शाहरुख खान, जवान और जनता की राजनीति

यह गोदी मीडिया का दौर है। यह पूंजीवादी राजनीति के फासीवाद की तरफ बढ़ते जाने का दौर है। 
    
जब पत्रकारों को ही सरकार के खिलाफ बोलने लिखने की आजादी न हो, तो शिक्षकों और कलाकारों की क्या मजाल कि वे किसी भी मुद्दे पर सरकार की अप्रत्यक्ष ही सही आलोचना कर सकें।

ऐसे में एक फिल्म 7 सितम्बर को रिलीज होती है और बॉलीवुड की यह फिल्म शुरू से अंत तक किसानों की आत्महत्याओं, उन पर लदे हुए कर्जों, चिकित्सा तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, सेना के हथियार सौदों में हुए भ्रष्टाचार की बातें उठाती है और इसका नायक जनता से सीधा संवाद भी करता है और जनता को 5 साल के लिए वोट देने से पहले सवाल करने का आह्वान करता है, और यह सन्देश भी देता है कि यदि जनता ऐसा करेगी तो उसे न्याय मिलेगा और उसे अपने कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी नायक की जरूरत नहीं पड़ेगी। 
    
ऐसे में बहुत से फिल्म समीक्षक फिल्म की तारीफ में इस दृष्टिकोण से कूद पड़ते हैं कि जमाने बाद कोई सामाजिक सन्देश देने वाली फिल्म आयी है। फिल्म समीक्षकों के अलावा कई यूट्यूब चैनल और पत्रकार इसे भाजपा सरकार की आलोचना और फिल्म निदेशक ऐटली और शाहरुख खान की बहादुरी आदि बताने लगते हैं। 
    
यह सब स्वाभाविक है क्योंकि यह दौर फासीवाद की तरफ बढ़ने का दौर है और पत्रकारों, राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषकों समेत कलाकारों के मध्य भी सरकार की विचारधारा, राजनीति से बेमेल कुछ भी बोलना खतरनाक है। इनमें से किसी का कैरियर दांव पर लग जाएगा यदि वे संघी भाजपाई आई टी सेल के निशाने पर आ गए या सरकार ने इनमें से किसी का भी मामला ई डी या सी बी आई के हवाले कर दिया तो। 
    
पर जवान फिल्म पर न तो बायकाट के आह्वान हो रहे हैं और न ही कोई शाहरुख खान या ऐटली को देशद्रोही कह रहा है। ऐसा क्यों?
    
वजहें थोड़ी अमूर्त हैं और सच ठोस होता है।
    
जवान के मामले में यह ठोस सच नहीं है कि कलाकार या निदेशक ने एक नागरिक के रूप में सत्ताशीन भाजपा, राजग या उनके किसी मंत्री या नीति के खिलाफ कुछ भी कहा हो। 
    
तो क्या इसका मतलब यह है कि कलाकार अपनी कला के माध्यम से (यहां फिल्मकार अपनी फिल्म के माध्यम से) समाज में अपनी भूमिका नहीं निभा सकते? अवश्य निभा सकते हैं। पर उनकी कला की पहुंच और प्रभाव कितना होता है, यह निर्णायक होगा।
    
बॉलीवुड में ज़माने से मां-बाप की मर्जी के खिलाफ नायक-नायिका के प्रेम के आधार पर विवाह को जायज ठहराने वाली फिल्में बनी हैं, जिन्हें स्वयं मां-बाप द्वारा भी बड़े चाव से देखा जाता रहा है। पर फिल्मों ने अलग से प्रेम विवाह के पक्ष में समाज में माहौल तैयार किया हो, ऐसा कहना मुश्किल है।
    
अव्वल तो बॉलीवुड की फिल्मों की पहुंच ही सीमित है। शहरी मध्य वर्ग, छात्र-नौजवान, आई टी सेक्टर में कार्यरत नौजवान कर्मचारी- ये ही प्रायः सिनेमा थिएटरों में जाकर या फिर लैपटॉप या मोबाइल ऐप्स पर मूवी देख कर अपना टाइम पास या मनोरंजन करते हैं। ये एक सीमित आबादी है जिसकी सामजिक मामलों में भूमिका सोशल मीडिया पर लाइक और कमेंट्स करने तक सीमित रहती है।
    
अधिकांश बॉलीवुड फिल्मों की तरह ‘जवान’ भी जनता के स्थान पर जनता पर हो रहे जुल्मों से रक्षा के लिए चमत्कारी, सर्वसक्षम, बाहुबली नायक को लेकर आती है। उस पर भी दक्षिण भारतीय फिल्मों (जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि तर्क और दिमाग को एकदम ही अलग रख कर विशुद्ध मनोरंजन और टाइम पास के लिए ये फिल्में मुफीद होती हैं) का निदेशक, बॉलीवुड के शीर्ष एक्टर्स (शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण) के साथ एक बहुत महंगी एक्शन फिल्म बनाये तो मनोरंजन की शुद्धता को सामजिक संदेशों का तड़का तो लग सकता है लेकिन इससे ज्यादा कुछ भी होने पर मनोरंजन प्रदूषित हो जाएगा और स्वेच्छतया हिप्नोटाइज होने को तैयार दर्शक तर्क और सामाजिक सक्रियता के लिए फिल्म नहीं देखता है, वह विशुद्ध मनोरंजन के लिए ऐसा करता है।
    
मान लेते हैं कि कोई दर्शक कला से सन्देश लेने के लिए फिल्म को देखे और तर्क विवेक से काम ले तो?
    
तो हमें ये खोजना पड़ेगा कि इसी तंत्र में जेलर की भूमिका में कार्यरत नायक इसी तंत्र की कलई उधेड़ने में जेल के चंद कैदियों के साथ कैसे कामयाब हो सकता है? इतने भ्रष्ट तंत्र में क्या किसी अफसर के पास इतना स्कोप हो सकता है? हमें यह भी खोजना पड़ेगा कि क्या वास्तव में अपनी उंगली का सही इस्तेमाल करके अर्थात चुनाव में सवाल करके और बेहतर को चुनने से तंत्र सुधर सकता है? क्या वास्तव में कोई ऐसी राजनितिक पार्टी चुनावी राजनीति के पटल पर उपस्थित है जिसे चुनकर मजदूरों-किसानों का कल्याण हो सकता है? शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के तंत्र से भ्रष्टाचार का खात्मा हो सकता है? क्या राजनीति और उद्योगपतियों का नापाक गठबंधन तोड़ा जा सकता है (जिनका कि इस फिल्म का नायक दावा करता है)। स्पष्ट है नहीं। 
    
ऐसा जनता की राजनीतिक जागरूकता और संघर्षों के बिना नहीं हो सकता। और जनता की भूमिका के साथ तो बाहुबली, चमत्कारिक नायकों की तो जरूरत ही नहीं रह जाती। पर बिना नायक की फिल्म कौन देखना चाहेगा?
    
फिर भी वैचारिक रूप से रिक्त कर दिए गए बॉलीवुड की पृष्ठभूमि में यदि किन्हीं बुद्धिजीवियों को जवान में सामाजिक सन्देश दिखता है तो भी संघी मंडली समझदारी से काम लेते हुए इस पर चुप रहेगी और इस पर टिप्पणी करके इस सीमित प्रभाव को बढ़ाने का काम नहीं करेगी।  

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