ऊंची विकास दर की असलियत

भारत सरकार ने वर्ष 2023-24 की दूसरी तिमाही के आंकड़े जारी कर दिये हैं। इन आंकड़ों के अनुसार दूसरी तिमाही (जुलाई-सितम्बर 2023) के लिए भारत की सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर 7.6 प्रतिशत रही। इससे पूर्व की तिमाही में यह 7.8 प्रतिशत थी। इस तरह मौजूदा वित्त वर्ष की दो तिमाहियों में भारत की विकास दर 7.7 प्रतिशत रही। इन आंकड़ों पर सरकार और दरबारी मीडिया खुशी जाहिर कर रहा है। इनकी मानें तो भारत तीव्र विकास की नाव पर सवार है और यह तीव्र विकास देश की सारी समस्यायें हल कर देगा। 
    
वैसे तो मोदी सरकार ने 2014 के बाद से ही आंकड़ों से लेकर विकास दर में इस हद तक गड़बड़झाला पैदा कर दिया है कि यह अनुमान लगाना मुश्किल होता रहा है कि कौन से आंकड़े वास्तविकता के करीब हैं और कौन से हवाई। सरकारी रिपोर्टें आंकड़ों को वस्तुगतता से रखने के बजाय इस उद्देश्य से प्रेरित नजर आती रही हैं कि कैसे भी मोदी काल में वर्ष दर वर्ष सुधार प्रतीत हो और पिछली सरकारों से बेहतर स्थिति नजर आये। मोदी सरकार की इस बाजीगरी के चलते अक्सर आंकड़ों में देश विकास करता नजर आता रहा है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां कर रही होती है। पर फिर भी अगर सरकारी आंकड़ों को ही सच मानकर गहराई से परखा जाये तो पता चलता है कि इस ऊंची विकास दर में जश्न मनाने वाली कोई बात नहीं है। 
    
सरकारी आंकड़े के अनुसार गत वर्ष दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद 38.78 लाख करोड़ रु. से बढ़कर इस वर्ष 41.74 लाख करोड़ रु. हो गया (स्थिर कीमतों पर)। इस तरह 7.6 प्रतिशत की गत वर्ष की तुलना में जीडीपी में वृद्धि हुई। परन्तु अगर हम कोविड पूर्व के वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही से तुलना करें तो तस्वीर एकदम बदल जाती है। 2019-20 की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद 35.84 लाख करोड़ रु. था जो 2023-24 में 41.74 लाख करोड़ रु. हो गया। यानी 4 वर्षों में 16 प्रतिशत या 4 प्रतिशत सालाना की वृद्धि दर्ज हुई है। जाहिर है 4 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर कोई इतराने की बात नहीं है। 
    
अब अगर सकल घरेलू उत्पाद के घटकों की बात करें तो निजी अंतिम उपभोग खर्च गत वर्ष की दूसरी तिमाही के 59.3 प्रतिशत से गिरकर 56.8 प्रतिशत हो गया है। यह सभी निजी संस्थाओं द्वारा किये समस्त खर्चों का योग होता है जिसमें परिवार-व्यवसाय-उद्यम सब शामिल होते हैं। इसमें गिरावट इस बात की ओर संकेत देती है कि लोगों की क्रय शक्ति या तो विकास दर के अनुरूप नहीं बढ़ रही है या सीधे ही गिर रही है। 
    
प्रश्न उठता है कि पारिवारिक खर्च क्यों नहीं बढ़ रहा है? अगर लोग खर्च करेंगे तभी तो अर्थव्यवस्था व बाजार तेजी पकड़ेगा। इस प्रश्न का जवाब यही संभव है कि लोगों के बहुलांश की उपभोग खर्च बढ़ाने की स्थिति ही नहीं है। या यूं कहें कि खर्च करने के लिए पैसा ही जेब में नहीं है। इस बहुलांश आबादी की खाली जेब अमीरों की बढ़ती अय्याशी के बावजूद कुल निजी उपभोग खर्च नहीं बढ़ने दे रही है। 
    
जहां तक प्रश्न सरकार द्वारा किये गये उपभोग खर्च का है तो वह गत वर्ष की दूसरी तिमाही के 8.6 प्रतिशत से मामूली बढ़कर 8.9 प्रतिशत हो गया है। यानी अर्थव्यवस्था की दशा सुधारने के लिए सरकार भी अपनी ओर से खर्च नहीं बढ़ा रही है। मोदी सरकार 5 किलो मुफ्त राशन 80 करोड़ लोगों को देने का चाहे जितना ढिंढोरा पीटे वास्तविकता यही है कि सामाजिक मदों में सरकारी खर्च गिर रहा है। तरह-तरह की सब्सिडियों में कटौती की जा रही है। शायद मोदी सरकार सोचती है कि ऊंची विकास दर ही लोगों के जीवन में खुशहाली ले आयेगी, इसलिए अलग से सरकार को खर्च बढ़ाने की जरूरत नहीं। इसी के साथ मोदी सरकार दूसरा कारनामा भी कर रही है और वह है सरकारी खर्च की बड़़ी रकम को सीधे पूंजीपतियों पर लुटाना। 
    
कुछ अन्य मापदंडों से भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत देखें तो इस दूसरी तिमाही में भारत का निर्यात गत वर्ष के 23.9 प्रतिशत से गिरकर 23.2 प्रतिशत (जीडीपी) रह गया जबकि आयात 27.7 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत हो गया। मेक इन इंडिया का नारा लगाने वाली मोदी सरकार के लिए यह आंकड़ा सुखद नहीं हो सकता क्योंकि यह दिखाता है कि भारत की माल विदेशों में नहीं बिक रहा है। 
    
इस दूसरी तिमाही में सकल मूल्य संवर्धन में कृषि का योगदान महज 1.2 प्रतिशत बढ़ा है जबकि पिछले कई वर्षों में यह 2.5 प्रतिशत रहा है। यह दिखलाता है कि बड़े पैमाने पर रोजगार देने वाली कृषि की सेहत खराब है। चावल के मामले में तो 2 वर्ष से उत्पादन गिर रहा है। इस वर्ष की दूसरी तिमाही में जहां खनन (10 प्रतिशत वृद्धि दर) मैन्युफैक्चरिंग (13.9 प्रतिशत), विद्युत गैस व अन्य उपयोगिताओं (13.3 प्रतिशत) में गत वर्ष की तुलना में सुधार प्रदर्शित किया गया है वहीं व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट व संचार में मूल्य संवर्धन में वृद्धि दर 15.6 प्रतिशत से गिरकर 4.3 प्रतिशत रियल स्टेट, वित्त व पेशेवर सेवाओं में 7.1 प्रतिशत से गिरकर 6.0 प्रतिशत रह गयी है। 
    
कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था के ये आंकड़े कहीं से जश्न मनाने की ओर नहीं ले जाते। ये भारत में कृषि की बदहाली, लोगों की घटती क्रय शक्ति की ओर इशारा करते हैं। मैन्युफैक्चरिंग की 13.9 प्रतिशत की वृद्धि दर भी तब खोखली नजर आती है जब पता चलता है कि रोजगार इस वृद्धि दर की तुलना में नाम मात्र भी नहीं बढ़ रहे हैं। 
    
महंगाई-बेरोजगारी की मार हर परिवार अपने दैनंदिन जीवन में महसूस कर रहा है। ऐसे में आंकड़ों की बाजीगरी कर ऊंची विकास दर हासिल करने पर जश्न मनाना देश की मेहनतकश करोड़ों-करोड़ आबादी के जले पर नमक छिड़कने सरीखा ही है। पर अफसोस कि आंकड़ों में नाचती मोदी सरकार यही कर रही है। 

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