पवित्र गाय की बलि

हिन्दू फासीवादियों ने सेना को ऐसी पवित्र गाय बना रखा है जिस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन अब वे अपने स्वार्थों के वशीभूत स्वयं ही उस पर सवाल उठा रहे हैं। 
    
इसकी शुरूआत स्वयं संघी प्रधानमंत्री ने की। विपक्षी पार्टियों द्वारा मणिपुर के मुद्दे पर घेरे जाने के बाद उनका जवाब देते हुए संघी प्रधानमंत्री ने संसद में यह बताया कि कांग्रेसी सरकार ने 1966 में मिजोरम में आम जनता पर वायु सेना से बम गिरवाये थे। संघी प्रधानमंत्री के बाद अन्य संघी भी इस पर बढ़-चढ़ कर बोलने लगे। 
    
इस तरह हिन्दू फासीवादियों ने अपना बचाव करने के चक्कर में न केवल भारतीय इतिहास का एक कड़वा सच सार्वजनिक चर्चा में ला दिया बल्कि अपनी पवित्र गाय की भी बलि चढ़ा दी। उन्होंने भारतीय शासकों की इस आम सहमति की धज्जियां उड़ा दीं कि सेना को राजनीति में नहीं घसीटना चाहिए। इससे हिन्दू फासीवादियों ने यह भी साबित किया कि उनकी सत्ता की लालसा के सामने कुछ भी पवित्र और अनुल्लंघनीय नहीं है। 
    
बहरहाल, हिन्दू फासीवादियों को इस बात का धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अपनी सत्ता की भूख के चक्कर में एक ऐसी बात को सार्वजनिक चर्चा का विषय बना दिया जिस पर समूचा भारतीय शासक वर्ग आम सहमति से चुप्पी साधे हुआ था। जैसा कि कहते हैं, अब बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। 
    
आजाद भारत की यह कड़वी सच्चाई है कि एकदम शुरूआत से ही भारत की सेना देश के एक या दूसरे हिस्से में भारतीय जनता पर बम और गोलियां बरसाती रही है। उत्तर पूर्व भारत में यह खास तौर पर होता रहा है पर देश के अन्य हिस्सों में भी समय-समय पर सेना तैनात की जाती रही है। जम्मू-कश्मीर 1990 से ही सेना के हवाले है और स्वयं सरकार के अनुसार वहां अब तक करीब पचास हजार लोग मारे गये हैं। 1980 के दशक में पंजाब भी सेना के हवाले था। 
    
जब भी कहीं सेना तैनात की जाती है तो इसका मतलब ही होता है कि हालात इतने बेकाबू हो गये हैं कि पुलिस के नियंत्रण से बाहर हो गये हैं। और ऐसे हालात बिना जन भागीदारी के कभी पैदा नहीं हो सकते। ऐसे में जब हालात पर काबू करने के लिए सेना तैनात की जायेगी तो उसके निशाने पर आम जनता आयेगी ही। यह निशाना आसमान से बम गिराकर बनाया जा सकता है और जमीन से बंदूक से गोलियां दागकर भी। पिछले पचहत्तर साल में सेना की बम-गोलियों के शिकार भारतीयों की संख्या दसियों लाख होगी जिसमें ज्यादातर निहत्थे नागरिक होंगे। ऐसे में केवल एक घटना को चुनना परले दर्जे की धूर्तता होगी। 
    
भारतीय शासकों को अपनी ही जनता को मारने के लिए सेना को तैनात करने की जरूरत क्यों पड़ी। इसलिए कि वे जो भारत चाहते थे वह देश के कई हिस्सों की जनता को स्वीकार नहीं था। उत्तर-पूर्व के लोग आजादी के समय से ही भारत से अलग होने की बात करते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के लोगों ने 1990 के दशक से यह झंडा बुलंद कर दिया। 1980 के दशक में पंजाब में सिखों के बीच भी यह मांग मुखर हो गई। 
    
इन सारे मामलों में भारतीय शासकों ने जनता की मांग को ध्यान से सुनने और उचित रास्ता निकालने के बदले गोली-बम का सहारा लिया। इन शासकों की इस पर सहमति थी। बल्कि हिन्दू फासीवादी तो सबसे बढ़-चढ़ कर गोली-बम की बात करते रहे हैं। 
    
यहां यह भी याद रखना होगा कि ऐन आजादी के वक्त ही भारतीय शासकों ने तेलंगाना किसान विद्रोह को कुचलने के लिए सेना का सहारा लिया था। बाद में भी भारतीय शासक मजदूरों-किसानों के खिलाफ अर्द्ध-सैनिक बलों का इस्तेमाल करते रहे हैं। 
    
अब जब हिन्दू फासीवादियों ने अपनी पवित्र गाय की बलि चढ़ा ही दी है तो उन्हें यह याद दिलाना होगा कि ठीक इस समय भी लाखों की संख्या में भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व में तैनात है। वह आज भी भारतीय जनों पर गोलियां बरसा रही है। बस आज उसे ऐसा करने का आदेश कांग्रेसी नहीं बल्कि स्वयं हिन्दू फासीवादी दे रहे हैं। 
    
फासीवादी अपनी मनोवृत्ति से ही सैन्यवादी होते हैं। यही उन्हें सेना का अति महिमामंडन करने की ओर ले जाता है। इसके बावजूद यदि आज हिन्दू फासीवादी प्रकारान्तर से सेना पर सवाल खड़ा करने तक पहुंच रहे हैं वो यह उनकी वर्तमान शोचनीय स्थिति का ही द्योतक है। यह शोचनीय स्थिति उन्हें इस तरह की हताशा भरी कार्रवाईयों तक ले जा रही है। 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।