आजकल देश के संघी प्रधानमंत्री ‘विकास और विरासत’ की बहुत डींग हांक रहे हैं। फिलहाल ‘विकास’ को छोड़कर ‘विरासत’ की बात करें। ‘विरासत’ से इनका आशय हिंदू धार्मिक परंपराओं, स्थलों और व्यक्तियों से है। कई बार वे इसे विस्तारित कर इसमें विज्ञान व तकनीक को भी लपेट लेते हैं। प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति यानी आयुर्वेद तो इनके खास निशाने पर रहता है।
हिन्दू फासीवादियों के हिसाब से आयुर्वेद की महिमा अपरंपार है। वे बात-बात में आधुनिक चिकित्सा पद्धति (तथाकथित एलोपैथिक) का तिरस्कार करते हैं और आयुर्वेद का गुणगान करते हैं। इनके आधिकारिक बाबा यानी बाबा रामदेव तो खुलेआम यह करते रहते हैं। अभी हाल में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें इसके लिए डांट लगाई। सरकार के सामने अन्य मामलों में घुटने टेकने वाले न्यायालय द्वारा सरकारी बाबा को डांटना काफी दिलचस्प है।
आधुनिक विज्ञान और आधुनिक चिकित्सा पद्धति के प्रति अपनी हिकारत के कारण ही हिन्दू फासीवादी और इन्हीं के पद चिन्हों पर चलने वाले पोंगापंथी आयुर्वेदाचार्य आज आयुर्वेद का कोई भला नहीं कर सकते। वे बस ‘वात, पित्त, कफ’ की रट लगाते हुए अपना धंधा जारी रख सकते हैं। वे आयुर्वेद के नुस्खों को आधुनिक विज्ञान का आधार नहीं प्रदान कर सकते।
प्राचीन भारत में आयुर्वेद (चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में सूत्रबद्ध) तब के विज्ञान पर आधारित था। अपने समय में वह तब के विज्ञान से सुसम्मत था। वह तब की वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति था। यदि आज हमें उसमें पोंगापंथ नजर आता है तो इसीलिए कि तब का विज्ञान अत्यन्त पिछड़ा था। तब सारे विज्ञानों की तरह मानव शरीर का विज्ञान भी बहुत अविकसित था। आयुर्वेद के शरीर विज्ञान पर एक नजर डालते ही यह स्पष्ट हो जायेगी।
तब भी उसके नुस्खे अक्सर कम या ज्यादा कारगर थे। आज भी उनमें से कुछ कम या ज्यादा कारगर हैं हालांकि आज यह स्पष्ट है कि कई नुस्खे महज ‘प्लेसेबो’ प्रभाव के कारण ही कारगर होते हैं (यानी मरीज अपने आप ठीक हो जाता है)। नुस्खों के कारगर होने की वजह यह होती थी कि वे लम्बे समय के व्यवहार और अनुभव पर आधारित होते थे। यानी विज्ञान भले गलत था पर तकनीक ठीक थी।
आयुर्वेद के नुस्खों की कारगरता के कारण ही आज यह जरूरी हो जाता है कि उन्हें आधुनिक विज्ञान पर आधारित किया जाये यानी शोध करके देखा जाये कि वे नुस्खे शरीर में क्या करते हैं और कैसे कारगर होते हैं। आणविक स्तर से लेकर पूरे शरीर के स्तर तक आज यह सारा पता लगाया जा सकता है।
दुर्भाग्य से यह नहीं हो रहा है। इसका मुख्य कारण वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव और पोंगापंथ है। जब तक यह भारतीय समाज और राजनीति में हावी है तब तक कुछ नहीं हो सकता। तब तक न तो आयुर्वेद को आधुनिक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया जा सकता है और न उससे लाभ उठाया जा सकता है।
मजे की बात यह है कि जो काम भारत में नहीं हो रहा है वह चीन में हो रहा है। चीन में कुछ वैज्ञानिकों ने शोध कर यह पता लगाया है कि त्रिफला कैसे मुंह के कुछ कैंसर के मामलों में कारगर होता है। यह उन्होंने आणविक स्तर पर पता लगा लिया है। ध्यान में रखने की बात है कि भारत में 2005 के आस-पास से ही जे एन यू और हैदराबाद की एक प्रयोगशाला में प्रयोग से यह पता है कि त्रिफला इस मामले में कारगर है। पर भारत के वैज्ञानिक आणविक स्तर तक नहीं पहुंच सके।
चीन में आज तेज वैज्ञानिक प्रगति और भारत में पोंगापंथ का बोलबाला हर किसी के लिए स्पष्ट है। पर हिन्दू फासीवादियों और उनकी सरकार को इससे क्या? पोंगापंथ ही उनकी सोच और राजनीति का आधार है। वे भला उसे कैसे छोड़ सकते हैं?
आधुनिक विज्ञान और आयुर्वेद
राष्ट्रीय
आलेख
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