जाहिर सी बात है कि मुर्गी चाहे किसी भी रंग की हो उसे सफेद अण्डे ही देने चाहिए। मुर्गी काली हो या सफेद देगी तो सफेद अण्डे ही। यानी राजनेता किसी भी रंग का हो जब करेगा बात तो ऐसी होगी जो एकदम चमकदार सफेद रंग की होगी।
हुआ यूं कि 26 फरवरी को मोदी जी ने जनता के टैक्स से बने सैकड़ों करोड़ रुपये से बने ‘भारत मण्डपम जो कि पहली बरसात में पानी से भर गया था, में फरमाया कि ‘हमें ऐसा समाज बनाना होगा जिसमें सरकार का हस्तक्षेप कम से कम हो। मैं विशेष रूप से मध्यम वर्ग के जीवन में हस्तक्षेप पसंद नहीं करता हूं’। वाह मोदी जी वाह क्या बात है। काली मुर्गी भी सफेद अण्डे दे रही है।
मोदी के राज में हुआ तो उलटा ही है। नागरिकों के जीवन के हर क्षेत्र में सरकार और उसको चलाने वाली पार्टी और पार्टी को चलाने वाले हिन्दू फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का हर पल दखल बढ़ता गया है। कोई क्या खायेगा, क्या पहनेगा, किससे शादी करेगा, किस तरीके से शादी करेगा। अपने बच्चों को क्या पढ़ायेगा-सिखायेगा यानी जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जहां मोदी जी एण्ड उनकी कम्पनी का दखल न हो। लेकिन जब उपदेश देना हो, बड़ी-बड़ी बातें करनी हों तो मोदी जी की वाककला का कोई जवाब नहीं।
जी हां! मुर्गी किसी भी रंग की हो देती सफेद अण्डा ही है।
क्या काली मुर्गी भी सफेद अण्डे देती है
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को