पूंजीपति वर्ग और कांग्रेस पार्टी

शेयर बाजार का एक मुहावरा है- ‘हेजिंग द बेट’। यानी दान को सुरक्षित करना। जब शेयर बाजार के खिलाड़ी चढ़ते शेयरों पर अपना दांव लगाते हैं तो साथ ही यह भी प्रबंध करते हैं कि यदि शेयर गिरने लगें तो उन्हें कम से कम नुकसान हो। इसके लिए वे शेयरों के गिरने पर भी कुछ दांव लगा देते हैं। इस तरह चित भी मेरी, पट भी मेरी जैसी स्थिति हो जाती है। 
    
पूंजीवादी जनतंत्र में पूंजीपति अक्सर पूंजीवादी पार्टियों के प्रति यही रुख अपनाते हैं, खासकर भारत जैसे देशों में जहां सत्ताधारी पार्टी व्यक्तिगत पूंजीपतियों का काफी नफा-नुकसान कर सकती है। यहां सत्तानशीन या सत्ता में पहुंचने की संभावनाशील पार्टी को व्यक्तिगत पूंजीपति काफी पैसा देते हैं, लेकिन साथ ही वे विपक्षियों को भी कुछ पैसा दे देते हैं यह ध्यान में रखते हुए कि वे आज या कल सत्ता में आ सकते हैं। वे अपना दांव सुरक्षित करते हैं। 
    
लेकिन ऐसा लगता है कि भारत के पूंजीपति, खासकर बड़े पूंजीपति कांग्रेस पार्टी के प्रति इस रुख का परिचय नहीं दे रहे हैं। कांग्रेस पार्टी अभी भी अखिल भारतीय आधार वाली मुख्य विपक्षी पार्टी है। उसे पिछले लोकसभा चुनाव में करीब बीस प्रतिशत वोट मिले थे- सत्ताधारी भाजपा का आधा। उसके विधायकों की संख्या भी भाजपा की संख्या के आधे से ज्यादा है। ऐसे में यह स्वाभाविक लगता है कि चंदा देते समय पूंजीपति इस बात का ख्याल रखें। 
    
पर ऐसा नहीं है। हाल में राजनीतिक पार्टियों को पूंजीपतियों द्वारा चंदे का जो खुलासा हुआ है उससे पता चलता है कि कांग्रेस भाजपा से बहुत पीछे है। चुनावी बाण्ड से भाजपा को आठ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा मिले हैं जबकि कांग्रेस को महज सोलह सौ करोड़ रुपये यानी भाजपा का महज बीस प्रतिशत। भाजपा को कुल चंदे का जहां पचास प्रतिशत मिला है वहीं कांग्रेस को महज दस प्रतिशत। अन्य चंदों को मिलाकर भाजपा को बीस हजार करोड़ में से करीब बारह हजार करोड़ रुपये से ज्यादा मिले हैं तो कांग्रेस को दो हजार करोड़ रुपये से भी कम। मजेदार बात यह है कि कांग्रेस पार्टी के चंदे तृणमूल कांग्रेस तथा भारत राष्ट्र समिति के चंदों के आस-पास ही हैं। यानी चंदे के मामले में दो प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस पार्टी की बराबरी कर रही हैं जबकि पिछले दस सालों में कांग्रेस की कई प्रदेशों में सरकारें रही हैं। 
    
चंदों की सूची से यह भी पता चलता है कि देश के प्रमुख बड़े पूंजीपतियों ने या तो कांग्रेस पार्टी को बिलकुल चंदा नहीं दिया है या बस नाममात्र का दिया है। वैसे इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने दूसरी कंपनियों या दूसरे माध्यम से कांग्रेस को पैसा दिया हो। पर ‘सफेद’ तरीके से उन्होंने यह नहीं किया है। 
    
कांग्रेस पार्टी के प्रति पूंजीपतियों के इस रुख से क्या निष्कर्ष निकलता है? दो संभावनाएं हो सकती हैं। एक तो यह कि पूंजीपतियों को विश्वास नहीं है कि हाल-फिलहाल कांग्रेस पार्टी केन्द्र में सत्ता में वापस लौट सकती है। दूसरा यह कि बड़े पूंजीपति अभी भी कांग्रेस से नाखुश हैं या कम से कम वे नहीं चाहते कि कांग्रेस सत्ता में वापस लौटे। वे भाजपा को ही सत्ता में बनाए रखने को कटिबद्ध हैं। 
    
मोदी सरकार और पूंजीपतियों की आम गति को देखते हुए दूसरी संभावना ही ज्यादा मजबूत लगती है। इनके पैसे की ताकत को देखते हुए उन्हें इस बात की भी बहुत चिंता नहीं होगी कि इनके न चाहने के बावजूद कांग्रेस सत्ता में लौट सकती है। ऐसे में उन्हें दांव को सुरक्षित करने की भी जरूरत महसूस नहीं होगी। वैसे इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने ‘‘ब्लैक’’ तरीकों से यह कर रखा हो। ‘‘सफेद’’ तरीका तो भाजपा सरकार की नजर में आ जायेगा और अंबानी-अडाणी सरीखों को छोड़कर कोई व्यक्तिगत पूंजीपति यह खतरा मोल नहीं ले सकता। 
    
इस तरह भारत के पूंजीवादी जनतंत्र में कांग्रेस पार्टी की राह बहुत कठिन हो गई है। उसकी पुरानी ऐश खत्म हो गयी है। उसके बाकी बचे स्रोतों पर भी संघी सरकार अपना शिकंजा कस रही है। ऐसे में कांग्रेसी भले पूंजीपतियों पर अपने हमले को केवल अंबानी-अडाणी तक सीमित रखें, उन्हें बाकी पूंजीपतियों का बहुत साथ नहीं मिलने वाला। और बिना इस साथ के उनका सत्ता में लौटना बहुत मुश्किल है, खासकर तब जब उनका सामना संघ की संगठित सांगठनिक शक्ति से हो। 

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