पिछले दिनों देश के प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका की यात्रा पर थे। अमेरिका में मोदी के प्रवास के दौरान वह सब कुछ हुआ जो हो सकता था। स.रा. अमेरिका में मोदी की यह पहली राजकीय यात्रा थी तो इसके अनुरूप उनका जमकर स्वागत अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा किया गया। जाम से जाम टकराये गये और एक से बढ़कर एक मुफ्त व खुले समझौते किये गये। सड़कों पर मोदी की यात्रा का जमकर विरोध हुआ। ‘मोदी-मोदी का नारा लगाने वाली भीड़ के उलट एक बड़ी संख्या थी जो हर तरह से मोदी की अमेरिका यात्रा का विरोध कर रही थी। कोई उनको ‘गुजरात नरसंहार’ की याद दिला रहा था तो कोई इस वक्त जल रहे मणिपुर पर उनके मौन पर प्रहार कर रहा था।
यह पूरे देश के लिए एक आश्चर्य की बात थी कि मणिपुर के हाल पर मोदी ने एक शब्द भी नहीं बोला। ‘मन की बात’ में दशकों पूर्व लगे आपातकाल की बात तो करते रहे परन्तु मणिपुर के आपातकाल पर एक भी शब्द न बोलना उनकी राजनीति की पोल अपने आप खोलता है। अमेरिका यात्रा में जलता मणिपुर मोदी का पीछा करता रहा। और मोदी भले ही अमेरिका यात्रा के जश्न में डूबे जो बाइडेन की मेहमान-नवाजी का लुत्फ उठाते रहे हों परन्तु उनका अतीत और उनका वर्तमान दोनों भूत की तरह उनके सिर पर नाचते रहे।
भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों व ईसाईयों पर हो रहे हमले एक ऐसा विषय था जिसे एक ओर वह लोग उठा रहे थे जो आम इंसाफ पसंद लोग हैं परन्तु दूसरी ओर यह मुद्दा अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से भी लगातार इस यात्रा के ठीक पहले और यात्रा के दौरान उठाया गया। सवाल उठाने में स्वयं बाइडेन की सरकार और पार्टी के लोगों ने कुछ कसर नहीं छोड़ी हुयी थी। रही-सही कसर मोदी के ‘परम मित्र’ अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पूरी कर दी। उन्होंने मोदी को चेतावनी दे डाली कि उनकी नीतियां गर ऐसी ही रहीं तो भारत की एकता और भविष्य खतरे में पड़ जायेगा।
आम जनों की ओर से मोदी की यात्रा का विरोध एक बात है परन्तु अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान खासकर डेमोक्रेटिक पार्टी और ओबामा (जो बाइडेन ओबामा के कार्यकाल में उप-राष्ट्रपति थे) का विरोध अमेरिका की घरेलू राजनीति को साधने से लेकर भारत के ऊपर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा है। बाइडेन का जाम टकराना और ओबामा का आईना दिखाना अमेरिकी साम्राज्यवाद की चतुर नीति का परिचायक है।
मोदी की अमेरिका यात्रा से अमेरिका की हथियार कम्पनियों से लेकर सेमी कण्डक्टर के क्षेत्र में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने करोड़ों डालर के सौदे कर डाले। अमेरिकी साम्राज्यवाद की पहुंच आज भारत की अर्थव्यवस्था के हर कोने-अंतरे में हो चुकी है। अमेरिकी कम्पनियां भारत में कोल्ड ड्रिंक से लेकर रक्षा क्षेत्र यानी हर ओर व्याप्त हो गयी हैं। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और व्यापार संतुलन अमेरिका के पक्ष में झुका हुआ है। अपनी ओर से भारत कितनी ही राजनैतिक स्वायत्तता की बात करता हो परन्तु समय के साथ भारत, अमेरिकी साम्राज्यवाद के तंतु जाल में फंसता जा रहा है। और ऐसा करने का पवित्र कार्य स्वयं भारत के शासक कर रहे हैं।
अमेरिकी साम्राज्यवादी, आज के समय में, हर क्षेत्र में चीनी साम्राज्यवादियों से मिलती चुनौती को अपने वर्चस्व के लिए खतरा मान रहे हैं। चीनी साम्राज्यवाद ने अमेरिकी दबदबे को पश्चिम एशिया से लेकर लातिन अमेरिका तक जोरदार चुनौती दी हुयी है। अमेरिकी साम्राज्यवादी ऐसे में भारत को चीनी साम्राज्यवाद के बरक्स अपनी रक्षा पंक्ति में शामिल करना चाहते हैं। भारतीय बाजार में उनका कई क्षेत्रों में दबदबा और एकाधिकार है परन्तु वे भारत में चीनी कम्पनियों व सामान को विस्थापित करने की रणनीति भी रखते हैं।
भारत के शासक लम्बे समय से साम्राज्यवादियों के आपसी अंतरविरोध का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। चीन की बढ़ती ताकत और अपने दबदबे के लिए मिल रही चुनौती से आशंकित अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हित भारत के शासकों के हितों के साथ एक हद तक मेल खाते हैं। भारतीय शासक अतीत में, शीत युद्ध के दौर में, साम्राज्यवादियों खासकर अमेरिकी व सोवियत साम्राज्यवादियों के अंतर्विरोध का लाभ उठाकर अपनी झोली भरते रहे हैं। भारत की भू-राजनैतिक स्थिति उसे यह विशिष्ट स्थान फिर से प्रदान कर रही है। चीन का पड़ोसी होना भारत को अमेरिकी साम्राज्यवाद का दुलारा बना रहा है। कभी यही काम कुछ हद तक चीनियों के साथ भी अमेरिकियों ने रूसी (सोवियत) साम्राज्यवादियों को साधने के लिए किया था। चीन की आज की हैसियत में एक योगदान स्वयं अमेरिकी साम्राज्यवादियों का भी है। अमेरिकी साम्राज्यवाद ने अस्सी के दशक में चीन में अच्छा खासा निवेश किया था। आज भी चीन में अमेरिकी कम्पनियों व वित्त पूंजी की ठीक-ठाक उपस्थिति है। चीनी साम्राज्यवादी आज जिस स्थिति में पहुंच गये हैं वहां अमेरिकी पूंजी चीन की अर्थव्यवस्था में कुछ भी छेड़ाखानी करेगी तो उसका खामियाजा चीन को कम अमेरिका को ज्यादा भुगतान पड़ेगा। भारत के लिए चीन एक आदर्श हो सकता है परन्तु उसकी जैसी हैसियत पाना बहुत दूर की कौड़ी है।
भारत में अपने जन्म के समय से हिन्दू फासीवादियों का अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति विशेष आकर्षण रहा है। पचास व साठ के दशक में हिन्दू दक्षिणपंथी व हिन्दू फासीवादी (भाजपा का पूर्व अवतार जनसंघ) लगातार मांग करते थे कि भारत अमेरिका के पाले में जाये। जो नीतियां (आर्थिक नीतियों सहित) नब्बे के दशक में भारत में लागू की गयीं उन्हें जनसंघी साठ-सत्तर के दशक में ही लागू करने की मांग करते थे। अमेरिकी साम्राज्यवाद और हिन्दू फासीवाद का यह याराना भारत के मजदूर-मेहनतकश आबादी के लिए बहुत अधिक घातक सिद्ध होगा।
मोदी की अमेरिकी यात्रा से एक बड़ा फायदा अडाणी, अम्बानी, टाटा, महिन्द्रा जैसे भारत के एकाधिकारी घरानों के मालिकों को भी होना है। अम्बानी, महिन्द्रा जैसे भारत के पूंजीपति तो मोदी के साथ बाइडेन के द्वारा दिये गये भोज में मौजूद थे। मोदी के इन प्रबल समर्थकों के मुनाफों को अमेरिकी कम्पनियों की साझेदारी से नये पंख मिल रहे हैं। उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया मोदी की अमेरिकी यात्रा की सफलता के कसीदे यूं ही नहीं गढ़ रहा है। 21 जून को संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रांगण में योग दिवस पर मोदी द्वारा योग करने को भारत में यूं प्रसारित किया गया मानो मोदी ‘विश्व गुरू’ बन गये हो। मोदी की अमेरिकी यात्रा उनकी अपनी जीवन यात्रा की तरह अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ वाली रही है। मोदी की यात्रा से भारत और अमेरिका के पूंजीपतियों ने अरबों रुपये के खेल कर दिये। और सारा खेल भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, भारत की प्राकृतिक संपदा के जीवन और भविष्य पर दांव लगाकर किया गया है।
मोदी की अमेरिकी यात्रा के निहितार्थ
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को