3 मई को शुरू हुई मैतेई और कुकी समुदायों के मध्य हिंसा पर केंद्र और राज्य की भाजपा नीत सरकारों का रुख एक बार फिर यह स्पष्ट करता है कि ये सरकारें अपने हिन्दू राष्ट्रवाद को पोषने के लिए कोई भी सामाजिक प्रयोग करने से गुरेज नहीं करेंगी। इनका यह एजेंडा फासीवादी है और मीडिया पर इनके नियंत्रण से लेकर जनता की पिछड़ी चेतना तक कई कारक इनको इन प्रयोगों को करने की इजाजत दे देते हैं। बंटे विपक्ष के सारे हल्ले-गुल्ले के बावजूद भाजपाई नेता गोलवलकर के उस सिद्धांत का लुत्फ उठा पाते हैं कि एक झूठ को सच बनाने के लिए उसे बस सौ बार बोलना होता है। केंद्र में पूर्ण बहुमत और हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार पहले ही भारतीय राज्य मशीनरी को एक नयी शक्ल देने की और बढ़ चुका है और भाजपा जनवाद की सारी प्रतिबद्धताओं से मुक्त निरंकुश शासन करती दिख रही है।
पश्च दृष्टि से देखने पर और भी स्पष्ट होता है कि मणिपुर सरकार का एक बयान कि उसका मणिपुर उच्च न्यायालय की सलाह को मानकर मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का कोई इरादा नहीं है, भड़की हिंसा को सीमित कर सकता था। पर उन्हें तो विभाजन की राजनीति को परवान चढ़ाना था और कुकी अल्पसंख्यकों को समाज का अपराधी बनाना था।
19 जुलाई को जो वीडियो वायरल हुआ उससे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तत्काल संज्ञान में लिए जाने से एक पल के लिए लगा कि अब पूंजीवादी जनवाद फासीवाद की राह में कुछ अवरोध बन सकता है। किन्तु भाजपा अपने संसाधनों को लेकर आश्वस्त है।
प्रधानमन्त्री मोदी को पूरा विपक्ष, सर्वोच्च न्यायालय और सोशल मीडिया मिलकर मात्र 36 सेकण्ड पीछे ले जा पाए और यह पीछे हटना भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। सैकड़ों की संख्या में मौतों, लाखों की संख्या में विस्थापन मोदी को संसद में एक बयान देने पर विवश नहीं कर पाया। संसद के बाहर के एकमात्र बयान में भी मोदी ने मणिपुर की घटनाओं को राजस्थान और गैर भाजपा सरकारों वाले राज्यों की घटनाओं के बरक्श ही रखा।
19 जुलाई को वायरल हुए वीडियो में दो कुकी महिलाओं को निर्वस्त्र कर लगभग 900 बहुसंख्यक मैतेई पुरुषों की भीड़ द्वारा घुमाया जाना, उनको छेड़ा जाना, उनके पिता और भाई को मार दिया जाना और उनका वीडियो बनाकर उनसे सामूहिक बलात्कार- ये सब भाजपा सरकारों को बिलकुल भी प्रभावित नहीं करते।
मोदी इस वीडियो को मणिपुर के सामुदायिक टकराव की पृष्ठभूमि में देखने की जरूरत नहीं समझते और गोदी मीडिया मणिपुर हिंसा को पूर्व की हिंसाओं के क्रम में ही देखते हुए भाजपा सरकार को मदद करते हुए 1993 और 1997 के उदाहरण पेश करता है जबकि प्रधानमन्त्री को संसद में बयान नहीं देना पड़ा था।
पिछले दरवाजे से इस वीडियो की घटना को अलग-थलग कानून व्यवस्था की समस्या के रूप में देखते हुए इसकी जांच सी.बी.आई. को सौंपे जाने की खबर आयी है। विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार करने से विपक्ष को यह उम्मीद जगी है कि वह अब मोदी को मणिपुर पर बयान देने को मजबूर कर सकेगा। पर पूर्ण बहुमत के मुखिया पर कितना दबाव पड़ेगा यह तो वक्त ही बताएगा।
मणिपुर सरकार प्रायोजित हिंसा की बलि चढ़ रहा है। इंटरनेट बंद किये जाने से इस त्रासदी की खबरें पूरे भारत के लोगों की तरह ही स्वयं मणिपुर की उत्पीड़ित जनता तक भी नहीं पहुंच रही हैं। मणिपुर के अल्पसंख्यक दूरस्थ पहाड़ी कोनों में भय और आतंक के साये में जी रहे हैं। मणिपुर पुलिस बहुसंख्यक समुदाय का खुल कर साथ दे रही है। शेष भारत के लिए मणिपुर अभी सामान्य ज्ञान (जी के) का सवाल बना हुआ है, जिसमें अफीम का व्यापार, राष्ट्रीय सुरक्षा, पुरुषों का वहशीपन और महिलाओं की अमानवीय दुर्दशा सब उलझ कर रह गयी हैं, संभव है कि फिलहाल इन उलझनों को गोदी मीडिया और मोदी की कुल जमा चुप्पी राष्ट्रवादी दिशा (अर्थात फासीवादी दिशा) में ही सुलझाए।
मणिपुर वायरल वीडियो के बाद अनावृत्त फासीवाद
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को