प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा पिछले दिनों काफी चर्चा का मुद्दा रही। भारत के चाटुकार मीडिया ने दिन-रात की कवरेज कर यह साबित करने की कोशिश की कि मोदी एक वैश्विक नेता बन चुके हैं। कि अमेरिकी साम्राज्यवादी भी मोदी और भारत का डंका मानने को मजबूर हो चुके हैं। चाटुकार मीडिया ने मोदी के स्वागत, मोदी द्वारा ले जायी गई उपहार की सामग्री से लेकर व्हाइट हाउस के रात्रि भोज में परोसे गये व्यंजनों तक सबका पूरे भक्ति भाव से वर्णन किया। यात्रा की समाप्ति के बाद जोर-शोर से ढिंढोरा पीटा गया कि मोदी अमेरिका से जेट इंजन बनाने की तकनीक हथियाने में कामयाब हो गये हैं जो कि भारत में भविष्य में बनाया जायेगा।
मोदी के महिमामण्डन में थोड़ा रंग में भंग उस वक्त पड़ा जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की बुरी स्थिति पर प्रश्न उठा दिया। रही-सही कसर पत्रकार वार्ता में पत्रकार सबरीना सिद्दकी ने भी भारत में अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए उठाये जाने वाले सरकारी कदमों के बारे में पूछ कर पूरी कर दी। गौरतलब है कि कभी पत्रकार वार्ता न करने के लिए मशहूर मोदी बड़ी मुश्किल से संयुक्त पत्रकार वार्ता के लिए राजी हुए थे और पत्रकार वार्ता में केवल दो ही सवाल प्रधानमंत्री मोदी से पूछे गये थे। सिद्दकी के सवाल के जवाब में मोदी ने भारत के डीएनए में लोकतंत्र की बात कर सवाल से किनाराकशी कर ली।
भले ही मोदी ने व्हाइट हाउस के मंच से सिद्दकी के सवाल से किनाराकशी कर ली हो पर भारतीय मीडिया और भाजपा-संघ के नेताओं ने ओबामा और सिद्दकी को जवाब देने की ठान ली। असम के मुख्यमंत्री ने ओबामा को जवाब दिया तो संघी छुटभैय्ये नेताओं ने सिद्दकी को जवाब दिया। दोनों को दिये जवाब में उनकी मुस्लिम पहचान पर हमला बोला गया। सिद्दकी को तो पाक परस्त तक करार दिया गया। एक प्रश्न उठाने पर संघ-भाजपा के नेताओं ने ओबामा व सिद्दकी के साथ जो सलूक किया उसने दिखा दिया कि भारत में मुस्लिमों की स्थिति सचमुच दयनीय है। कि सत्ता से कोई भी प्रश्न उन्हें देशद्रोही-पाकपरस्त का तमगा दिये जाने के लिए काफी है।
भारतीय मीडिया ने मोदी यात्रा का वर्णन कुछ इस रूप में किया कि मानो अमेरिका दो दिन के लिए मोदीमय हो गया हो। जैसे भारतीय अखबारों-टीवी चैनलों ने मोदी की यात्रा को जमकर कवरेज दी, बताया गया कि ऐसा ही अमेरिका में भी हो रहा है। पर वास्तविकता यह थी कि अमेरिकी अखबारों में मोदी यात्रा की कवरेज तो थी पर वह तारीफ से अधिक आलोचनाओं खासकर भारत में लोकतांत्रिक अधिकारों के संघी शासन में हनन से जुड़ी हुई थीं। पर भारतीय मीडिया इन आलोचनाओं को छिपा ले गया।
भारतीय मीडिया ने भारतीय जनता से और भी बहुत कुछ छिपाया। मसलन उसने यह बात छिपायी कि अमेरिका के 75 संसद सदस्यों ने बाइडेन को पत्र लिख भारत में जनवादी व लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर बात करने की मांग की। मीडिया ने यह बात छिपायी कि अमेरिकी कांग्रेस में मोदी के भाषण का आधा दर्जन संसद सदस्यों ने इन्हीं आरोपों की वजह से बहिष्कार किया। मीडिया ने यह भी बात छिपायी कि अमेरिका में मोदी के स्वागत के लिए जुटायी भीड़ की तुलना में मोदी के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों की तादाद कहीं ज्यादा थी। विरोध प्रदर्शन करने वाले भारत में अल्पसंख्यकों-दलितों पर बढ़ रहे अत्याचारों पर प्रश्न उठा रहे थे। वे सुलग रहे मणिपुर पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठा रहे थे। वे भारत में पत्रकारों के साथ बढ़ रही ज्यादती पर प्रश्न उठा रहे थे। वे उमर खालिद को 1000 दिनों से बगैर ट्रायल जेल में बंद करने से लेकर भीमा कोरेगांव मामले में जेल में कैद लोगों के बारे में सवाल उठा रहे थे। इन प्रदर्शनों को आयोजित करने वाले अमेरिका के बीसियों संगठन थे। इनमें बड़ी तादाद अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों की थी। अमेरिका की सड़कों पर प्राइम मिनिस्टर मोदी को खुलेआम क्राइम मिनिस्टर का तमगा दिया जा रहा था।
भारतीय मीडिया की कवरेज का लक्ष्य स्पष्ट था। भारतीय मीडिया को किसी भी तरह से मोदी की छवि को महिमामंडित करना था। इस महिमामंडन में डूबे हिन्दी अखबारों-टी वी चैनलों ने इस यात्रा के दौरान हुए समझौतों की चर्चा करने से ज्यादा ध्यान मोदी की विश्व नेता की छवि गढ़ने में दिया।
भारतीय मीडिया के चश्मे को एक तरफ रख कर अगर मोदी की यात्रा की बात की जाए तो यह हकीकत सामने आती है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी चीन से प्रतिस्पर्धा में आज भारतीय शासकों से सम्बन्ध प्रगाढ़ बनाने की नीति पर चल रहे हैं। कभी गुजरात दंगों के चलते मोदी के अमेरिका आने पर प्रतिबंध थोपने वाले अमेरिकी शासक अगर आज प्रधानमंत्री मोदी को राजकीय यात्रा हेतु आमंत्रित कर रहे हैं तो उसके पीछे अमेरिकी साम्राज्यवादियों की यही सोच है कि भारत को साथ लेकर वे चीनी साम्राज्यवादियों के बढ़ते प्रभुत्व पर लगाम लगा सकते हैं और इस तरह वैश्विक स्तर पर अपनी कमजोर पड़ती चौधराहट को बचा सकते हैं।
जो बाइडेन द्वारा व्हाइट हाउस में मोदी का स्वागत, मोदी से भारत के आंतरिक मसलों पर बाइडेन द्वारा प्रश्न न पूछना आदि यही दिखाता है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी भारतीय शासकों को किसी भी तरह अपने पाले में बनाये रखना चाहते हैं।
अमेरिकी साम्राज्यवादियों की इसी चाहत की रोशनी में भारत और अमेरिका के बीच इस यात्रा के दौरान जो समझौते हुए, जो संयुक्त बयान जारी हुआ, उसे देखना चाहिए। हालांकि अमेरिकी साम्राज्यवादी भारतीय शासकों को उनकी औकात दिखाने से भी नहीं चूकते हैं। ओबामा का भारत के मुसलमानों की स्थिति पर बयान हो या बाइडेन द्वारा दो बार रूस-यूक्रेन युद्ध हेतु रूस को कोसना हो, यह दिखलाता है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी भारतीय शासकों को कहीं से बराबरी का दर्जा न पहले देते थे और न आज देते हैं। वे एक छोटी ताकत के बतौर ही भारत के शासकों को मान्यता देते हैं। और मौका मिलने पर कान उमेठने से भी नहीं हिचकते हैं।
जहां तक प्रश्न भारतीय संघी शासकों का है तो संघ-भाजपा आजादी के बाद से ही घोर अमेरिका परस्त रहे हैं। नेहरू काल में जब भारतीय शासक रूस-अमेरिका दोनों से संबंध कायम कर अपनी स्वतंत्रता बचाये रखने की कोशिश कर रहे थे, संघी ताकतें अमेरिकी साम्राज्यवाद से सटने की मांग कर रही थीं। ऐसे में जब 90 के दशक के बाद से भारतीय शासक अमेरिका से सटते चले गये हैं तब संघी ताकतें सत्तानशीन होने के बाद इस अमेरिकापरस्ती को और बढ़ाने का काम करती रही हैं। यह यूं ही नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी को अमेरिका जाकर जितनी खुशी होती है उतनी और कहीं नहीं। चाहे इसके लिए उन्हें कभी ओबामा, कभी ट्रम्प व कभी बाइडेन से रब्त जब्त करनी पड़े।
जहां तक प्रश्न भारत के शासक पूंजीपति वर्ग का है तो वह भी आज चीन की ताकत को महसूस करते हुए अमेरिकी पाले में जाने को उत्सुक है। हां इस हेतु वो रूस से अपनी दोस्ती व संबंधों को भी बिगाड़ने को तैयार नहीं है। वह रूस से भी हथियार खरीद जारी रखना चाहता है सस्ता तेल खरीदते रहना चाहता है तो दूसरी ओर अमेरिकी आधुनिक तकनीक उसे अमेरिका से सटने की ओर धकेलती है। अमेरिका के साथ जाने में उसे अपने उद्योग धंधों से लेकर सामरिक सभी हित नजर आते हैं। फिर भी अभी वह अमेरिका के साथ उस हद तक जाने को तैयार नहीं हैं जितना अमेरिकी शासक चाहते हैं कि जिससे रूस से रिश्तों में खटास पैदा हो जाये।
अमेरिकी साम्राज्यवादियों के दबाव और भारतीय शासकों की चाहत दोनों भारत-अमेरिका सम्बन्धों को मोदी काल में नई दिशा में धकेल रही है। मनमोहन काल में भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते के साथ भारत ने अपनी सम्प्रभुता अमेरिका के आगे समर्पित करनी शुरू की थी। मोदी काल में यह सम्प्रभुता भारत कई कदम और समर्पित करने की ओर बढ़ा है।
जहां तक वर्तमान मोदी यात्रा का प्रश्न है। तो इस यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने घोषित कर दिया कि अमेरिका भारत का सबसे महत्वपूर्ण रक्षा सहयोगी है। कि आज भारत-अमेरिका समुद्र, अंतरिक्ष, विज्ञान, सेमी कण्डक्टर, तकनीक, व्यापार, कृषि, वित्त, कला, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं हर मामले में एक साथ कार्यरत हैं।
इस यात्रा के दौरान जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ उसकी प्रमुख बातें इस प्रकार थीं-
1. अमेरिका के जनरल इलेक्ट्रिक व भारत के हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड कंपनी के बीच इस बात की सहमति हुई है कि दोनों कंपनियां भारत में GE-F414 जेट इंजन का उत्पादन करेंगी जिन्हें भारत के हल्के लड़ाकू विमान तेजस में इस्तेमाल किया जायेगा। हालांकि अभी यह बात तय नहीं हुई है कि इंजन की तकनीक का कितना हिस्सा भारत को सौंपा जायेगा। जो बातें सामने आ रही हैं उसके अनुसार अमेरिकी कंपनी तकनीक का मुख्य हिस्सा अपने पास रखेगी और भारत में केवल असेम्बली का ही काम होगा। इस तरह भारतीय मीडिया द्वारा अमेरिका से उच्च तकनीक हासिल करने का ढिंढोरा पूर्णतया गलत है।
2. अमेरिका की माइक्रान टेक्नालाजी गुजरात में 80 करोड़ डालर का निवेश सेमीकण्डक्टर असेम्बली व टेस्ट इकाई में करेगी। 2.75 अरब डालर की लागत की इस इकाई में शेष राशि भारतीय सेमीकण्डक्टर मिशन देगा।
3. भारत और अमेरिका ने नयी खोजों हेतु इनिशिएटिव आन क्रिटिकल एण्ड इमर्जिंग टेक्नालाजी (ICET) स्थापित किया है। साथ ही क्वाण्टम, ए आई व कम्प्यूटिंग में भी दोनों देश साथ में रिसर्च करेंगे।
4. चीन पर दुर्लभ खनिजों की निर्भरता कम करने के लिए भारत 11 देशों के खनिज सुरक्षा सहयोग में शामिल होगा।
5. भारत अमेरिका से डफ.9ठ नामक 16 हथियार युक्त ड्रोन खरीदेगा। इन द्रोणों पर भी प्रश्न चिन्ह उठते रहे हैं कि ये ए आई से युक्त न होने के चलते काफी श्रम शक्ति लगाकर ही संचालित होते हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि भारत अमेरिकी दबाव में इन्हें खरीदने को मजबूर हुआ है।
6. अमेरिकी नेवी ने लार्सन व टुब्रो शिपयार्ड (कट्टापुल्ली, चेन्नई स्थित) से मास्टर शिप रिपेयर एग्रीमेंट किया है। ऐसे ही समझौते वह गोवा शिपयार्ड (गोआ) और माजगान डॉक लिमिटेड (मुंबई) से करने को प्रयासरत है। इन समझौतों से भारत में अमेरिकी जहाजों की मरम्मत होने लगेगी। यह प्रकारान्तर से अमेरिकी जहाजों को भारतीय शिपयार्ड में तैनात करने सरीखा है जो भारत की सुरक्षा व सम्प्रभुता के लिए गम्भीर खतरा बन सकता है।
7. भारत अमेरिकी डिफेंस एक्सीलरेशन सिस्टम (INDUS-X) की शुरूआत की जायेगी जिसके तहत भारत व अमेरिका की निजी रक्षा कम्पनियां परस्पर सहयोग करेंगी।
8. भारत ने चांद, मंगल व अन्य ग्रहों पर खोज कार्य करने हेतु 26 देशों के साथ मिलकर काम करने हेतु अर्तेर्मिस समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
9. नासा भारत के इसरो के अंतरिक्ष यात्रियों को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में एक संयुक्त पहल हेतु ट्रेनिंग देगा। नासा व इसरो अंतरिक्ष यात्रा हेतु परस्पर सहयोग करेंगे।
10. भारत व अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन में लम्बित 6-7 विवाद के मुद्दे हल कर लिये हैं।
11. भारत सिएटल व दो अन्य अमेरिकी शहरों में अपने दूतावास खोलेगा तो अमेरिका अहमदाबाद व बंगलुरू में दूतावास खोलेगा।
12. अमेरिका भारत के लोगों के लिए वीजा प्रावधान सरल करेगा।
उपरोक्त प्रावधानों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि दरअसल भारत अपनी सम्प्रभुता अधिकाधिक अमेरिकी शासकों के आगे समर्पित करता जा रहा है। कभी भारत में अमेरिकी लड़ाकू विमानों के तेल भराने पर भारत में काफी विरोध हुआ था। आज हालत यह है कि भारत अमेरिका संयुक्त युद्धाभ्यास से बात यहां पहुंच गयी है कि अमेरिकी पानी के जहाज भारत में मरम्मत के नाम पर तैनात होने लगेंगे। यह प्रकारान्तर से भारत को अमेरिकी सैन्य अड्डे में बदलने सरीखा होगा। भारतीय सेना में बढ़ते अमेरिकी हथियार भी भारत की अमेरिका पर निर्भरता बढ़ायेंगे। कुल मिलाकर चीन के प्रभाव को रोकने के नाम पर अमेरिकी साम्राज्यवादी भारत को अपने मनमुताबिक चलाने में अधिक सफल हो रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी अपनी सम्प्रभुता कुर्बान कर भी भारतीय मीडिया के झूठे प्रचार से गदगद जरूर हो रहे हैं। मोदी की अमेरिका यात्रा का यही परिणाम रहा।