उन्होंने भारतीय राजनीति में आम बना दिया है। उन्हें जरा भी शर्म-लिहाज नहीं रह गया है। 
    
आखिर इसे कैसे समझा जाये? इसे कैसे समझा जाये कि हिन्दू फासीवादियों ने एक दशक के भीतर ही भारतीय समाज को इस कदर कीचड़ में ढकेलने में सफलता हासिल की है? 
    
इसे समझने के लिए पहले फासीवादियों के आम चरित्र के बारे में कुछ बात करना फायदेमंद होगा। फिर भारत के विशिष्ट हिन्दू फासीवादियों पर आया जा सकता है। 
    
जैसा कि शताब्दी भर पहले मुसोलिनी के इटली और हिटलर के जर्मनी में देखने को मिला था, फासीवादी नागरिकों को भीड़ में रूपान्तरित करने की सचेत कोशिश करते हैं। इस भीड़ को फासीवादी लम्पटों के गिरोह द्वारा फासीवादी पार्टी और उसके संगठनों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। 
    
पूंजीवादी जनतंत्र में यह मानकर चला जाता है या कम से कम यह उम्मीद की जाती है कि हर नागरिक अपने नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत होगा तथा समाज के संचालन में वह सचेत तौर पर भाग लेगा। चुनावों में वह सोच-समझकर मतदान करेगा और उसके बाद भी सतर्क रहेगा कि सत्ता का दुरुपयोग न हो।     
    
अब यह देख लेना बहुत मुश्किल नहीं है कि अन्याय-अत्याचार और शोषण वाले पूंजीवादी समाज में, जहां अमीरी और गरीबी के बीच खाई इतनी ज्यादा हो, नागरिकों से इस तरह की उम्मीद पालना बेमानी है। जब आबादी का अधिकांश किसी तरह जिन्दा रहने के लिए संघर्षरत हो तब यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति वे बहुत सचेत होंगे। इससे भी आगे पूंजीपति वर्ग सचेत तौर पर कोशिश करता है कि मजदूरों-मेहनतकशों की चेतना बहुत विकसित न हो क्योंकि तब वे व्यक्तिगत पूंजीपतियों और समूची पूंजीवादी व्यवस्था के लिए काफी समस्या पैदा करेंगे। इसी तरह पूंजीवादी नेता भी नहीं चाहते कि नागरिकों की चेतना बहुत विकसित हो क्योंकि तब वे नागरिकों को अपने हिसाब से चलाने में कामयाब नहीं हो पायेंगे। इस तरह पूंजीवादी जनतंत्र में नागरिकों के बारे में औपचारिक घोषणा तथा पूंजीपति वर्ग और उसके राजनीतिक नुमाइंदों के वास्तविक व्यवहार के बीच एक अंतर्विरोध होता है जिसका पूंजीवाद में समाधान नहीं हो सकता।
    
फासीवादी इस अंतर्विरोध को उसकी सबसे खराब स्थिति को और विकसित करते हैं। वे नागरिकों को सारी नागरिक चेतना से शून्य कर एक ऐसी भीड़ में रूपान्तरित करने की कोशिश करते हैं जो एक नेता के पीछे नाचे। ऐसी भीड़़ चेहराविहीन प्रजा में रूपान्तरित हो जायेगी। पूंजीवादी समाज की सभ्यता-संस्कृति में ऐसी चीज होती है जिसकी वजह से ऐसा किया जा सकता है। 
    
लेकिन बात केवल इतने से नहीं बनती। इस भीड़ को रोज-ब-रोज नियंत्रित करने के लिए उनके बीच ही एक फौज होनी चाहिए जो साथ ही यह सुनिश्चित करे कि जो नागरिक अभी भीड़ में रूपान्तरित नहीं हुए हैं वे भी नियंत्रण में रहें। केवल सरकारी मशीनरी से यह संभव नहीं हो सकता। इसके लिए लम्पटों का एक गिरोह चाहिए। इस तरह फासीवादी लम्पटों का गिरोह फासीवादी आंदोलन की अनिवार्य विशेषता होती है। 
    
सवाल पूछा जा सकता है कि लंपटों का गिरोह ही क्यों चाहिए। सभ्य-सुसंस्कृत लोगों के संगठन से यह क्यों हासिल नहीं किया जा सकता? इसका उत्तर यह है कि अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत नागरिकों को तो समझा-बुझाकर जनतांत्रिक तरीके से संचालित किया जा सकता है पर भीड़ को नहीं। उसको तो लंपट गिरोह से ही संचालित किया जा सकता है। यानी फासीवादी आंदोलन समाज के एक हिस्से को ऊपर से नीचे तक लंपटपन में धकेल देता है- लंपट पूंजीपति वर्ग, लंपट मध्यम वर्ग और लंपट गरीब। समाज के एक तिहाई हिस्से के भी इस लंपटपन की ओर ढुलक जाने पर फासीवादी निजाम कायम हो सकता है। यदि पूंजीपति वर्ग इसकी जरूरत महसूस करे। 
    
अब भारत की विशिष्ट बात करें तो इसके अतीत और इसके पूंजीवादी विकास दोनों में ही इसके तत्व थे कि उपयुक्त परिस्थितियों में फासीवादी समाज को लंपटपन की ओर ढकेलने में कामयाब हो सकें। पिछले चार दशकों में वे इसमें कामयाब हो गये हैं। आज दो अपराधी, जिन्हें जेल में या फांसी के तख्ते पर होना चाहिए, वे देश चला रहे हैं। 
    
भारत के अतीत की बात करें यहां पिछले ढाई हजार साल से समाज वर्ण-जाति व्यवस्था के तहत चलता रहा है। केवल पिछले सौ सालों में ही इसमें कोई मूलभूत परिवर्तन आया है। वर्ण-जाति व्यवस्था न केवल समाज को ऊंच-नीच वाले एक सोपानक्रम में बांटती थी बल्कि इसके आधार पर जो संस्कृति विकसित होती थी उसमें इसके निश्चित परिणाम निकलते थे। झूठ-फरेब और पाखंड इसका अनिवार्य हिस्सा थे। 
    
इस वर्ण-जाति व्यवस्था को चिरस्थाई बनाने के लिए इसे जायज ठहराना जरूरी था। इसके लिए जो तर्क गढ़े गये या जो कथाएं गढ़ी गईं वे फर्जी ही हो सकती हैं। चाहे ऋगवेद का पुरुष सूक्त हो या गीता में कृष्ण का यह कहना कि चारों वर्णों को मैंने बनाया है, इसी श्रेणी में आते हैं। इसी तरह पुनर्जन्म या कर्म का सिद्धान्त भी मूलतः वर्ण-जाति व्यवस्था को जायज ठहराने के लिए गढ़ा गया था। 
    
जब इस तरह की फर्जी बातें ऊंचे सिद्धान्तों या ऊंची नैतिकताओं के साथ सामने आती हैं तो परिणाम निकलता है परले दर्जे का पाखंड। इस तरह शूद्रों और अन्त्यजों के साथ अत्यन्त घृणित व्यवहार करने वाले साथ ही वसुधैव कुटुंबकम् की बात भी करते थे। इसी तरह स्त्रियों के साथ अत्यन्त घृणित व्यवहार करने वाले साथ ही यह भी कहते थे कि जहां नारियों की पूजा नहीं होती वहां देवता निवास नहीं करते। यह नहीं सोचना चाहिए कि इस तरह का घृणित व्यवहार केवल व्यवहार का मामला था बल्कि यह मनुस्मृति जैसी नियम-कानून की किताबों में औपचारिक तौर पर दर्ज भी था। 
    
इस तरह झूठ-फरेब और पाखंड प्राचीन भारतीय संस्कृति का अनिवार्य तत्व था। कोई कह सकता है कि ऐसा तो पहले के सभी समाजों में होता रहा था। यह बात किसी हद तक सच है। पर इसके साथ ही दो बातें भारत को अलग करती हैं। एक तो भारतीय समाज की निरंतरता के कारण ये घटिया प्रवृत्तियां संचित होती गईं। दूसरे आधुनिक काल के आधुनिक समाज में भारत का प्रवेश अतीत से किसी क्रांतिकारी विच्छेद के जरिये नहीं हुआ जिससे पुराने कूड़े-करकट से मुक्ति पाई जा सकती थी। इसके बदले पुराना कूड़ा-करकट बना रहा और आधुनिक समाज का हिस्सा बन गया। इसे आज बड़े शहरों की उच्च मध्यवर्गीय बाड़ाबंद कालोनियों में बखूबी देखा जा सकता है। 
    
भारत में आधुनिक समाज भीतर से विकसित नहीं हुआ बल्कि वह अंग्रेजी राज के जरिये भारत में आया। अंग्रेजी राज का उद्देश्य भारत को लूटना था, इसे आधुनिक बनाना नहीं। इसके लिए उन्होंने यहां सारी पुरानी सड़ी-गली चीजों के साथ तालमेल बैठाया। इस तरह यहां जो आधुनिक समाज विकसित हुआ उसमें पुरानी सड़ी-गली चीजों का पर्याप्त समावेश था भले ही वे ऊपर से ढंक दी गई हो। सूट-बूट और टाई के नीचे जनेऊ को पाया जा सकता था। 
    
आंद्रे गुंडर फ्रैंक ने भारत जैसे पिछड़े समाजों में पूंजीवादी विकास को लंपट विकास कहा था और इन देशों के पूंजीपति वर्ग को लंपट पूंजीपति वर्ग। आर्थिक तौर पर इसका निश्चित अर्थ था। भारत के संदर्भ में इसे समझना हो तो इसे अंबानी-अडाणी के मामले से बखूबी समझा जा सकता है। रंगा-बिल्ला और अडाणी के संबंध इसे अच्छी तरह परिभाषित करते हैं। व्यवहारिक तौर पर इसका मतलब है नियम-कानून की परवाह किये बिना या उन्हें तोड़-मरोड़ कर जितना छीन-झपट सको उतना हथिया लो। ऐसे में ‘कानून का राज’ केवल दिखावा बन कर रह जाता है। 
    
ऐसी अवस्था में जो संस्कृति विकसित होती है वह पूंजीवाद और पुरानी व्यवस्था दोनों के सबसे खराब तत्वों का मिश्रण होती है। पुराने जमाने के झूठ-फरेब और पाखंड के साथ जब पैसे की छीना-झपटी की संस्कृति मिल जाती है तो बहुत ही बदबूदार खिचड़ी पकती है। देश में पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों से ऐसी ही खिचड़ी पकती रही है। 
    
पिछले दस सालों में हुआ यह है कि इस सबसे पर्दा हट गया है। लम्बे समय से, खासकर आजादी के बाद से आधुनिक समाज के ऊपर सभ्यता का एक पर्दा पड़ा हुआ था। इस पर्दे के झीने होने पर किसी को शक नहीं था पर सभी इस झीनेपन का सम्मान करते थे। हिन्दू फासीवादियों ने बस किया यह है कि उन्होंने इस झीने परदे को फाड़कर फेंक दिया और समाज अपनी समूची   विकृति के साथ सामने आ गया है। इतना ही नहीं, हिन्दू फासीवादियों ने इस विकृति को गौरव की चीज घोषित कर दिया है। अब अपने झूठ-फरेब और पाखंड पर शर्माने की जरूरत नहीं बल्कि उसे शान से प्रदर्शित किया जा सकता है। अब पिछड़ापन और पोंगापंथ गौरवशाली संस्कृति है जिस पर इतराया जा सकता है। 
    
जैसा कि बार-बार रेखांकित किया गया है हिन्दू फासीवाद उस सबकी चरम अभिव्यक्ति है जो भारतीय समाज में सड़ा-गला है, पतित है, बदबूदार है। वह इन सबको सचेत तौर पर पालता-पोषता है और बढ़ावा देता है। इसी के जरिये वह व्यापक समाज को लंपटपन की ओर ढकेलता है। इसी के जरिये वह एक ओर भीड़ तथा दूसरी ओर लंपट गिरोहों को पैदा करता है। 
    
पर इस संक्षिप्त वर्णन से ही स्पष्ट है कि हिन्दू फासीवादी भले ही आज समाज में बढ़ते लंपटपन के लिए प्रमुखतः जिम्मेदार हों पर अन्यों की जिम्मेदारी से उन्हें मुक्त नहीं किया जा सकता। खासकर उन लोगों को उससे मुक्त नहीं किया जा सकता जो अंग्रेजों के जाने के बाद समाज के संचालन के लिए जिम्मेदार रहे थे। 
    
नेहरू जैसे कांग्रेसी नेताओं के लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि अतीत के कूड़े-करकट से बिना किसी क्रांति के मुक्ति नहीं पायी जा सकती। पर वे इतने कमजोर और कायर थे कि क्रांति का खतरा मोल नहीं ले सकते थे। इसीलिए उन्होंने अतीत से समझौते का सुधारवादी रास्ता चुना। इस तरह उन्होंने वह आदिम पाप किया जिसकी कीमत आज समाज चुका रहा है। जैसे-जैसे समय गुजरता गया वैसे-वैसे स्पष्ट होता गया कि समाज के लिए यह रास्ता कितना भारी पड़ रहा है। पर न केवल उसी रास्ते पर बने रहा गया बल्कि अतीत के कूड़े-करकट के साथ और समझौता किया गया। नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी तक की यात्रा में इसे देखा जा सकता है। 
    
हिन्दू फासीवादियों के प्रभाव और नेतृत्व में भारतीय समाज के इस लंपटीकरण से कुछ सभ्य-सुसंस्कृत लोग परेशान हैं। वे इसमें घुटन महसूस करते हैं। पर वे इस सबकी जड़ में नहीं जाते। जा भी नहीं सकते। न तो उन्हें फासीवाद की समझ होती है और न ही हिन्दू फासीवाद की। भारतीय समाज में मौजूद चौतरफा संकट को तो वे देख भी नहीं पाते। इसीलिए वे महज इस लंपटीकरण को चिन्हित करने तथा उस पर विलाप करने तक सिमट कर रह जाते हैं। 
    
स्पष्ट है कि समाज के इस लंपटीकरण के खिलाफ लड़ाई लम्बी और जटिल है, खासकर इसलिए कि हाल-फिलहाल हिन्दू फासीवादियों ने समाज की सारी कुप्रवृत्तियों को जागृत करने में सफलता पाई है और आज उनके पास संसाधन भी बहुत हैं। पर ऐतिहासिक तौर पर वे कागजी शेर ही हैं क्योंकि वे इतिहास की धारा के खिलाफ हैं। वे समाज की किसी भी बुनियादी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इसके उलट अपनी कारस्तानियों से वे उन्हें विकराल ही बनाएंगे। लेकिन ठीक यही चीज इन समस्याओं के समाधान का रास्ता भी साफ करेगी जो साथ ही साथ हिन्दू फासीवादियों की कब्र भी खोद देगा। 

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