औपनिवेशिक अतीत से मुक्ति के नाम पर काली गुलामी के दस्तावेज

‘भारतीय न्याय संहिता’, ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ और ‘भारतीय साक्ष्य विधेयक’ नामक तीन महत्वपूर्ण विधेयक संसद में विपक्षी सांसदों के निलम्बन और अनुपस्थिति के बीच पिछले दिनों पास हो गये। एक तरफ 146 सांसद निलम्बित थे और दूसरी ओर संसद में ऐसे कठोर कानून पास किये जा रहे थे जिनका भारतीय समाज और खासकर न्याय प्रणाली पर व्यापक (कु)प्रभाव पड़ना है। औपनिवेशिक अतीत से मुक्ति के नाम पर काली गुलामी के फंदे में देश को फंसाया जा रहा था। गृहमंत्री शाह ने दावा किया ‘‘ये ब्रिटिश राज और ब्रिटिश काल के गुलामी के सारे चिह्न समाप्त कर सम्पूर्ण भारतीय कानून बनने जा रहा है’’। 
    
शाह के दावे पर सवाल खड़ा करते हुए किसी विशेषज्ञ ने कहा कि नए कानूनों में 80 फीसदी से अधिक प्रावधान पुराने कानूनों के समान हैं तो किसी आलोचक ने इसे ‘नयी बोतल में पुरानी शराब’ की संज्ञा दी। किसी ने कहा कि इससे पुराने कानूनों पर स्थापित न्याय शास्त्र को खतरा पैदा हो जायेगा। इन सब ने ठीक ही कहा। 
    
सच यही है कि ये नये कानून औपनिवेशिक अतीत से छुटकारे के नाम पर पुराने कानूनों को और भी कठोर और व्यापक बना देते हैं। भले ही राजद्रोह के प्रावधान को खत्म कर दिया गया हो परन्तु देशद्रोह के नाम पर व्यापक दमन का आधार तैयार कर दिया गया है। वैसे भी सत्तारूढ़ हिन्दू फासीवादी दल जिसे मर्जी आये उसे आये दिन देशद्रोही घोषित करता रहता है। नये कानून में देशद्रोह की परिभाषा को व्यापक करने के साथ उसमें कई छेद ऐसे छोड़ दिये गये हैं जहां से किसी भी विरोधी की जिन्दगी सालों-साल के लिए बर्बाद की जा सकती है। अभी ही झूठे मुकदमों में फंसाये गये लोग सालों से बिना किसी पुख्ता सुबूत के जेलों में बंद हैं। गौतम नवलखा, आनन्द तेलतुम्बड़े, उमर खालिद, सुधा भारद्वाज आदि जैसे प्रसिद्ध पत्रकार, चिंतक, छात्र कार्यकर्ता जेलों में या तो बंद हैं या कई सालों के बाद जमानत पर रिहा हुए हैं। देशद्रोह का नया कानून हिन्दू फासीवादियों के हाथ में नया घातक हथियार है। क्योंकि यहां ‘‘सरकार’’ को ‘देश’ में बदल दिया गया है। सरकार की आलोचना देश की आलोचना बन गयी है। 
    
जहां तक राजद्रोह कानून को रद्द करने का सवाल है उसमें मोदी-शाह की सरकार का कोई योगदान नहीं है। उसे तो उच्चतम न्यायालय पहले ही रद्द कर चुका था। 
    
नये कानून में पुलिस को और अधिक शक्तिशाली बना दिया गया है। पहले पुलिस को केवल 15 दिन की रिमांड दी जा सकती थी अब यह अवधि दो महीने (60 दिन) से लेकर तीन महीने (90 दिन) तक कर दी गयी है। पुलिस रिमांड में किसी भी व्यक्ति का इतने लम्बे समय तक दिया जाना उस व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों या मानवाधिकारों से ज्यादा उसके जीवन से खेलने सरीखा है। 
    
‘लव जिहाद’ के मामले में केन्द्र सरकार आधिकारिक तौर पर कहती है कि ऐसा कोई मामला ही नहीं सामने आया है। जब कोई मामला सामने नहीं आया तो यह कानून क्यों बनाया जा रहा है। जाहिरा तौर पर ऐसा कानून बनाने के पीछे हिन्दू फासीवादियों की अपनी ही मंशा है। ‘लव जिहाद’ की सजा दस साल की गयी है। 
    
नये कानून में जांच-पड़ताल के नाम पर जहां उन लोगों की हैण्डराइटिंग, उंगली की छाप, आवाज का नमूना (वॉयस सैम्पल) लिये जा सकेंगे जो कि पुलिस की गिरफ्त में हैं बल्कि पुलिस उनके भी ये नमूने ले सकती है जिन्हें गिरफ्त में नहीं लिया गया है। इलेक्ट्रानिक रिकार्ड का भी वही कानूनी महत्व होगा जो कि कागजी सबूतों का होगा। इस तरह ‘कानून के राज’ के नाम पर ‘पुलिसिया राज’ (पुलिस स्टेट) की तरफ बढ़ने की ओर का इशारा ये नये कानून करते हैं। पुलिस की जवाबदेही का कोई बंदोबस्त नहीं है। 
    
व्यभिचार और धारा 377 जिसका इस्तेमाल समलैंगिक यौन सम्बन्धों को अपराध बनाने और मुकदमा चलाने के संदर्भ में किया जाता था उसे नये कानून में हटा दिया गया है परन्तु एल जी बी टी क्यू समुदाय के जनवादी अधिकारों की उपेक्षा करते हुए उनसे संबंधित यौन हमलों के संदर्भ में कोई कानूनी प्रावधान या सजा का कोई प्रावधान नहीं रखा गया है। एल जी बी टी क्यू के सदस्य अपने साथ होने वाले यौन अपराधों के लिए न्याय की गुहार नहीं लगा सकते हैं। 
    
‘भारतीय न्याय संहिता’, ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ और ‘भारतीय साक्ष्य विधेयक’ का नाम ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में है बाकी तो इन विधेयकों का पूरा पाठ औपनिवेशिक ही है। मोदी की तुगलकी शैली से ये कानून भी नहीं बच पाये हैं। क्योंकि सवाल यह उठना लाजिमी है कि जब इन कानूनों की मांग जनता की थी ही नहीं तो ये कानून क्यों बनाये गये। तुगलकी शैली का ही नतीजा था कि ये कानून पहले-पहल जल्दबाजी में संसद में पेश किये गये परन्तु जब इनकी आलोचना हुयी (और हद तो यह थी इन कानूनों के मसविदे में व्याकरण संबंधी गलतियां भरी पड़ी थीं) तो सरकार को कानून आनन-फानन में वापस लेने पड़े। इसलिए इन कानूनों के आधिकारिक नाम में ‘‘द्वितीय’’ शब्द जोड़ना पड़ा। 
    
काले कृषि कानूनों की तरह ही ये कानून षड्यंत्रकारी ढंग से बनाये और पास किये गये हैं। लाजिमी है कि काले कृषि कानूनों की तरह ही इन कानूनों का व्यापक विरोध किया जाए। मोदी सरकार को बाध्य किया जाये कि वे इन कानूनों को वापस ले।    

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