राजनीति

गुजरात मॉडल नई ऊंचाई पर

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मोदी के गुजरात में जो भी हो जाये सब कम है। मोदी है तो मुमकिन है। अभी कुछ वर्ष पूर्व अडाणी के बंदरगाह पर 3000 करोड़ रुपये के ड्रग्स पकड़े गये थे। कुछ महीनों पहले प्रधानमंत्र

खान-पान और वर्ण-जाति व्यवस्था

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हमारा समय ऐसा है कि इसमें बहुत तुच्छ सी बातों को भी गुरू-गंभीर सत्य की तरह पेश किया जाता है और पेश करने वाले उम्मीद करते हैं कि उन्हें अति गंभीरता से लिया जाये। 

मांसाहार और सदाचार

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मोहन भागवत, मोदी, शाह, योगी, सरमा धार्मिक ध्रुवीकरण के माहिर खिलाड़ी हैं। कोई भी ऐसा मौका नहीं होता है जहां ये अपनी चाल से बाज आते हैं।
    

पी के : नया मदारी

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कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। और जब 2 अक्टूबर गांधी जयन्ती के दिन पीके (प्रशांत किशोर ‘‘पाण्डे’’) ने अपनी जन सुराज पार्टी की घोषणा की तो यही कहावत चर

बिच्छू घास जो सीधी भी लगती है और उल्टी भी

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पहाड़ों में एक घास होती है जो दोनों ओर लगती है। सीधी भी उल्टी भी। इस घास को छूने या पकड़़ने से बिजली का करेण्ट सा लगता है। खुजली होती है और खुजली आसानी से मिटती नहीं है। बच

ढीली खाकी नेकर में भाजपा

जैसे कोई छोटा बच्चा अपनी ढीली नेकर को संभालता फिरता है ठीक वैसे ही भाजपा, हरियाणा में अपनी सरकार संभालती रही। कहीं इस डर से कि ठीक चुनाव के पहले सरकार न गिर जाए उसने हरिय

एस.सी./एस.टी. - आरक्षण के भीतर आरक्षण क्यों न्यायसंगत है?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी आरक्षण के भीतर विभिन्न जातियों के लिए उपवर्गीकरण की छूट सम्बन्धी फैसले के बाद इसके पक्ष व विपक्ष में काफी चर्चायें हो रही हैं। इसके विरोध म

‘किस्मत मेहरबान गदा पहलवान’

यह कहावत अमित शाह के बेहद ‘लायक’ पुत्र जय शाह पर एकदम सटीक बैठती है। इस कहावत में आपको ‘किस्मत’ की जगह पर ‘‘बाप’’ पढ़ना पड़ेगा। और बाप भी ऐसा-वैसा नहीं बल्कि अमित शाह जैसा

विश्वगुरू कहां जा रहे हो

देश के प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों में ‘भारतीय शिक्षण परंपरा’ के नाम पर भूत विद्या, ज्योतिष, हिन्दू, बौद्ध, जैन केंद्र स्थापित किये जा रहे हैं। यह एक जानी-मानी बात ह

अपनी-अपनी परंपरा

अल-बरूनी ग्यारहवीं सदी में भारत आया था। वह सालों तक भारत में रहा। वह ज्ञान-विज्ञान का पिपासु था। भारत आने का उसका उद्देश्य भी यही था कि वह हिन्दुस्तान के ज्ञान-विज्ञान से

आलेख

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को

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7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।