27 जुलाई, 1953 में अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ कोरिया लोक गणराज्य (उत्तरी कोरिया) का युद्ध विराम हो गया था। 70 वर्ष के बाद भी अभी युद्ध विराम चल रहा है। उस युद्ध का खात्म नहीं हुआ। अभी भी अमरीकी साम्राज्यवादी उत्तरी कोरिया को ‘‘दुष्ट राज्य’’ के बतौर चित्रित करते रहते हैं। दक्षिण कोरिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने सैन्य अड्डे स्थापित कर रखे हैं। उत्तरी कोरिया और दक्षिण कोरिया की व्यापक आबादी एकीकरण चाहती है। लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादी और दक्षिणी कोरिया के शासक दोनों कोरिया की व्यापक आबादी की एकीकरण की आकांक्षा के सबसे बड़ी बाधा बने हुए हैं।
इस समय अमरीकी साम्राज्यवादी पूर्वी चीन सागर, दक्षिणी चीन सागर से लेकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन को घेरने की व्यापक योजना के तहत गोलबंदी कर रहे हैं। चीनी साम्राज्यवादियों ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपना आर्थिक प्रभाव बढ़ा लिया है। चीन इस समय एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। उसने जापान को व्यापार के मामले में पीछे धकेल दिया है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ उसकी बेल्ट और रोड परियोजना इस क्षेत्र की अवरचना के क्षेत्र में सबसे बड़ी परियोजना है। इसलिए इस क्षेत्र के देश दो बड़ी ताकतों के बीच- अमरीकी और चीनी साम्राज्यवादी के बीच- टकराव में किसी भी ताकत का मोहरा आम तौर पर नहीं बनना चाहते। इस क्षेत्र के कई देशों के बीच आपसी समुद्री टापुओं को लेकर आपसी विवाद है। इन विवादों को अमरीकी साम्राज्यवादी हवा दे रहे हैं। इस इलाके के देश चीन की बढ़ती ताकत से भी आशंकित हैं। लेकिन वे विवादों को आपस में, क्षेत्रीय आधार पर, बिना किसी बाहरी ताकत के हस्तक्षेप के हल करना चाहते हैं। लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादी दक्षिण चीन सागर में समुद्री रास्ते के आवागमन की आजादी के नाम पर और ताइवान को आधुनिक हथियारों से लैस करके, उसके चीन का हिस्सा होने को स्वीकार करने के बावजूद उससे स्वतंत्र देश की तरह व्यवहार करके चीन को घेरने की योजना को आगे बढ़ा रहे हैं। इसके लिए उसने क्वाड का गठन किया है। आकस नामक संगठन का गठन किया है। इस क्षेत्र के अलग-अलग देशों में अपने फौजी अड्डे बनाये हैं। इनमें जापान, दक्षिण कोरिया, थाइलैण्ड, फिलीपीन्स और अन्य देश हैं।
लगता है कि अमरीकी साम्राज्यवादी कोरिया युद्ध में अपनी करारी हार के बाद भी कुछ भी सबक लेने के लिए तैयार नहीं हैं। युद्ध विराम के 70 वर्ष होने से पहले अमरीका ने अपनी आणविक बैलेस्टिक मिसाइल पनडुब्बी दक्षिण कोरिया के बुसान में भेजी। यह 1981 के बाद पहली बार हुआ है। अमरीका के कुछ सांसदों ने यह खुलेआम दावा किया है कि इस कदम से न सिर्फ उत्तरी कोरिया को चेतावनी दी गयी है बल्कि इससे चीन को भी पीछे धकेलने में मदद मिलेगी।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कोरियाई युद्ध सबसे बड़े क्षेत्रीय टकरावों में एक रहा है। इसे अमरीकी सेना के इतिहास में सबसे बड़ी पराजय के बतौर जाना जाता है। इसे अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए दुःस्वप्न भी कहा जाता रहा है। लेकिन ऐसा लगता है कि अमरीका के भीतर इस युद्ध को भुला दिया गया है। या अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा इसे जान बूझकर भुलाया जा रहा है। यह जान बूझकर भुलाने वाली अमरीकी साम्राज्यवादियों की कोशिशें अमरीकी अवाम को अतीत से सीखने में सबसे बड़ी बाधा हैं। अमरीकी अवाम के लिए इससे भी खतरनाक बात यह है कि अमरीकी शासकों ने कोरियाई युद्ध से बिल्कुल ही गलत सबक निकाले हैं। वे इन गलत सबकों के आधार पर अमरीकी साम्राज्यवादियों की विदेश नीति को तय कर रहे हैं। इससे न सिर्फ संकट बढ़ेंगे बल्कि ये युद्धों को भी भड़का सकते हैं।
जब कोरियाई युद्ध छिड़ गया था, उस समय चीन की सरकार ने कहा था कि यदि अमरीकी फौजें 38 अक्षांश को पार करेंगी तो चीन चुप नहीं बैठेगा। उस समय की चीन की क्रांतिकारी सरकार ने अंतर्राष्ट्रीयतावाद की भावना से लैस होकर जन लोकतंत्र कोरिया की सेना के कंधे से कंधा मिलाकर अमरीकी साम्राज्यवादियों को पराजित किया था। अमरीकी साम्राज्यवादी अभी तक उस पराजय को भूले नहीं हैं। वे इससे गलत निष्कर्ष निकाल कर अब नये सिरे से न सिर्फ उत्तरी कोरिया पर बल्कि इससे बढ़कर चीन के विरुद्ध किलेबंदी कर रहे हैं।
उस समय के युद्ध के दौरान अमरीकी सेना के जनरल मैक आर्थर ने कोरिया युद्ध को चीन की जमीन तक ले जाने की सिफारिश की थी। तब अमरीकी सेना के संयुक्त चीफ ऑफ स्टाफ ओमर ब्राडले ने कहा था कि व्यापक युद्ध अमरीका को ऐसी स्थिति में पहुंचा देगा जो गलत युद्ध होगा, गलत स्थान पर होगा, गलत समय पर होगा और गलत शत्रु के विरुद्ध होगा।
उस समय अमरीकी साम्राज्यवादियों को चीन की क्रांतिकारी सरकार के समक्ष पीछे हटना पड़ा था और इसी में उसकी भलाई थी। लेकिन साम्राज्यवादी अपने चरित्र के मुताबिक हमेशा दुनिया भर में अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश व साजिश में लगे रहते हैं। आज भी अमरीकी साम्राज्यवादी एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभुत्व बनाये रखने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। लेकिन आज का चीन भी एक साम्राज्यवादी ताकत के बतौर उसके सामने चुनौती देते हुए खड़ा है। एशिया प्रशांत क्षेत्र जो उससे सटा हुआ क्षेत्र है। उसने इस क्षेत्र में अपना आर्थिक व व्यापारिक दबदबा बना रखा है। वह भी इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व कायम करना चाहता है। इस क्षेत्र के देश एक तरफ चीनी शासकों से घबराते हैं और दूसरी तरफ उसके साथ घनिष्ठ आर्थिक रिश्ते में बंधे हुए भी हैं।
इससे भी बढ़ कर एशिया प्रशांत क्षेत्र के देश अब कोई कठपुतली शासक नहीं हैं जो अमरीकी साम्राज्यवादियों या चीनी साम्राज्यवादियों के इशारे पर नाचते हैं। वे अपने-अपने स्वार्थों के अनुसार इन दोनों साम्राज्यवादियों के साथ अपने रिश्तों को तय करते हैं।
चूंकि एशिया प्रशांत क्षेत्र के शासक भी मजदूर-मेहनतकश विरोधी हैं। अपने-अपने देश में लूट के निजाम को कायम किये हुए हैं, इसलिए अमरीकी या चीनी शासकों से इनका कोई बुनियादी विरोध नहीं है। ये अपने देश में हो रही साम्राज्यवादी लूट का एक हिस्सा अपने लिए चाहते हैं। यह लूट का हिस्सा इनका ज्यादा से ज्यादा हो, इसके लिए ये सौदेबाजी करते हैं और साम्राज्यवादी ताकतें इनका हिस्सा कम करना चाहती हैं। इसके लिए ये अपनी राजनीतिक और फौजी ताकत का इस्तेमाल करके या उसकी धमकी देकर उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं।
उत्तरी कोरिया से लेकर समूचे एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों और चीनी साम्राज्यवादियों का यही खेल चल रहा है। कोरिया युद्ध के युद्ध विराम के 70 वर्ष बाद भी अमरीकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व की कोशिश कर रहे हैं और इस बार इसका प्रतिकार करने के लिए दूसरी साम्राज्यवादी ताकत चीन एक चुनौती बना हुआ है।
कोरिया युद्ध विराम के 70 वर्ष बाद भी जारी टकराव
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को