मणिपुर में पिछले दो महीनों से जो कुछ हो रहा है वह गंभीर और चिंताजनक है। लेकिन उससे भी गंभीर और चिंताजनक है देश की सरकार का रुख।
मणिुपर में कानून-व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद केन्द्र सरकार का रुख कुछ इस तरह का है मानो वहां बस कुछ दंगे-फसाद हो रहे हैं जो समय के साथ बंद हो जायेंगे। इस रुख के दो ही मतलब निकलते हैं। या तो केन्द्र सरकार चाहती है कि मणिपुर में जो कुछ हो रहा है वह होता रहे या फिर जो कुछ हो रहा है उस पर नियंत्रण करने की क्षमता वह खो चुकी है। महज पैंतीस लाख की आबादी वाले प्रदेश में 65 हजार सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद यदि हालात काबू में नहीं आ रहे हैं तो वह वाकई बहुत गंभीर है।
मणिपुर के वर्तमान हालात बहुत चिंताजनक हैं। पर इससे भी चिंताजनक बात यह है कि यही हालात देश के किसी भी कोने में या फिर पूरे देश में हो सकते हैं। इसकी वजह बहुत साफ है।
मणिपुर के बारे में पूंजीवादी दायरों से भी जितनी खबरें छनकर सामने आ रही हैं उससे यह स्पष्ट है कि मणिपुर के वर्तमान हालात के पीछे हिन्दू फासीवादियों की वही करतूतें हैं जो वे पूरे देश में कर रहे हैं- खासकर 2014 में केन्द्र में सत्तानशीन होने के बाद। उन्होंने न केवल ‘बांटो और राज करो’ को अपना बुनियादी मंत्र बनाया हुआ है बल्कि वे समाज में मौजूद हर दरार को चौड़ा कर रहे हैं। वे समाज में पहले से चले आ रहे पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल कर रहे हैं तथा उसे वैमनस्य में बदल रहे हैं। वे जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा सभी आधारों पर समाज को विभाजित कर रहे हैं।
यह बहुत अजीब लगता है कि एक देश, एक भाषा और एक संस्कृति का दम भरने वाले हिन्दू फासीवादी इस तरह से समाज को जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर विभाजित करें। पर आज उन्हें सत्तानशीन होने के लिए इसके अलावा कोई रास्ता नहीं दीखता। कुछ उदाहरण इसे स्पष्ट करेंगे।
हिन्दू फासीवादी सारे हिन्दुओं को एकजुट करने की बात करते हैं। पर हिन्दुओं को विभाजित करने वाली जाति का उन्होंने जितना बारीकी से इस्तेमाल किया है उतना किसी पूंजीवादी पार्टी ने नहीं किया है। हरियाणा-उत्तर प्रदेश सब जगह इसे देखा जा सकता है। जब से पश्चिम बंगाल में हिन्दू फासीवादियों ने पैठ बनाई है तब से वहां भी इसे देखा जा सकता है।
धार्मिक आधार पर विभाजन हिन्दू फासीवादियों की पुरानी रणनीति है। इसमें मुख्य निशाना मुसलमान और ईसाई हो रहे होते हैं। पर जरूरत पड़ने पर सिखों और बौद्धों को निशाना बनाते इन्हें देर नहीं लगती। पंजाब में यह बार-बार देखने को मिला है। दिल्ली में भी यह तब देखने को मिला जब आम आदमी पार्टी के बौद्ध मंत्री को इसलिए इस्तीफा देना पड़ा कि उसने अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करते समय ली गई शपथ को एक सभा में फिर पढ़ा।
भाषा के आधार पर विभाजन को संस्कृत को फिर से थोपने, उर्दू को दरकिनार करने तथा दक्षिण भारत में हिन्दी थोपने में देखा जा सकता है। हिन्दू फासीवादियों को पता है कि दक्षिण भारत के लोग हिन्दी थोपे जाने को बर्दाश्त नहीं करेंगे पर इसके जरिये वे उत्तर में गोलबंदी करना चाहते हैं। दक्षिण में उनके पास खोने के लिए ज्यादा नहीं है पर उत्तर में वे इसके जरिये काफी पा सकते हैं।
यही हाल उत्तरी क्षेत्र का भी है। यह उत्तराखण्ड और हरियाणा में हिन्दू फासीवादियों की सरकारें ही हैं जो फैक्टरियों में स्थानीय-बाहरी मजदूर का भेद फैला रही हैं। ये हिन्दू फासीवादी ही हैं जिन्होंने हाल में बिहारी मजदूर बनाम तमिलनाडु का मुद्दा उछाला।
इन सबको करने में हिन्दू फासीवादियों का मकसद होता है किसी भी तरह सत्ता हासिल करना। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वे कुछ भी करने से गुरेज नहीं करते।
पर सामाजिक तौर पर इस तरह की चीजों की अपनी गतियां होती हैं। हिन्दू फासीवादी भले ही यह सोचें कि सत्ता में आने के बाद वे इन विभाजनों को नियंत्रित कर लेंगे तो यह उनकी भूल है। चूंकि साम्प्रदायिक दंगों में ज्यादातर उन्हीं की प्रमुख भूमिका होती रही है इसलिए सत्ता में आने पर वे इस पर काबू रखते थे। पर यह सभी मामलों में और हमेशा नहीं हो सकता। मणिपुर का ताजा उदाहरण यह दिखा रहा है कि एक स्तर के बाद चीजें हाथ से निकल जाती हैं और बेकाबू हो जाती हैं।
एक दिन सारा देश ही मणिपुर न बन जाये इसलिए भी हिन्दू फासीवादियों के खिलाफ संघर्ष जरूरी हो गया है।