तीन नये अपराधिक कानून

तीन नये अपराधिक कानून जिनको पास कराया गया है उसके गुण-दोष जो भी हों, बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कानून का व्यवस्था मशीनरी इस्तेमाल कैसे करेगी और न्यायपालिकाएं उसकी व्याख्या कैसे करती हैं। 
    
मौजूदा संरचनाओं को उलटने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रबल महत्वाकांक्षा पिछले नौ सालों से अधिक समय में दिखी है। 
    
तीन नये कानूनों ने भारतीय दण्ड संहिता (आई पी सी) 1860, अपराधिक प्रक्रिया संहिता अधिनियम 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को हिन्दी शीर्षक के तहत- भारतीय न्याय (द्वितीय) संहिता- (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा (द्वितीय) संहिता (BNSS), भारतीय साक्ष्य (द्वितीय) विधेयक (BSB) के रूप में प्रतिस्थापित कर दिया है।
    
गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को लोकसभा में तीनों विधेयकों पर जवाब देते हुए कहा कि औपनिवेशिक युग के कानून केवल ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए थे और इसलिए इन नये कानूनों का मसौदा तैयार किया गया है कि न्याय दिया जा सके, न कि केवल सजा, जैसा कि पहले के कानूनों की मंशा थी। 
    
अपनी पक्षतापूर्ण बयानबाजी करते हुए शाह ने कहा कि ‘‘मोदी जी के नेतृत्व में, मैं ऐसे विधेयक लाया हूं जो भारतीयता, भारतीय संविधान और लोगों की भलाई पर जोर देते हैं इसलिए संविधान की भावना के अनुरूप कानूनों में बदलाव किया जा रहा है।’’
    
यह कहने के बाद भी यदि कानूनों में बदलाव बेहतरी के लिए है तो ठीक है। देखने वाली बात कानूनों की मंशा और भावना है। यदि यह पुराने शब्दों का पुनर्लेखन है तो यह मोदी और शाह की तरफ से माफी मांगने वाला पाप बनता है। यह राजनेताओं की दुर्बलता का परिचायक है कि वे अपने द्वारा किए छोटे कामों का श्रेय खुद को देने की कोशिश कर रहे हैं और वे बड़े कामों का भी श्रेय ले रहे हैं जो उन्होंने नहीं किये हैं। 
    
इन कानूनों के पीछे की भावना यह थी कि न्याय का अर्थ निर्दोष को दण्डित नहीं करना है, यह स्वीकार करना कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि उस पर आरोप साबित न हो जाए और एक निर्दोष व्यक्ति को दण्डित करने के बजाय सौ अपराधियों को रिहा कर देना है। 
    
भारत के ढेर सारे लोग जो आजादी से पहले और बाद में औपनिवेशिक कानूनों के साथ रहे  हैं, उनकी कानून के एंग्लो-सेक्शन दर्शन में कोई रुचि नहीं रही है। ऐसा नहीं है कि न्याय का यह आदर्शवादी सिद्धान्त भारतीय संस्कृति से अलग है। केवल बात यह है कि भाजपा जैसे कट्टरपंथी दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों और उनके प्रशंसकों को इसकी जानकारी नहीं है। 
    
शाह सदन में कुतर्क करते नजर आये जब उन्होंने यह कहा कि नये कानून से राजद्रोह को अपराध के रूप में हटा दिया गया है क्योंकि इसका प्रयोग अंग्रेजों ने बाल गंगाधर तिलक, गांधी, बल्लभभाई पटेल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को कैद करने के लिए किया था। लेकिन उन्होंने जवाहर लाल नेहरू का नाम नहीं लिया जिन्होंने ब्रिटिश जेलों में लम्बा वक्त गुजारा था, क्योंकि उनकी पार्टी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदि नेहरू के प्रति गहरी नफरत रखते हैं। लेकिन नये कानून के तहत देश के खिलाफ बोलने वालों को सजा दी जायेगी हालांकि सरकार की नीतियों की आलोचना की छूट होगी क्योंकि यह अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है। 
    
शाह, राजद्रोह को एक नये कानून के तहत वापस ले आये हैं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में देशद्रोह तभी होता है जब लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुयी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसक तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है और इसका मतलब यह नहीं है कि आप देश के खिलाफ नहीं बोल सकते हैं। 
    
यदि कोई भारतीय नागरिक यह कहता है कि भारत एक खराब देश है, कि भारतीय लोग जातिवादी और साम्प्रदायिक हैं, कि भारत का अतीत कई मायनों में अनुचित, अन्यायपूर्ण और अलोकतांत्रिक था तो वह देश द्रोह नहीं कर रहा है और ये ऐसे तर्क हैं कि दिये जा सकते हैं और जो आजाद देश में दिये जाने चाहिए। 
    
नया कानून इसके खिलाफ जाता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एक दक्षिणपंथी भाजपा सरकार, अपने संकीर्ण राष्ट्रवादी दर्शन के साथ इन कानूनों को ला रही है। 
    
जो देश, समाज या व्यक्ति आत्म आलोचना करने से इंकार करता है वह पतन की ओर जाता है। यह भारत को एक पिछड़े समाज की ओर ले जाने का प्रयास है। क्योंकि इसमें आत्मालोचना की भावना भरने की कोशिश है। 
    
इसलिए नये कानूनों का गुण-दोष चाहे जो भी हो यह इस पर निर्भर करता है कि कानून और व्यवस्था की मशीनरी उसका उपयोग कैसे करती है और अदालतें उसकी व्याख्या कैसे करती हैं। एक अच्छा कानून अपने आप में इसकी कोई गारण्टी नहीं है कि इसे न्यायपूर्वक लागू ही किया जायेगा। इसके लिए हमें पिछले कानूनों के इस्तेमाल पर नजर दौड़ानी होगी कि कैसे पिछले कानूनों का सत्ताधारियों ने पत्रकारों, विश्वविद्यालय के छात्रों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, प्रोफेसरों, किसानों एवं आंदोलनकारियों के दमन में दुरुपयोग किया। 
    
भारतीय प्रशासनिक मशीनरी जातिवादी और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित है जो केवल असहाय, पिछड़े कमजोर लोगों पर क्रूरता करती रहती है। जो न्यायाधीश अपने राजनीतिक आकाओं पर नजर रखते हैं, वे कभी सड़क पर अन्याय करने वाले पुरुष या महिला की सुरक्षा के प्रति खड़े नहीं होंगे। 
    
ये नये कानून संदिग्ध हैं क्योंकि ये सत्ताधारी रवैये वाली सरकार के जरिए आये हैं जो मुसोलिनी/हिटलर की फासीवादी विचारधारा में विश्वास करती है। 
    
‘‘राज्य में सब कुछ, राज्य के बाहर कुछ भी नहीं, राज्य के खिलाफ कुछ भी नहीं’’। 
        -व्यास मुनि, देवरिया

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