
अभी बीते 28 मई 2023 को देश की नई संसद सेण्ट्रल विस्टा का उद््घाटन हुआ है। इस उद्घाटन समारोह में सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी व उसके कुछ सहयोगी दलों ने ही हिस्सेदारी की। बाकी विपक्ष ने इस समारोह में हिस्सेदारी नहीं की। इसके पीछे विपक्षी दलों के द्वारा अलग-अलग दलीलें दी गईं।
किसी ने यह कहकर भागीदारी नहीं की, कि सावरकर के जन्मदिन पर ही सेण्ट्रल विस्टा का उद्घाटन क्यों, महात्मा गांधी या अम्बेडकर के जन्मदिन पर क्यों नहीं? तो किसी ने यह कहा कि देश की सर्वोच्च कार्यपालिका संसद भवन का उद्घाटन देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति के द्वारा क्यों नहीं? तो किसी ने यह कहते हुए हिस्सेदारी नहीं की कि सेंगोल राजतंत्र की निशानी है और लोकतंत्र में राजतंत्र की निशानी की क्या जरूरत।
लेकिन किसी भी दल के द्वारा जंतर-मंतर पर धरना दे रहे पहलवानों के लिए दो शब्द नहीं निकले कि देश के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी धरना दे रहे हैं हम उनके समर्थन में उद्घाटन में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। किसी ने महंगाई, बेरोजगारी तथा मजदूरों की बदतर हालात और श्रम कानूनों पर बात नहीं की।
इससे इन सभी पूंजीवादी पार्टियों का वर्गीय चरित्र उजागर होता है। चाहे वह हिन्दू फासीवादी हो या फिर लोकतांत्रिक दल दोनों ही पूंजीपति वर्ग की पार्टियां हैं, दोनों विचारों को पूंजीपति वर्ग ही पालता है और आगे बढ़ाता है जरूरत के अनुसार।
कांग्रेस पार्टी के द्वारा दिया जाने वाला तर्क था कि सेंगोल राजतंत्र की निशानी है। इसलिए लोकतंत्र में उसका क्या काम। यह बात सही है कि लोकतंत्र में राजशाही के प्रतीक सेंगोल की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन शासन राजशाही हो या लोकतांत्रिक, शासन राजा करे या प्रधानमंत्री करता वह आम मेहनतकश जनता पर ही है।
जो काम राजतंत्र में राजा करता था वही काम आज प्रधानमंत्री करता है। इसका जीता जागता उदाहरण किसान आंदोलन, शाहीन बाग (एनआरसी आंदोलन) तथा महिला पहलवानों का धरना आदि है। इन सबका दमन लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री के द्वारा राजशाही ढंग से किया गया।
कुछ का कहना था कि नई संसद का उद्घाटन सावरकर की जगह अम्बेडकर या गांधी के जन्मदिन पर क्यों नहीं! तो आम मेहनतकश को यह समझ लेना चाहिए कि उपरोक्त में से कोई भी मजदूरों का मसीहा नहीं है सभी पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार हैं। हालांकि सावरकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले ठहरे। इसलिए हिन्दू फासीवादी सावरकर को अपना आदर्श मानते हैं इसलिए सावरकर का जन्मदिन उनके लिए ज्यादा शुभ रहा होगा।
रही बात देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति के उद्घाटन की तो यह समझ लेना चाहिए कि भारत के लोकतंत्र में राष्ट्रपति की हैसियत सिर्फ घर के बुजुर्ग की तरह है जिसमें निमंत्रण कार्ड तो उस बुजुर्ग के नाम से आएगा लेकिन निमंत्रण में कौन जाएगा यह बात वह बुजुर्ग तय नहीं करता।
आज पतित पूंजीवादी लोकतंत्र की हालत उस तरह की है जहां संविधान को ताक पर रख दिया गया है। आज डंकापति (मोदी जी) अपने नाम का डंका शौचालय से लेकर संसद भवन तक बजाना चाहते हैं। एक बात हम लम्बे समय से कहते आ रहे हैं कि पूंजीवादी संकट गहरा रहा है तथा पूरे देश और दुनिया में फासीवादी ताकतें पैर पसार रही हैं।
नई संसद सेण्ट्रल विस्टा में राजशाही के प्रतीक सेंगोल (राजदण्ड) को स्थापित करने का हिन्दू फासीवादियों का मकसद है कि देश में एक किस्म का राजतंत्र स्थापित हो और पूरे देश में एकछत्र एक ही पार्टी (बीजेपी) का राज हो। बीजेपी का मकसद है कि आरएसएस के सौ वर्ष पूरे होने पर देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए। आने वाले लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के नाम पर वोट मांगेगी।
हिन्दू फासीवादी चाहते हैं कि वह निरंकुश शासन करें। वो जो भी करें उन पर कोई सवाल-जवाब न करे। आज बेशक देश का बहुलांश हिस्सा उन हिन्दू फासीवादियों के मकसद को न समझ पा रहा हो लेकिन देर सबेर उसका खामियाजा भी देश की जनता को ही भुगताना होगा।
आम मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि वर्तमान में कोई भी पार्टी मजदूरों की नहीं है। सभी पूंजीपतियों की पार्टियां हैं। कोई टाटा-बिडला की तो कोई अम्बानी-अडाणी की। मजदूर आज भी गुलाम है, फैक्टरी मालिकों का, सरकार का, छोटे-बड़े प्रशासनिक अधिकारियों का, बिल्डरों-फार्मरां का। आज इस नई आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक गुलामी को तोड़ने के लिए मजदूरों-मेहनतकशों को संगठित होना ही होगा और नए समाज का निर्माण करना होगा। यही एकमात्र रास्ता है। -दीपक आजाद, हरिद्वार